पी.के. कभी नहीं कह पायेगा ‘तोहार बॉडी पर जाति का ठप्पा किधर है’

पी.के. फिल्म धर्मान्धता और अन्धविश्वास पर कड़ा प्रहार करती दिखाई देती है. आलोचनात्मक सोच अपने उफान पर होने का बोध कराती है. प्रतीत होता है कि ज़्यादातर समाज को ये ‘हिट’ फिल्म खूब सुहाई, खास तौर पर पढलिख गया ऊंची जाति का तबका इसे एक ‘सुधारवादी’ फिल्म के तौर पर देखता है.


02 April 202015 min read

Author: Lenin Maududi

प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे. प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अंतरे की विवेकपूर्ण जाँच-पड़ताल उसे करनी होगी. यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच-विचार के बाद किसी सिद्धांत या दर्शन में विश्वास करता है तो उसके विश्वास का स्वागत है. उसकी तर्क पध्दति भ्रांतिपूर्ण गलत पथ-भ्रष्ट और कदाचित हेत्वाभासी हो सकती है, लेकिन ऐसा आदमी सुधर कर सही रास्ते पर आ सकता है. क्योंकि विवेक का ध्रुवतारा सही रास्ता बनाता हुआ उसके जीवन में चमकता रहता है. मगर कोरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक होता है. क्योंकि वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है

यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को तो समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी. यदि विश्वास विवेक की आँच बर्दाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जाएगा.- भगत सिंह (मैं नास्तिक क्यों हूँ? लेख से)

पौनी सदी से अधिक समय हो गया जब भगत सिंह ने उपरोक्त कथन के ज़रिये धर्म और रूढ़ियों के बरक्स तर्क (logic) एवं आलोचनात्मक सोच (critical thinking) की बात की. उन्होंने भारत में धर्म और इसके उन्माद की खतरनाक रंगत को पहचान लिया था और शायद यह भी कि ये किनके हाथ का खिलौना है. सो, वो अंग्रेजों के खिलाफ अपनी लड़ाई में भी इन ठोस बातों को ज्यादा महत्त्व देते दिखाई पड़ते हैं. बहरहाल, सब जानते हैं, भारत का विकास, यहाँ की मिटटी में घुल चुके जातिवाद और उसका नफ़ा उठाते सवर्णों ने इस तर्ज़ पर, होने ही नहीं दिया. यह कहानी असली है. असली खेला... जिसका कैनवास बहुत बड़ा है. यह पटकथा है ब्राह्मणवाद और सहयोगियों की. यह खेला अभी तक, ढंग से, किसी असली खेला यानि फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाया है।

आज जब पेशावर से पेरिस तक धर्म रक्षा करने के प्रयास हो रहा है. जुनैद, पहलू खान, एखलाक की हत्या की जा रही है, भगत सिंह का कथन और आज की तारिख में पी.के. दिमाग में अचानक से कौंध गए. इसी सिलसिले में आंबेडकर की वो बात याद आती है जहाँ उन्होंने धर्म को केवल पहचान के रूप में देखने का कड़ा विरोध किया. उनका मानना था कि जब धर्म को आप धार्मिक पहचान बना लेंगे तो उस धर्म में आने वाली असमानताएँ आप को नज़र नहीं आएंगी. हिन्दू-मुस्लिम समाज की सवर्ण जातियां ये बात अच्छे से जानती हैं इसलिए वो 'हिन्दू के नाम पे एक हो जाओ' व् 'मुसलमान के नाम पे एक हो जाओ' का नारा लगाती हैं।

भारतीय सिनेमा ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जड़ों को खाद पानी देने में आगे रहा है. हालांकि समय समय पर ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं जिन्होंने लीक से हट कर होने का रुतबा हासिल किया. लेकिन क्या वाकई में ऐसा है भी?

