पसमांदा आंदोलन के जनक - मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी की जीवनी

अपनी तमाम परेशानियों, चिंताओं और लगातार यात्राओ के बावजूद भी खत और रोज़नामचा (डेली डायरी) लिखने के अलावा अखबार, पत्रिकाओं और पुस्तको का अध्य्यन करना कभी नही छोड़ा। यह अध्य्यन सिर्फ अध्य्यन या केवल सामाजिक या राजनैतिक गतिविधियों के जानने भर तक ही सीमित नही था, अपितु विज्ञान, साहित्य और ऐतिहासिक तथ्यो का शोध और उनके जड़ो तक पहुंचना चाहते थे। इस मामले में उस समय के प्रसिद्ध अखबार और पत्रिकाओं के सम्पादकों को पत्र लिखने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे। अपनी चालीस साल की सरगर्म और सक्रिय जीवन में मौलाना ने अपने लिए कुछ ना किया, और करने का मौक़ा ही कहाँ था ?


22 April 202212 min read

Author: Faizi

 स्वतंत्रा सेनानी एवं प्रथम पसमांदा आंदोलन के जनक, मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी, जन्म: 15 अप्रैल 1890 - मृत्यु: 6 दिसम्बर1953

मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी का जन्म 15 अप्रैल 1890 को मोहल्ला खास गंज, बिहार शरीफ, जिला नालंदा, बिहार में एक दीनदार (धार्मिक) गरीब पसमांदा बुनकर परिवार में हुआ था।

1906, में 16 वर्ष की अल्प आयु में उषा कंपनी कोलकाता में नौकरी करना शुरू किया। नौकरी के साथ- साथ अध्यन (पढाई लिखाई) भी जारी रखा। कई तरह के आंदोलनों में सक्रिय रहे। पाबन्दी और बेचारगी वाली नौकरी छोड़ दिया, जीविका के लिए बीड़ी बनाने का काम शुरू किया।

अपने बीड़ी मज़दूर साथियो की एक टीम को तैयार किया, जिनके साथ राष्ट्र और समाज के मुद्दे पर लेख लिख के सुनाना और विचार विमर्श करना रोज़ की दिनचर्या थी।

सन 1908-09 में मौलाना हाजी अब्दुल जब्बार शेखपुरवी ने एक पसमांदा संगठन बनाने की कोशिश किया जो कामयाब न हो सकी। आप को इस बात का बहुत बड़ा सदमा पहुंचा था।

1911 ई० में तारीख-ए-मिनवाल व अहलहु, जो बुनकरों के इतिहास से सम्बंधित है, पढ़ने के बाद खुद को पूरी तरह से सघर्ष के लिए तैयार कर लिया।

22 साल की उम्र में, बड़े बूढ़ो की तालीम (प्रौढ़ शिक्षा) के लिए एक पंचवर्षीय (1912-1917) योजना शुरू किया।

इस दौरान जब भी अपने वतन बिहार शरीफ, जाते, तो वहाँ भी छोटी-छोटी बैठकों द्वारा लोगो को जागरूक करते रहें।

1914 ई०, जब आप की उम्र सिर्फ 24 साल थी, अपने वतन मुहल्ला खासगंज, बिहार शरीफ, जिला नालंदा, में बज़्म-ए-अदब (साहित्य सभा) नामक संस्था की स्थापना किया जिसके अंतर्गत एक पुस्तकालय भी संचालित किया।

1918 ई० में कोलकाता में दारुल मुज़ाकरा (चर्चा गृह/वार्तालाप शाला) नामक एक अध्यन केंद्र की स्थापना किया, जहाँ मज़दूर पेशा नौजवान और दूसरे लोग शाम को इकट्ठा होकर पढ़ने लिखने और समसामयिकी (हालात-ए-हाज़रा) पर चर्चा किया करते थे, कभी कभी पूरी रात गुज़र जाती थी।

1919ई० में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद, लाला लाजपत राय, मौलाना आज़ाद आदि नेताओ को गिरफ्तार कर लिया गया था, तो उन नेताओं की रिहाई के लिए एक राष्ट्रव्यापी पत्राचारिक विरोध (Postal Protest) शुरू किया, जिसमे पूरे देश के हर जिले, क़स्बे, मुहल्ला, गाँव, देहात से लगभग डेढ़ लाख पत्र और टेलीग्राम वॉइसरॉय भारत, और रानी विक्टोरिया को भेजा गया, आखिरकार मुहीम कामयाब हुई, और सारे स्वतंत्रा सेनानी जेल से बाहर आये।

