अशराफ़िया प्रोपेगंडा : जिन्ना, मुस्लिम लीग, पाकिस्तान और पसमांदा

यह गिरोह जिस पकिस्तान आन्दोलन को पसमांदा मुस्लिमों का आन्दोलन बता रहा है उस पाकिस्तान आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली मुस्लिम लीग का शीर्ष नेतृत्व तो दूर की बात है सम्पूर्ण भारत में उस मुस्लिम लीग में दस-बीस ज़िला अध्यक्ष और ज़िला महासचिव मुश्किल से पसमांदा रहे होंगे। पाकिस्तान आन्दोलन को तो किसी भी तरह से पसमांदा मुसलमानों का आन्दोलन कहा ही नहीं जा सकता। बल्कि अब्दुल क़य्यूम अन्सारी साहब के साथ नवाब हसन साहब के घर में घटित घटना व मोमिन कांफ्रेंस (पसमांदा मुस्लिमों का तत्कालिक सबसे बड़ा संगठन) के नेताओं के भाषण, वक्तव्य तथा उसकी पत्रिका मोमिन गैज़ेट (जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है) के अंको को देखकर ऐसा आभास होता है कि यह आन्दोलन इस्लाम और मुसलमानों के नाम पर पसमांदा मुसलमानों को तथाकथित अशराफ़ों का ग़ुलाम बनाये रखने का बेहतरीन हथियार था।


23 April 20228 min read

Author: Momin

जब से पसमांदा आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने अपने सामाजिक अधिकारों के लिए आवाज़ बुलन्द करनी शुरू की है तब से ही इस आन्दोलन को दबाने व उससे जुड़े लोगों को हतोत्साहित करने के लिए तथाकथित अशराफ़ों (सवर्ण मुस्लिम) द्वारा निरन्तर नित नए निराधार आरोप पसमांदा आन्दोलन और उस से जुड़े लोगों पर लगाये जा रहे हैं। कार्यकर्ताओं को कभी संघ का एजेण्ट कहा जाता है, कभी पसमांदा आन्दोलन को ही संघ का कार्यक्रम घोषित कर दिया जाता है, तो कभी पसमांदा आन्दोलन को मुस्लिम समाज को बाँटने वाली तहरीक बताई जाती है। हालाँकि यह गिरोह कभी किसी भी आरोप का न तो साक्ष्य देता है और न ही ऐतिहासिक तथ्यों पर बात करता है।

यह गिरोह आज कल पसमांदा आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का मोरल डाउन करने के लिए एक नया शिगूफ़ा फैलाने का प्रयास कर रहा है जिसके तहत यह पूरी नीति-रणनीति के साथ भारत विभाजन अर्थात पाकिस्तान आन्दोलन को पसमांदा मुस्लिमों का आन्दोलन व उसके शीर्ष नेताओं सहित जिन्ना तक को पसमांदा प्रचारित कर रहा है।

यह गिरोह जिस पकिस्तान आन्दोलन को पसमांदा मुस्लिमों का आन्दोलन बता रहा है उस पाकिस्तान आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली मुस्लिम लीग का शीर्ष नेतृत्व तो दूर की बात है सम्पूर्ण भारत में उस मुस्लिम लीग में दस-बीस ज़िला अध्यक्ष और ज़िला महासचिव मुश्किल से पसमांदा रहे होंगे। पाकिस्तान आन्दोलन को तो किसी भी तरह से पसमांदा मुसलमानों का आन्दोलन कहा ही नहीं जा सकता। बल्कि अब्दुल क़य्यूम अन्सारी साहब के साथ नवाब हसन साहब के घर में घटित घटना व मोमिन कांफ्रेंस (पसमांदा मुस्लिमों का तत्कालिक सबसे बड़ा संगठन) के नेताओं के भाषण, वक्तव्य तथा उसकी पत्रिका मोमिन गैज़ेट (जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है) के अंको को देखकर ऐसा आभास होता है कि यह आन्दोलन इस्लाम और मुसलमानों के नाम पर पसमांदा मुसलमानों को तथाकथित अशराफ़ों का ग़ुलाम बनाये रखने का बेहतरीन हथियार था।

इन के झूठ और बेशर्मी का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि यह उस मुस्लिम लीग को पसमांदा मुस्लिमों की पार्टी तथा उसके द्वारा चलाये जा रहे भारत विभाजन अर्थात पाकिस्तान आन्दोलन को पसमांदा मुस्लिमों का आन्दोलन कहने से भी नही शरमाते। ज़रा नीचे लिखे बिन्दुओं पर ग़ौर फ़रमाएं-

मुस्लिम लीग के वरिष्ठ नेताओं/पदाधिकारियों ने अब्दुल क़य्यूम अन्सारी साहब द्वारा 1938 के उपचुनाव में पटना सिटी सीट से टिकट मांगने पर नवाब हसन साहब के घर में कहकहा लगाते हुए कहा था, अब जुलाहे भी विधायक बनने का सपना देखने लगे हैं!”(पुस्तक: मसावात की जंग, लेखक: अली अनवर अंसारी)