Poster from P.K

बहरहाल, पी.के. फिल्म धर्मान्धता और अन्धविश्वास पर कड़ा प्रहार करती दिखाई देती है. आलोचनात्मक सोच अपने उफान पर होने का बोध कराती है. प्रतीत होता है कि ज़्यादातर समाज को ये ‘हिट’ फिल्म खूब सुहाई, खास तौर पर पढलिख गया ऊंची जाति का तबका इसे एक ‘सुधारवादी’ फिल्म के तौर पर देखता है. समाज की बाँट से परिचित एक बड़ा वंचित तबका भी इसे भारतीय सिनेमा के एक आलोचनात्मक सोच की और बढ़ते हुए ‘स्कोप’ के तौर पर देखता है जिसमें उनके लिए सीधे रूप में भले कुछ न हो लेकिन फिर भी उम्मीद तो है ही।

अब यहाँ यह समझने की ज़रुरत है कि पीके फिल्म धर्मान्धता पर तो हमला करती है पर इस सवाल को नकार देती है कि इस धर्मान्धता, धार्मिक हिंसा का मूल कारण ब्रहामणवाद है, अशराफवाद है. तार्किक आंख से खोजेंगे तो जान जायेंगे कि जितने भी इस्लामिक आतंकवादी संगठन हैं सबके संस्थापक किस जाति विशेष के हैं. भारत में केसरिया आतंकवाद के सरगना किस जाति के हैं. हिन्दुओं का संगठन कहलाने वाला पूरा का पूरा RSS किस जाति विशेष का संगठन है यानि फैंसले लेने का अधिकार किस जाति के पास है. फिर आप को आसानी से ये बात समझ में आ जाएगी कि ये धार्मिक पागलपन अपने भीतर जातिवाद को छिपाए है जो किसी जाति को सहूलियत देता है और किसी विशेष जातियों को हाशिये पर मरने के लिए छोड़ देता है. जाति की सहूलियतों को छिपाने वाले सवर्णों के लिए एवं उनकी राजनीति के लिए ये धार्मिक उन्माद ज़रूरी है. अगर यह धर्म हर एक का निजी मसला हो और यह उन्मादी हद तक भी नहीं पहुंचेगा. तब शायद पीके को कुछ अलग तजुर्बे होते।

दरअसल, ठरकी छोकरा (PK) जब पूछता है कि “तोहार बॉडी पर धर्म का ठप्पा किधर है?

तो उसे साथ के साथ ये भी पूछना चाहिए की “तोहार बॉडी पर जाति का ठप्पा किधर है राजकुमार हिरानी (निर्देशक) का एलियन भारत में धर्म तो देख लेता है पर जाति नहीं देख पाता।

इसमें कोई शक नहीं की पीके को एलियन के रूप में दिखाना उनका मास्टरस्ट्रोक है. एक ऐसे आदमी के नज़रिए से दुनिया को देखना/दिखाना जो दूसरे ग्रह से आया है एक बेहतरीन कांसेप्ट है. पर ये और भी बेहतर हो सकता था अगर ये एलियन धर्म के अन्दर की असमानताएं भी देख पाता; और ये समझ पाता कि धर्म की व्याख्या भारत में एक जाति विशेष करती आ रही है. ये समझ पाता कि एक धर्म सिर्फ दुसरे धर्म के खिलाफ नहीं खड़ा होता बल्कि अपने ही धर्म में दबा दी गईं, कलंकित घोषित कर दी गईं जातियों दबाने-सताने का हथियार है. एक आसान बात पीके को समझ नहीं आती कि जब तुम धर्म की एकता की बात करते हो तो दरसल तुम शोषकों (सवर्ण जातियों) की बात करते हो और जब तुम दलित जातियों की एकता की बात करते हो तो तुम शोषितों की एकता की बात करते हो।

A still from the film P.K.