1920ई०, ताँती बाग़, कोलकाता में जमीयतुल मोमिनीन नामक संगठन बनाया, जिसका पहला अधिवेशन 10 मार्च 1920ई० को सम्पन्न हुआ जिसमें मौलाना आज़ाद ने भी भाषण दिया।

अप्रैल, 1921ई० में दीवारी अख़बार अलमोमिन की परंपरा को शुरु किया, जिसमे बड़े बड़े कागज पर लिख कर दीवार पर चिपका देते थे ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़ सके। जो बहुत मशहूर हुआ।

10, दिसम्बर 1921ई० को ताँतीबाग़ कोलकाता में एक अधिवेशन का आयोजन किया गया जिसमें महात्मा गाँधी, मौलाना जौहर, मौलाना आज़ाद आदि सम्मिलित हुए। इसमें लगभग 20 हज़ार लोगो ने हिस्सा लिया।

गाँधी जी ने कांग्रेस पार्टी की कुछ शर्तों के साथ एक लाख रूपये की बड़ी रकम संगठन को देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन आसिम बिहारी ने, आंदोलन के शुरू में ही संगठन को किसी प्रकार की राजनैतिक बाध्यता और समर्पण से दूर रखना ज़्यादा उचित समझा, और एक लाख की बड़ी आर्थिक सहायता, जिसकी संगठन को अत्यधिक आवश्यकता थी, स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

1922 के शुरू में संगठन को अखिल भारतीय रूप देने के इरादे से पूरे भारत के गाँव क़स्बा और शहर के भ्रमण पर निकल पड़े, शुरुआत बिहार से किया। लगभग छः महीने की मुसलसल दौरों के बाद 3 एवम् 4 जून 1922ई० को बिहार शरीफ में एक प्रदेश स्तर का सम्मेलन आयोजित किया गया।

इस सम्मेलन के खर्चे के लिए जब चन्दे से इंतेज़ाम नहीं हो पा रहा था और सम्मेलन की तारीख करीब आती जा रही थी, ऐसी सूरत में मौलाना ने अपनी माँ से अपने छोटे भाई मौलाना महमूदुल हसन की शादी के लिए जोड़े गए रुपये और ज़ेवर को यह कह के माँग लिया कि इंशाल्लाह शादी से पहले-पहले चन्दे की रकम इकठ्ठा हो जायेगी, रुपये और ज़ेवर का फिर इंतेज़ाम हो जायेगा। लेकिन अफ़सोस समाज की हालत पर कि हज़ार सर मारने के बाद भी शादी के दिन तक भी कोई इंतेज़ाम ना हो सका, आखिरकार इंतेहाई पशेमानी (अत्यधिक लज्जा) के आलम में शादी से पहले ख़ामोशी के साथ घर से निकल गये, माँ ने बुलावे का पैगाम भी भेजा मगर शादी में उपस्थित होने की हिम्मत भी ना कर सके। इस (लज्जा और अपमान) के पश्चात भी क्रांति के जूनून में कोई कमी नहीं आयी।

        रज़ा-ए-मौला पे होके राज़ी, मैं अपनी हस्ती को खो चुका हूँ

        अब उसकी मर्ज़ी है अपनी मर्ज़ी, जो चाहे परवर दीगर होगा

      (ईश्वर की ख़ुशी पर खुश होकर, मैं अपने अस्तित्व को खो चुका हूँ   

        अब उसकी इक्षा की मेरी अपनी इक्षा, जो चाहे पालनहार होगा)

1923 ई० से दिवारी अख़बार एक पत्रिका “अलमोमिन” के रूप में प्रकाशित होने लगा।


9 जुलाई 1923 ई० को मदरसा मोइनुल इस्लाम, सोहडीह, बिहार शरीफ, ज़िला नालंदा, बिहार, में संगठन (जमीयतुल मोमिनीन) का एक स्थानीय बैठक आयोजित किया गया था। ठीक उसी दिन आप के बेटे कमरुद्दीन जिसकी उम्र मात्र 6 महीने 19 दिन थी,की मृत्यु हो गयी। मगर समाज को मुख्य धारा में लाने के जुनून का यह आलम था कि अपने लख्ते जिगर की मय्यत को छोड़ कर तय समय पर बैठक में पहुंच कर लगभग एक घण्टे तक समाज के दशा और दिशा पर निहायत की प्रभावशैली भाषण दिया जिससे लोगो मे जागरूकता की लहर दौड़ गयी।