मुस्लिम लीग के विरोध में पसमांदा मुस्लिमों का तत्कालिक सबसे बड़ा संगठन ‘मोमिन कॉन्फ्रेंस’ (जमीयतुल मोमिनीन) और उसकी साप्ताहिक पत्रिका ‘मोमिन गैज़ेट’ के मुस्लिम लीग विरोध का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पत्रिका के संपादक मौलाना अबू उमर भागलपुरी ने अपने सम्पादकीय (1937 ई०) में मुस्लिम लीग को परिभाषित करते हुए लिखा, लीग एक ऐसा बलिगृह (क़ुर्बान गाह) है जहां हवस और स्वार्थ पर ग़रीबों की बलि दी जाती है। लीग संग-ए-तराज़ू है जो सौदे के वक़्त किसी भी पलड़े पर झुक पड़ेगी। मुस्लिम लीग एक सियासी डिक्शनरी है जिस में हर किस्म के कमज़ोर शब्दों का भण्डार है। (पुस्तक : बन्द-ए-मोमिन का हाथ, लेखक : प्रो० अहमद सज्जाद)

मुस्लिम लीग को मोमिन गैज़ेट पत्रिका के संपादक मौलाना अबू उमर भागलपुरी अपने संपादकीय में ‘पूंजीवाद और उच्च वर्ग का स्टेज’ कहते हैं।

मुस्लिम लीग द्वारा जब 24 मार्च 1940 को लाहौर में हुए अपने अधिवेशन में ‘पाकिस्तान’ का प्रस्ताव पारित किया जाता है तब उसके विरोध में सबसे संगठित, तार्किक और सधी हुई गरजदार आवाज़ मोमिन नौजवान कांफ्रेंस ने अपने 19 अप्रैल 1940 को पटना में हुए अधिवेशन में उठाई। उसके बाद की तिथियों में भी विभिन्न अधिवेशनों में मोमिन कांफ्रेंस अपनी आख़िरी सांस तक भारत के बंटवारे के विरोध में मज़बूती से आवाज़ उठाती रही।

मुस्लिम लीग के सम्बन्ध में जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) के अध्यक्ष मौलाना मुहम्मद ज़हीरुद्दीन एडवोकेट ने 26 अप्रैल 1943 को दिल्ली में हुई वर्किंग कमेटी की मीटिंग में स्पष्ट शब्दों में कहा था, मुस्लिम लीग सत्ता और शक्ति की उतनी ही पूजा करती है जितनी कि कांग्रेस और वह पूंजीवाद एवं ठेकेदारी का भी वैसा ही प्रतिनिधित्व करती है। यह सब के सब अधिनायकवाद और व्यक्तिवाद के प्रेमी और सेवक हैं। (पुस्तक : बन्द-ए-मोमिन का हाथ, लेखक : प्रो० अहमद सज्जाद)
इस गिरोह का मोहम्मद अली जिन्ना के पसमांदा होने का दावा भी स्वयं इनकी व इनके अन्य दावों व आरोपों की तरह झूठा ही है। निःसन्देह मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं की तरह मोहम्मद अली जिन्ना भी अशराफ़ ही थे। उनसे और उनके परिवार से सम्बंधित जितनी भी जानकारियां (साक्ष्य) अब तक सामने आयी हैं वह सब की सब चीख़-चीख़ कर उनको अशराफ़/सवर्ण साबित कर रही हैं जिसमें कुछ साक्ष्य निम्नवत हैं-

मोहम्मद अली जिन्ना के एक जीवनी लेखक अज़ीज़ बेग अपनी पुस्तक ‘जिन्नाह एण्ड हिज़ टाइम्स’ में लिखते हैं कि, एक बार जिन्नाह ने ही बताया था कि उनके पूर्वज पंजाब के साहीवाल राजपूत थे जिन्होंने इस्माइली खोजा परिवार में विवाह कर लिया था, हालाँकि उनकी बहन अपने पूर्वजों का मूल ईरान में बताती हैं।

जिन्ना के प्रथम जीवनीकार हेक्टर बोलिथो, जिन्हें जिन्ना की जीवनी लिखने के लिए पाकिस्तान सरकार द्वारा आमंत्रित किया गया था, ने जिन्ना की चचेरी भाभी के हवाले से, दस्तावेजों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि जिन्ना के पूर्वज मूलतः मुल्तान के हिंदू थे और काठियावाड़ में आकर बस गए थे। जिन्ना के पूर्वज मूलतः लोहाना (ठक्कर ) जाति के थे और वैश्य समाज के अन्तर्गत आते थे। यह वैश्य समाज में स्थापित पदानुक्रम में महात्मा गांधी की जाति से ऊँचे थे। बोलिथो की प्रसिद्ध पुस्तक ‘जिन्नाह : क्रिएटर ऑफ पकिस्तान’ के अनुसार, उनके (जिन्ना के) पूर्वज मुल्तान के हिन्दू थे वह वैश्य जाति से थे, इतिहास बताता है कि इस जाति का एक बड़ा हिस्सा 17वीं सदी के अन्त में और 18वीं सदी के आरम्भ में सिन्ध से काठियावाड़ आ बसा था उनमें से कई परिवारों ने 18वीं सदी से पहले या दूसरे दशक में इस्लाम क़ुबूल कर लिया था। जिन्ना के पिता पुंजाभाई का परिवार भी उन में से एक था।