आप सब को इस फिल्म की कहानी पता है फिर भी एक बार मै दोहरा देता हूँ. कहानी कुछ इस प्रकार से है कि दूसरे ग्रह से आए पीके का स्वागत हमारे यहाँ कुछ खास अच्छा नहीं होता और धरती पर मिला पहला प्राणी ही उसके यान को वापस बुलाने का रिमोट छीन लेता है. घर से दूर अकेला पीके रिमोट ढूंढने निकल पड़ता है, किन्तु रिमोट ढूँढना इतना आसान भी नहीं. 125 करोड़ लोगों के बीच रिमोट खोजना ऐसा है जैसे 'भूसे के ढेर में सुई खोजना' इसलिए लोग उसके सवाल का जवाब ये कह कर देते हैं कि हम क्या जाने भईया भगवान जाने! अब पी.के भगवान को खोजने निकल पड़ता है और किसी निर्दोष बच्चे की तरह बहुत से सवाल और उम्मीद पाले भगवान, खुदा और यीशु की शरण में जाता है लेकिन रिमोट न मिलना था न मिला. कैसे मिलता? वह तो तपस्वी जी ने खरीद लिया था और शिव जी के डमरू का मनका बताकर मंदिर बनाने की लालसा पाले था. बाद में पीके को शक होता है कि 'ई गोला का भगवान से बात करे का कम्युनिकेशन लूल हो गया है'. वह समझता है कि तपस्वी निर्दोष हैं लेकिन कोई अन्य व्यक्ति उन्हें बेवकूफ बना रहा है. न्यूज़ चेनल की एंकर जग्गू (अनुष्का शर्मा) की सहायता से तपस्वी से सवाल जवाब करता है, उन्हें समझाने का प्रयास करता है. इसी क्रम में कई दिलचस्प घटनाएँ होती है जो न केवल खुल कर हँसने को मजबूर करती है बल्कि कई दफा आँखों को नम भी करती हैं।

A still from the film P.K.

धर्म के नाम पर चल रही राजनीति और तमाम तरह के भेदभाव और आस्थाओं में बंटे इस समाज में भटकते हुए पीके के जरिए हम उन सारी विसंगतियों और कुरीतियों के सामने खड़े मिलते हैं, जिन्हें हमने अपनी रोजमर्रा जिंदगी का हिस्सा बना लिया है. फ़िल्म में आमिर खान उर्फ पीके कहता है “बहुत ही कनफुजिया गया हूं भगवान. कुछ तो गलती कर रहा हूं कि मेरी बात तुम तक पहुंच नहीं रही है. हमारी कठिनाई बूझिए न. तनिक गाइड कर दीजिए... हाथ जोड़ कर आपसे बात कर रहे हैं...माथा जमीन पर रखें, घंटी बजा कर आप को जगाएं कि लाउड स्पीकर पर आवाज दें. गीता का श्लोक पढ़ें, कुरान की आयत या बाइबिल का वर्स... आप का अलग-अलग मैनेजर लोग अलग-अलग बात बोलता है. कौनो बोलता है सोमवार को फास्ट करो तो कौनो मंगल को... कौनो बोलता है कि सूरज डूबने से पहले भोजन कर लो तो कौनो बोलता है सूरज डूबने के बाद रोज़ा खोलो. कौनो बोलता है कि गैयन की पूजा करो तो कौनो कहता है उनका बलिदान करो. कौनो बोलता है नंगे पैर मंदिर में जाओ तो कौनो बोलता है कि बूट पहन कर चर्च में जाओ. कौन सी बात सही है, कौन सी गलत. समझ नहीं आ रहा है. फ्रस्टेटिया गया हूं भगवान... इसी फ्रसट्रेशन और कनफ्युजन से धर्म की दुकानें चलती है. बेशक पीके ने धर्म के धंधे पर चोट की है लेकिन यहाँ मुद्दे की बात यह है कि यह धंधे की बागडोर है किसके हाथ में? आंबेडकर भी यही चाहते थे कि धर्म को स्वनियुक्त धार्मिकतावादियों के चंगुल से मुक्त करें (उन धार्मिकतावादियों के, जिन्होंने धर्म को केवल सांस्कृतिक आचरणों और प्रतीकों तक सीमित कर दिया था) और धर्म के दार्शनिक और धर्मशास्त्रीय आयामों पर फिर से लौटें. आंबेडकर पीके की तरह ढूल-मूल तरीके से बात नहीं करते. न ही वो पीके की तरह सिर्फ समस्या पे केन्द्रित हैं बल्कि उसके कारण पे प्रकाश डालते हैं. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जबतक आप धर्म की राजनीति के ज़रिये हरसू पसरे ऊंची कही जाने वाली जातियों के वर्चस्व को नहीं पहचानते दरअसल आप समस्या को ही नहीं समझ सकते, उसके समाधान का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