इन लगातार और अनथक यात्राओं में आप को अनेक परेशानियो के साथ-साथ आर्थिक परेशानियो का भी सामना करना पड़ा। कई-कई वक़्त भूख से भी निपटना पड़ा। इसी दौरान घर में बेटी बारका की पैदाइश हुई, लेकिन पूरा परिवार कर्ज में डुबा हुआ था, यहाँ तक की भूखे रहने की नौबत आ गयी।

लगभग उसी समय पटना में आर्य समाजियो ने मुनाज़रे में उलेमा को पछाड़ रखा था,और किसी से उनके सवालो का जवाब न बन पाता था, जब इसकी खबर मौलाना को हुई तो आप ने अपने एक दोस्त से किराये के लिए कर्ज़ लिया और रास्ते के खाने के लिए मकई का भुजा चबैना थैले में डालकर पटना पहुंचे। वहाँ अपने दलीलों से आर्य समाजियो को ऐसा पराजित किया कि उन्हें भागना पड़ा।

अपनी तमाम परेशानियों, चिंताओं और लगातार यात्राओ के बावजूद भी खत और रोज़नामचा (डेली डायरी) लिखने के अलावा अखबार, पत्रिकाओं और पुस्तको का अध्य्यन करना कभी नही छोड़ा। यह अध्य्यन सिर्फ अध्य्यन या केवल सामाजिक या राजनैतिक गतिविधियों के जानने भर तक ही सीमित नही था, अपितु विज्ञान, साहित्य और ऐतिहासिक तथ्यो का शोध और उनके जड़ो तक पहुंचना चाहते थे। इस मामले में उस समय के प्रसिद्ध अखबार और पत्रिकाओं के सम्पादकों को पत्र लिखने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे।

अगस्त, 1924 ई० में कुछ चुने हुए समर्पित लोगो की ठोस तरबियत के लिए मजलिस-ए-मिसाक़ (प्रतिज्ञा प्रकोष्ठ) नामक एक कोर कमिटी की बुनियाद डाली।

6 जुलाई, 1925ई० को मजलिस-ए-मिसाक़ ने अल इकराम नामक एक पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, ताकि आंदोलन को और मजबूती प्रदान किया जा सके।

1926 ई० में दारुत्तरबियत (प्रशिक्षण शाला) नामक शिक्षण संस्था और पुस्तकालय का एक जाल फैलाना प्रारम्भ कर दिया।

बुनकरी के काम को संगठित और मज़बूत बनाने के लिए भारत सरकार की संस्था कॉपरेटिव सोसाइटी से भरपूर मदद लेने के लिए 26 जुलाई 1927 ई० को “बिहार वीवर्स एसोसिएशन” बनाया, जिसकी ब्रांचें कोलकाता सहित देश के अन्य शहरो में भी खोला गया।

1927 में बिहार को संगठित करने के बाद, आसिम बिहारी ने यूपी का रुख किया, आप ने गोरखपुर, बनारस, इलाहबाद, मुरादाबाद, लखीमपुर-खीरी, और अन्य दूसरे जनपदों का तूफानी दौरा किया।

यूपी के बाद दिल्ली,पंजाब के इलाके में भी संगठन को खड़ा कर दिया।

18 अप्रैल 1928 को कोलकाता में, पहला आल इंडिया स्तर का भव्य सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमे हज़ारो लोग सम्मिलित हुए।

मार्च 1929 में दूसरा आल इंडिया सम्मेलन इलाहबाद में, तीसरा अक्टूबर 1931 दिल्ली में, चौथा लाहौर पाचवाँ गया नवम्बर 1932 में आयोजित किया गया। गया के सम्मेलन में संगठन का महिला विभाग भी वजूद में आ गया। खालिदा खातून, जैतून असगर, बेगम मोइना गौस आदि महिला प्रभाग के प्रमुख नाम हैं। इसके अतिरिक्त छात्र और नौयुवको के लिए “मोमिन नौजवान कांफ्रेंस” की भी स्थापना किया गया। साथ ही “मोमिन स्काउट” भी कदमताल कर रही थी। साथ ही साथ कानपूर, गोरखपुर, दिल्ली नागपुर और पटना में प्रदेश के सम्मेलन आयोजित होते रहें।