वीरेंद्र कुमार बरनवाल अपनी पुस्तक ‘जिन्नाह एक पुनर्दृष्टि’ में लिखते हैं, उद्योगपति अज़ीम प्रेमजी के पूर्वज भी काठियावाड़ के लोहाना (वैश्य) ज़ाति के हिन्दू ही थे और ठीक उसी दौरान उनके पुरखे भी मुसलमान बन गए थे। जिन्ना के पिता का नाम जिन्ना भाई पुंजा भाई था। यह नाम गुजराती हिन्दुओं में खूब प्रचलित है।

अकबर एस. अहमद की पुस्तक ‘जिन्ना, पकिस्तान एण्ड इस्लामिक आइडेन्टिटी’ में दी गई जानकारी के अनुसार, जिन्ना के दादा का नाम प्रेमजी भाई मेघजी ठक्कर था। वह काठियावाड़ के गांव पनेली के रहने वाले थे। प्रेमजी भाई मछली का कारोबार करते थे। लोहना जाति से तअल्लुक़ रखने वालों को उनका यह बिज़नेस नापसंद था क्योंकि लोहना कट्टर तौर पर शाकाहारी थे और धार्मिक तौर पर मांसाहार से सख़्त परहेज़ ही नहीं करते थे बल्कि उससे दूर रहते थे। लोहाना मूल तौर पर वैश्य होते हैं, जो गुजरात, सिंध और कच्छ में होते हैं। कुछ लोहाना राजपूत जाति से भी तअल्लुक़ रखते हैं। इसलिए जब प्रेमजी भाई ने मछली का कारोबार शुरू किया तो उनकी जाति से इसका विरोध होना शुरू हो गया। उनसे कहा गया कि अगर उन्होंने इस बिज़नेस से हाथ नहीं खींचे तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। प्रेमजी ने बिजनेस जारी रखने के साथ जाति समुदाय में लौटने का प्रयास भी किया लेकिन बात नहीं बनी और उनका बहिष्कार निरन्तर जारी रहा।

इस बहिष्कार के बाद भी प्रेमजी तो लगातार हिंदू बने रहे लेकिन उनके बेटे पुंजालाल ठक्कर को पिता और परिवार का बहिष्कार इतना अपमानजनक लगा कि वह गुस्से में पत्नी व चारों पुत्रों सहित मुस्लिम बन गए। हालांकि प्रेमजी के बाक़ी बेटे हिंदू धर्म में ही रहे। इसके बाद जिन्ना के पिता पुंजालाल अपने भाईयों और रिश्तेदारों तक से अलग हो गए और काठियावाड़ से कराची चले गए।

जिन्ना साहब के परिवार से सम्बंधित इतनी स्पष्ट दलीलों व साक्ष्यों के बाद बाद भी क्या किसी को उनके सवर्ण/अशराफ होने पर सन्देह करने का कोई कारण बनता है? यदि इतने साक्ष्यों के बाद भी कोई जिन्ना साहब को पसमांदा मानता है तो वह मेरे निम्न प्रश्नों के उत्तर दे दे

क्या जिन्ना के पिता द्वारा इस्लाम स्वीकार करने से पूर्व जिन्ना के पूर्वजों का सम्बन्ध जिस जाति से था क्या वह जाति 1931 की जाति आधारित जनगणना में हिन्दुओं में घोषित शूद्र या अछूत जातियों में मानी गई थी?

क्या जिन्ना के पिता द्वारा इस्लाम स्वीकार करने के उपरान्त जिन्ना का सम्बन्ध मुस्लिम समाज की जिस जाति/वर्ग से रहा क्या वह जाति/वर्ग 1931 की जाति आधारित जनगणना में अजलाफ़ या अरज़ाल (मुस्लिम समाज में घोषित पिछड़ी, नीच, निकृष्ट, कमीन जातियों) में मानी गई थी?

नोट: इस आर्टिकल के कुछ अंश प्रो० अहमद सज्जाद द्वारा लिखित किताब 'बंद-ए-मोमिन का हाथ' से लिये गए हैं जिस का उर्दू से हिन्दी अनुवाद डॉक्टर फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी द्वारा किया गया है। यह लेखक के निजी विचार हैं जिन से संपादक का सहमत होना आवश्यक नहीं।







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