धर्मयुद्धों से लेकर मुखालफ़त के वर्तमान नारों के बीच कितने ही मासूमों के गले रेते गए हैं. इसी कड़ी में जब पीके का दोस्त एक आतंकवादी हमले में मारा जाता है. मृतक दोस्त का जूता हाथ में लिए डबडबाई आँखों और कांपते अधरों से कहता है, “अपने भगवान की रक्षा करना बंद करो वरना इ गोला पे सिर्फ जूता ही रहेगा.” तब पेशावर की स्कुल के खून सने मेज, समझोता एक्सप्रेस के डिब्बे और पेरिस में खौफ़जदा लोग भी बरबस कौंध जाते हैं, साथ ही ये सवाल भी कि धर्म और ईश्वर का इस्तेमाल कौन कर रहा है? और कैसे कर रहा है? यहाँ और एक सवाल पैदा होता है कि अगर धर्म-ग्रन्थों का प्रयोग उनकी गलत व्याख्या कर गलत कार्य के लिए किया जा रहा है तो उसकी सही व्याख्या कर ढोंगियों को बेनकाब किया जा सकता है? पर अगर धर्म में ही कुछ ऐसा हो जो अपने ही समाज के लिए हिंसक हो तो क्या किया जाए? हज़ारों सालों से दलितों का उत्पीडन क्या धर्म आधारित नहीं है? क्या उन धार्मिक ग्रंथो और मुल्ले-पण्डों को हिन्दू-मुस्लिम धर्मों ने ख़ारिज कर दिया है जो हिंसा और जातिवाद को बढ़ावा देते है? धर्म के प्रयोग पर पीके बेबाक तो है पर उसकी दृष्टि हिरानी ने जाने-अनजाने सुक्षम नहीं रखी. वह जाति को भारतीय लेफ्ट की तरह ही नज़रंदाज़ करके चलता है।

इक्कीसवीं सदी में ज्यादा वैज्ञानिक और आधुनिक होने की संभावनाओं के बरक्स हमारे भारत के टेलिविज़न चेनलों ने अन्धविश्वास को फ़ैलाने का ठेका उठा लिया है. इससे नीम हालात में पड़े दिमाग का फायदा हिंदी फिल्मे उठाती हैं. लोगों को धर्म और चमत्कारों के नाम पर हर चीज़ हज़म हो जाती है. लोग सिरे के अन्धविश्वासी हो गए हैं कि तर्क की बात पर क़त्ल हो जाने तक के सबूत ये समाज आज के दौर में भी देने लगा है. यह क़त्ल सोची समझी साजिश हो सकते हैं. असुरक्षित लोग समस्याओं का हल अन्धिविश्वास में ढूंढते हैं. जिसका फायदा उठाकर आस्था, राजनीति और बाजार को फेंट कर जो आमलेट हमें परोसा जा रहा है. बस यहीं पर इस बात पर गौर करने की ज़रुरत है कि ये असुरक्षा और भय हमारे जेहन में पैदा कौन कर रहा है? इस्लाम खतरे में है हिन्दू धर्म खतरे में है, का नारा कौन दे रहा है? ये अपने समाज के अशराफ/सवर्ण जातियों के लोग ही हैं. इनके लिए आर्थिक-सामाजिक मुद्दे हमेशा दूसरे पायदान पर रहते हैं और गैरजरूरी भावनात्मक मुद्दे पहले पायदान पर. मुसलमानों में यह धार्मिक नेतृत्व हमेशा इस यथार्थ को ढकने की कोशिश करता है कि मुसलमानों में गहरा जातिये  विभाजन है; और यह कि धार्मिक नेतृत्व निम्नवर्गीय मुसलमानों के आर्थिक-सामाजिक उत्थान में पूरी तरह विफल है. वजह है इस नेतृत्व के अस्तित्व का मुस्लिम एकरूपता के मिथक पर टिका होना. पीके धर्म की कम्पनी और उसके मैनेजरों से मुखातिब होता है पर इनका नाम नहीं लेता. ये नहीं बताता की इस धर्मान्धता का फायदा किसे हो रहा है और नुकसान किसे. आज वैराग्य का उपदेश देने वाले धार्मिक गुरुओं की अनाप-शनाप सम्पति दबी छुपी नहीं है और न ही अजमेर के चढ़ावे. आप पता करें कि अजमेर की गद्दी नशीनो में पसमांदा समाज का क्या एक भी सदस्य है? पुरे हिंदुस्तान में जितने भी बड़े दरगाह हैं वो सैयदों/अश्रफों की क्यूँ है? वहीं इस देश के दलित पीके यही सोचते हैं कि “भगवान पेमेंटवा ले लिए पर काम नहीं किए” जबकि ये पेमेंट किसी ओर के लिए सुख सुविधा जुटाने के काम आ रही है. पीके का तपस्वी हो या ओह माय गोड का स्वामी, ब्राहमणवाद-अशराफवाद की संताने हैं जो अपने समाजों के हर सुविधा जनक पद पे नज़र आएँगे. ये ऐसे जनबल और धनबल वाले वर्ग के लिए धर्म वरदान है, क्यूंकि लोकतंत्र में भीड़ से चरण वंदना करवा लेने का उतना ही महत्व है, जितना बाज़ारीकरण में गरीब जनता का रक्त चूस महल खड़े कर लेने का महत्व है।