इस प्रकार मुम्बई,नागपुर,हैदराबाद, चेन्नई यहाँ तक की लंका और वर्मा में भी सगठन खड़ा हो गया और जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) आल इंडिया से ऊपर उठ कर एक इंटरनेशनल संगठन बन गया। 1938 में देश विदेश में संगठन के लगभग 2000 शाखाये थी।

कानपुर से एक हफ्तावार पत्रिका मोमिन गैज़ेट का भी प्रकाशन किया जाने लगा।

संगठन में खुद को हमेशा पीछे रखते और दूसरों को आगे बढ़ाते, अपने आप को कभी भी संगठन का अध्यक्ष नहीं बनाया, लोगो के बहुत आग्रह पर भी सिर्फ महासचिव तक खुद को सीमित रखा। संगठन का काम जब बहुत बढ़ गया, और मौलाना को अपनी रोज़ी रोटी और परिवार पालने के लिए मेहनत मजदूरी का मौक़ा बिलकुल नहीं रहा तो ऐसी सूरत में संगठन ने एक बहुत ही मामूली रकम महीने का तय किया, लेकिन अफ़सोस वो भी कभी समय पर और पूरी नहीं मिली।

जहाँ कहीं भी मोमिन कांफ्रेंस की शाखा खोला जाता था, वहाँ लगातार छोटी छोटी बैठको का आयोजन किया जाता रहा, साथ ही साथ शिक्षा और रोज़गार परामर्श केंद्र (दारुत्तरबियत) और लाइब्रेरी भी स्थापित किया जाता था।

मौलाना की शुरू से ये कोशिश रही की अंसारी जाति के अलावा अन्य दूसरे पसमांदा जातियों को भी जागरूक, सक्रिय और संगठित किया जाये। इसके लिए वो हर सम्मेलन में अन्य पसमांदा जाति के लोगो, नेताओ और संगठनों को जोड़ते थे, मोमिन गैजेट में उनके विमर्श को भी बराबर जगह दिया जाता था। जैसा कि उन्होंने ने 16 नवंबर 1930 ई० को सभी पसमांदा जातियों का एक संयुक्त राजनैतिक दल “मुस्लिम लेबर फेडरेशन” नाम से बनाने का प्रस्ताव इस शर्त के साथ रखा कि मूल संगठन का सामाजिक आंदोलन प्रभावित ना हो। 17 अक्टूबर 1931 को उस समय के सभी पसमांदा जातियों के संगठनों पर आधारित एक संयुक्त संगठन “बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इंडस्ट्री क्लासेज की स्थापना किया और सर्वसम्मति से उसके संरक्षक बनाये गए।

इसी बीच मन्छले भाई की अत्यधिक बीमार होने की खबर मिली कि जल्दी आ जाइए आजकल के मेहमान है लेकिन लगातार दौरों में व्यस्त रहने के कारण घर ना जा सके यहाँ तक कि सगे भाई की मृत्यु हों गयी, भाई से आखिरी मुलाक़ात भी ना हो सकी।

1935-36 के अंतरिम सरकार के चुनाव में मोमिन कांफ्रेंस के भी उम्मीदवार पुरे देश से अच्छी संख्या में जीत कर आये। परिणाम स्वरूप बड़े बड़े लोगो को भी पसमांदा आंदोलन की शक्ति का अहसास हुआ। यहीं से आंदोलन का विरोध होना शुरू हो गया।

पहले से मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय उच्च अशराफ मुस्लिम वर्ग ने मोमिन कॉन्फ्रेंस और इस के नेताओ पर तरह-तरह के आरोप, धार्मिक फतवो, लेख-लेखनी, पत्रिकाओं द्वारा बदनाम करना शुरू किया, यहाँ तक ही बुनकर जाति के चरित्र हनन करने वाला गीत जुलाहा नामा भी प्रकाशित किया गया। कानपूर में चुनाव प्रचार के दौरान अब्दुल्ला नामक एक पसमांदा कार्यकर्ता की हत्या भी कर दी गयी। यहाँ तक ही बुनकर जाति के चरित्र हनन करने वाला जुलाहा नामा (क़ाज़ी तलम्मुज हुसैन गोरखपुरी) एवं फितना-ए-जुलाहा(हामिद हुसैन सिद्दीक़ी इलाहाबादी) भी प्रकाशित किया गया।

यूँ तो आम तौर से मौलाना का भाषण लगभग दो से तीन घण्टे का हुआ करता था। लेकिन 13 सितम्बर 1938 ई० को कन्नौज में दिया गया पाँच घण्टे का भाषण और 25 अक्टूबर 1934 ई० को कोलकाता में दिया गया पूरी रात का भाषण मानव इतिहास का एक अभूतपूर्व कीर्तिमान है।

भारत छोड़ो आंदोलन में भी मौलाना ने अपनी सक्रिय भूमिका निभायी। 1940 ई० में आप ने देश के बटवारे के विरोध में दिल्ली में एक विरोध प्रदर्शन आयोजित करवाया जिसमे लगभग चालीस हज़ार की संख्या में पसमांदा उपस्थित थे।

1946 के चुनाव में भी जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) के प्रत्याशी कामयाब हुए और कई एक ने तो मुस्लिम लीग के खिलाफ जीत दर्ज किया।

1947 में देश के बटवारे के तूफ़ान के बाद, पसमांदा समाज को फिर से खड़ा करने के लिए जी-जान से जुट गए। मोमिन गैज़ेट का इलाहबाद और बिहार शरीफ से दुबारा प्रकाशन करवाना सुनिश्चित किया।

मौलाना की गिरती हुई सेहत ने उनके अनथक मेहनत, दौरों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। लेकिन आप हज़रत अय्यूब अंसारी (र०ज़०) की सुन्नत को ज़िंदा करने की जिद्द पाले हुए थे। जब आप इलाहबाद के दौरे पर पहुंचे तो जिस्म में एक क़दम चलने की भी ताक़त नहीं बची थी। ऐसी हालत में भी यूपी प्रदेश जमीयतुल मोमिनीन के सम्मेलन की तैयारियों में लगे रहें, और लोगो को दिशा-निर्देश देते रहें।

लेकिन ईश्वर को आप से जितना काम लेना था वो ले चुका था, 5 दिसम्बर की शाम को अचानक दौरा पड़ा और साँस लेने में तकलीफ होने लगी, दिल में बला का दर्द और बेचैनी की अवस्था पैदा हो गयी, चेहरा पसीने से तर हो गया था, बेहोश हो गए, रात 2 बजे के आस पास खुद को अपने बेटे हारून आसिम की गोद में पाया, इशारे से अपने सर को ज़मीन पर रखने को कहा, ताकि अल्लाह की हुज़ूर में सजदा कर सके और अपनी गुनाहों की माफ़ी मांग सके, और इसी हालात में 6 दिसम्बर 1953 ई० रविवार के दिन हाजी कमरुद्दीन साहेब के मकान, अटाला, इलाहबाद में नश्वर शरीर को त्याग दिया।

अपनी चालीस साल की सरगर्म और सक्रिय जीवन में मौलाना ने अपने लिए कुछ ना किया, और करने का मौक़ा ही कहाँ था ? लेकिन अगर वो चाहते तो इस हालत में भी अपने और अपने परिवार के लिए ज़िन्दगी का सामान इकठ्ठा कर सकते थे, लेकिन इसकी तरफ आप ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। मौलाना जीवन-भर दुसरो के घरों में दिया जलाते रहें और अपने घर को एक छोटे से दीये से भी रोशन करने की कोशिश नहीं किया।

आसिम बिहारी हमेशा के लिए जुदा हो गए, उन्होंने स्वयं मौत की चादर ओढ़ ली, लेकिन समाज को ज़िन्दा कर गए। वह स्वयं स्वप्नलोक पधार गए, लेकिन समाज को जगाने के बाद, वह ऐसी गहरी नींद सोएं हैं कि फिर कभी जागृत ना होंगे, लेकिन समाज को उन्होंने ऐसा जागृत किया है कि उसे कभी नींद ना आ सकेगी।
आभार: मैं प्रोफेसर अहमद सज्जाद का आभार व्यक्त करता हूँ जिनसे समय समय पर फोन द्वारा, आमने सामने हुई वार्तालाप और उनके द्वारा लिखित आसिम बिहारी की जीवनी “बंदये मोमिन का हाथ” (उर्दू) के बिना यह लेख लिखना सम्भव नही होता।


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