बॉलीवुड में जब भी दो धर्मो के बीच प्रेम कहानी बनती है, आप इसे बाजार का प्रभाव कहें या धार्मिक पक्षपात, लेकिन वास्तविकता यही है कि उसमें नायक हिन्दू और नायिका को मुसलमान ही दिखाया जाता है (कुछेक फिल्मो को छोड़ दें तो) रोज़ा, बॉम्बे, इशकज़ादे, जुबैदा, जैसी अधिकतर फिल्में इसका उदाहरण है. लव जिहाद का चाहे जितना ढिंढोरा पीटा जाए. ये कोई इतेफाक नहीं है कि ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं जिसमें नायिका मुस्लिम हो. भारत जैसे अर्धसामंती समाज में स्त्री की पहचान उसके पति से होती है यानि अगर लड़का हिन्दू हुआ तो उसके बच्चे भी हिन्दू होंगे. इस तरह इन वैवाहिक संबंधों को दो सम्प्रदाय के बीच आपसी प्रेम सम्बन्धो के रूप में देखे जाने के बजाए दूसरे धर्म पर अपनी उच्चता और जीत के रूप में देखा जाता है. पीके फिल्म इस मायने में भी लीक से हटती है. इसमें लड़की हिन्दू है और लड़का मुसलमान. पीके के तपस्वी जी लव जिहाद के प्रणेताओं के समान बाकायदा भविष्यवाणी कर देते हैं कि मुस्लिम लड़का धोखा देगा. हाल ही में लव जिहाद का शगूफा छोड़ा गया था. जिसमें यही बात समझाई गई थी कि मुस्लिम लड़के हिन्दू लड़कियों का उपभोग करते है और यह कि वे धोखेबाज़ होते है. इस तरह ये फिल्म उस रॉंग नंबर पर उस मानसिकता पर भी चोट करती है जिसमें एक पुरे समुदाय को धोखेबाज़ बना दिया गया है. इसी देश में अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाह करने वाले युगल मौत के घाट उतारे जा रहे हैं. उसमें सहिष्णु और समन्वयशील संस्कृति का दंभ भरने वालों की मौन स्वीकृति चकित करती है. सानिया मिर्जा की देशभक्ति संदिग्ध करार दे दी जाती है. वहीं पीके में हिन्दुस्तानी जग्गू और पाकिस्तानी सरफराज के प्रेम की ताजगी सुकून देती है. परन्तु अब भी हिंदी सिने जगत को थोड़ा और परिपक्व एवं निडर होने की ज़रूरत है. अब तक कोई भी ऐसी फिल्म नहीं बनी जो मुस्लिमों के अंदर दो भिन्न जातियों के बीच प्रेम कथा पे आधारित हो. बॉलीवुड अब तक उसी मिथक को जिंदा किये हुए है की मुस्लिम समाज में जातियां नहीं होती. हालाँकि यहाँ यह कह देना भी उचित है कि दलित, आदिवासी, पसमांदा का प्रतिनिधित्व हिंदी सिने जगत में है ही कितना!

रेडियो पीके फिल्म में एक महत्वपूर्ण प्रतीक है. पीके आते ही रिमोट खो बैठता है तो उसे चोर का रेडियो मिल जाता है. शुरू में वह तन ढँकने के काम आता है लेकिन कपड़े मिलने के बाद भी पूरी फिल्म में पीके इसे अपने पास ही रखता है. पीके ने चाहे इसे चोर की अमानत समझ कर रख लिया हो लेकिन निर्देशक ने इसका बखूबी इस्तेमाल किया है. पीके के धरती पर आते ही रेडियो पर “तुम तो ठहरे परदेसी...” गाना बज रहा होता है. वहीं बम फटने के समय साहिर लुधियानवी के लिखे गीत की पंक्तियाँ इसी रेडियो पर गूंजती है, ”आसमां पर है खुदा और जमीं पे हम.. आजकल किसी को वो टोकता नहीं.. चाहे कुछ भी कीजिए रोकता नहीं.. हर तरफ है लूटमार और फट रहे हैं बम..” पीके को भगवान रिमोट नहीं दिला पाते. तब वह पूछता है, ”भगवान की बैटरिया खत्म हो गई है क्या?” लेकिन उसे पता है कि रेडियो जरूर बेटरी से चलता है इसलिए वापस जाते हुए ढेरों बेटरी साथ ले जाता है।

खबरिया चैनलों पर व्यंग्य है और उनकी चुनौतियों पर भी, जिन्हें कुत्ते के सुसाईड पर खबरें बनानी पड़ती है, योगी जी की खाने की थाली दिखानी पड़ती है. ऐसे में आजकल मीडिया को चौथा स्तंभ कहना और लोकतंत्र को अपंग कहना एक ही बात है. मीडिया अब पेड न्यूज़ से आगे बढ चुकी है अब वो फेक न्यूज़ का हिस्सा है. मीडिया को नकारात्मक चरित्र के व्यक्ति नायक की तरह लगते है. अब साफ़ तौर से मीडिया की जाति सब के सामने आ चुकी है. इसे आरक्षण का विरोध करते 10 लड़के नज़र आ जाते हैं पर सहारनपुर की जातीय हिंसा का विरोध करते लाखो लोग नज़र नहीं आते. मीडिया धर्मान्धता और अन्धविश्वास से लड़ने में अक्षम है क्यूंकि यही धर्मान्धता और अंधविश्वास उसकी टी.आर.पी हैं. एक-दो न्यूज़ चैनल को छोड़ दें तो सभी न्यूज़ चैनल पर सुबह और रात में आप राषिफल, बाबाओं के प्रवचन आदि देख सकते हैं. ऐसे में पीके फिल्म में जिस मीडिया की बात की गई है जो अन्धविश्वास और धर्मान्धता से लड़ती है वो काल्पनिक सी लगती है।

बहरहाल, आखिर में पीके को उसका रिमोट मिल जाता है और वो अपनी दुनिया में चला जाता है. पीके की दुनिया सुखी है. वहाँ झूठ नहीं बोला जाता, कपड़ा नहीं पहना जाता. यानि कोई आडंबर नहीं. फिर भी पीके वापस आता है पृथ्वी पर. लेकिन शक है कि अब कि बार भी वह या पूछ पाए कि ‘तोहार बॉडी पर जाति का ठप्पा किधर है?

यह लेख 05 October 2017 को https://hindi.roundtableindia.co.in/index.php/perspective/film-and-literature/8793 पर प्रकाशित हो चुका है


**
**

Subscribe to Pasmanda Democracy

Get the latest posts delivered right to your inbox.

Share: