पीड़ित की भाषा अभद्र और कड़वी क्यो?

अक्सर पसमांदा अन्दोलन और उससे जुड़े लोगों पर यह आरोप लगाया जाता है कि पसमांदा अपने दमनकारी/उत्पीड़क अशराफ की आलोचना करने में बहुत ही अभद्र और कड़वी भाषा का इस्तेमाल करता है, जो गुफ्तगू के आदाब (वार्तालाप के शिष्टाचार) के खिलाफ है और सभ्यता और शालीनता की दृष्टी से उचित नहीं है।


22 April 20229 min read

Author: Faizi

अक्सर पसमांदा अन्दोलन और उससे जुड़े लोगों पर यह आरोप लगाया जाता है कि पसमांदा अपने दमनकारी/उत्पीड़क अशराफ की आलोचना करने में बहुत ही अभद्र और कड़वी भाषा का इस्तेमाल करता है, जो गुफ्तगू के आदाब (वार्तालाप के शिष्टाचार) के खिलाफ है और सभ्यता और शालीनता की दृष्टी से उचित नहीं है। जबकि स्वयं ईश्वर ने क़ुरआन (इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रन्थ जिसको ईश्वर की वाणी माना जाता है) में मज़लूम/पीड़ित को अभद्र और कड़वी भाषा प्रयोग करने की इजाज़त दिया है। ताकि वो अपने दमनकारी/ शोषक के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग करने में तनिक भी संकोच ना करें। क़ुरआन की सुरः निसा आयात न० 148 में लिखा है कि -

“ ईश्वर को यह प्रिय नही कि कोई बुरी बात (अभद्र भाषा) प्रकट करे मगर जिसपर अत्यचार हुआ हो।” क़ुरआन की सुरः निसा आयात न० 148

अर्थात अत्याचार और उत्पीड़न की शर्त पर इस बात की आज्ञा है कि पीड़ित व्यक्ति, और पीड़ित समाज दमनकारी की क्रूरता का पर्दाफाश करने के लिए अपशब्द या बुरे बोल का चयन कर सकता है। मुहम्मद के कथनों और क्रियाकलापो (हदीस) की प्रसिद्ध संकलन “सहीह मुस्लिम” के हदीस संख्या 2587 में लिखा है कि -

“अपशब्द (गाली गलौच) कहने वाले दो लोग कुछ भी बुरा कहें उसका पाप अपशब्द में पहल करने वाले पर है।”“सहीह मुस्लिम”  के हदीस संख्या 2587

इस हदीस से भी यह बात सिद्ध हो जाता हैै कि प्रतिउत्तर में अभद्र/बुरा/अपशब्द कहने वाले अनैतिक नहीं हैं।

मुहम्मद के कथनों और क्रियाकलापो(हदीस) की एक अन्य प्रसिद्ध संकलन “अबु दाऊद” के हदीस संख्या 5153 में लिखा है कि एक बार एक आदमी मुहम्मद से अपने पड़ोसी की शिकायत करता है कि मेरा पड़ोसी मुझे सताता है इस पर उन्होंने कहा कि तुम संयम से काम लो, फिर जब दो-तीन बार शिकायत लेकर पहुँचा तो मुहम्मद ने उससे कहा -

“तुम अपने घर का सामान बाहर निकाल कर रास्ते पर रख दो, अगर लोग पूछे तो अपने पड़ोसी द्वारा परेशान किये जाने की बात बताना।

उसने फिर वैसा ही किया। जो भी उधर से गुजरता उससे पूछता, वह पड़ोसी के अत्याचारी रवय्ये को विस्तार से बताता, जिसे सुन कर हर गुज़रनेवाला पड़ोसी को फटकार और धिक्कार के अपशब्द कहता, ऐसी परिस्तिथि में पड़ोसी ने भविष्य में अत्यचार नही करने का वादा करते हुए माफी माँग लिया और सारे सामान घर के अंदर रखने का अनुरोध किया।

इस हदीस से यह बात साबित होती है कि ज़ुल्म और अत्यचार के खिलाफ एक सीमा तक ही संयम रखना चाहिए और उसके बाद खुल के सरे बाज़ार अत्याचार को परिभाषित और व्याखित करते हुए समाज के सामने लाना चाहिए ताकि समाज भी उसको बुरा कहे, इसके दो फायदें हैं पहला कि शायद समाज के डर या लज्जा से वो सुधर जाए और दूसरा यह कि समाज उससे बच के रहें। क़ुरआन और हदीस के विवरण में स्पष्ट रूप से अत्यचार को बुरा कहने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है कड़वी और अभद्र भाषा तो बहुत दूर की बात हो गयी।

इसी संदर्भ में प्रथम पसमांदा अन्दोलन के जनक आसिम बिहारी (1890-1953) की एक स्पीच बहुत महत्वपूर्ण है जिसका विवरण इस प्रकार है कि जब आसिम बिहारी अपने एक दौरे के दौरान पहली मार्च 1927 ई० को प्रयागराज (पूर्वर्ती नाम इलाहाबाद) पहुँचतें है तो अपनेे सम्मान में होने वाले समारोह जिसमें आप को फख्र-ए- क़ौम (समाज का गौरव) और क़ौम के रुक्न-ए-आज़म (समाज का महान अंग) जैसे विशेषणों के साथ लोगो से परिचित कराया जाता है और आप के सम्मान में एक स्वागत गीत भी पढ़ा जाता है। इस मौके पर अपने पौने दो घण्टे के लंबे भाषण (ट्रैन का समय करीब होने के कारण भाषण जल्दी खत्म करना पड़ा) के दौरान 20 साल के अनुभव के आधार पर यह सच्चाई खोल कर बताया कि वक्ता के सम्मान में बोले गए प्रशंसा के शब्द ना सिर्फ उसके लिए बल्कि कभी-कभी पूरे समाज के लिए भयंकर तबाही का कारण बन जाता है। बड़ी स्पष्ठता से अपनी कम-हैसियत (असामर्थ्य) का इज़हार करने के बाद प्रबंधन और एकता को क्रियान्वित करने का निर्देश दिया, इसके बाद कहने-सुनने के अपने 20 वर्षो की आदत की चर्चा करते हुए अपने विशेष मजाकिया शैली में कहते हैं -

“मगर यहाँ तो इसकी भी हिम्मत नही पड़ती है क्योकि यह स्थान यू०पी० सरकार का मुख्यालय है और आप सम्मानित लोग उर्दू के भाषाविद, सुस्पष्ट और मनोरम उर्दू पर महारत रखने वाले हैं, मैं पूरब का रहने वाला “चावल” खाता हूँ और गलत उर्दू बोलता हूँ लेकिन मुझको उम्मीद है कि आप सम्मानीय लोग मेरे शब्दों के बजाय मेरी अंतरात्मा पर दृष्टी रखेंगें, क्योकि बेचैनी से रोने वाले की आवाज़ रागनियों के अनुसार नही होती और आग लगने के बाद की पुकार में उच्च साहित्य की खोज नही किया जाता है।

इसके बाद फ़ारसी के कवि जामी की पंक्तियाँ पढ़ते हैं जिसका भावार्थ यह है कि -

तू ऐ बहादुर और दिलेर पक्षीतेरा ठिकाना इस भूमि के बाहर हो गया क्योकि तू भूमि से अजनबी हो गया तू इसे नष्ट होता कैसे पसंद कर सकता है उठो अपने बाल व पर की मिट्टी झाड़ो ताकि आसमानों की ऊँचाई तक पहुँच सको (अल इकराम, 15 अप्रैल 1927, जिल्द-2 नम्बर 6-7, पेज न० 40, बंदये मोमिन का हाथ, प्रोफ० अहमद सज्जाद पेज न० 167)

आसिम बिहारी का उपर्युक्त भाषण शोषितों, पीड़ितों और वंचितों की भाषा के दिशा निर्देश का एक सम्पूर्ण दस्तावेज है। वंचित एफ्रो-अमेरिकन की लड़ाई लड़ने वाले विलियम लॉयड गैरिसन (1805-1879) ने अपनी पत्रिका द लिबेरेटर (आज़ादी दिलाने वाला) में इस महत्वपूर्ण सवाल के जवाब में लगभग ऐसी ही बात लिखतें हैं

मुझे पता है कि मेरी कठोर भाषा पर बहुत सी आपत्तियाँ हैं, लेकिन क्या इस कठोरता के कारण नही है? मैं उतना ही कठोर रहूँगा जितना कि सच, उतना ही असम्मत, ज़िद्दी और हठी रहूँगा जितना कि न्याय। और मैं इस विषय पर नर्मी और संयम से सोच, बोल और लिख नही सकता, नही! नही! उस आदमी से कहिए जिसके घर मे आग लगी हो कि संयम और उदारता से पुकारे, उससे कहिए कि वो बड़ी उदारता के साथ बलात्कारियों से अपनी पत्नी को छुड़ाए, उस माँ से कहिए कि अपने बच्चे को धीरे धीरे उस आग से निकाले जिसमें वो गिरा हुआ है। लेकिन मौजूदा कारणों के लिए मुझसे उदारता और संयम का आग्रह ना करें। मैं खरा हूँ, गोलमोल बात नही करूंगा, मैं एक इंच भी पीछे नही हटूँगा, और मैं ज़रूर सुना जायूँगा।

पीड़ित और अत्यचारी की भाषा पर बात करते हुए रोलैंड जेरार्ड बार्थेस (1915-1980) अपनी मशहूर किताब मयथोलॉजीज के पेज न० 150 पर लिखते हैं कि

“पीड़ित के पास उसके मुक्ति/उद्धार के लिए उसकी भाषा के अतिरिक्त कुछ भी नही है। दमनकारी के पास सब कुछ है, उसकी समस्याओं के निराकरण के लिए उसकी भाषा गरिमा की सभी संभावित आयामों के साथ, समृद्ध, बहुमुखी, लचीला और नरम है। उसके पास दूसरी भाषाओं या दूसरे की भाषाओं का निरूपण और विश्लेषण करने का विशेषाधिकार भी है। पीड़ित दुनिया को बनाता है, उसके पास केवल एक सक्रिय, सकर्मक (प्राकृतिक) भाषा है। अत्यचारी अपनी भाषा को पूर्ण(समग्र), अकर्मक, सांकेतिक, नाटकीय, जो कि एक मिथक है, बता कर उसको संरक्षित करता है। पहले वाले की भाषा का उद्देश्य परिवर्तन है जबकि बाद वाले की भाषा का उद्देश्य उसे शाश्वत एवं अविनाशी बनाना है।”

भाषा के इस बहस में जय प्रकाश फ़ाकिर साहब की बात नक़ल कर देना ज़रूरी जान पड़ता है। लिखते हैं कि

“तंज (व्यंग) वाली भाषा मूलतः अत्याचारियों की भाषा है। व्यंग्य ब्राह्मणी/अशराफवादी भाषा का अविष्कार है। इसमें किसी को चोट पहुँचा कर उससे सैडिस्ट sadist (दूसरे को दर्द या अपमानित करके प्रसन्नता, विशेषरूप से यौनसुख प्राप्त करना) आनंद लेना और साथ ही उस व्यक्ति से इच्छित प्रतिक्रिया हासिल करना उद्देश्य होता है।

बाबा कबीर साहेब कहते है कि

“पांडे मैं कहता सुरझाई तू कहता सुरझाई रे”

उलझी हुई व्यंग्यपूर्ण भाषा पांडे की विशेषता है। चूंकि भाषा पर पांडे का वर्चस्व है हम भी ऐसी भाषा प्रयोग करते है मगर यह है तो सैडिस्ट भाषा ही। हम भाषा नही बोलते बल्कि भाषा भी हमे बोलती है। हिंदी में स्त्री वाचक बनाने के प्रत्यय वही है जो ऊनार्थक (निम्न/कम अर्थ) बनाने के है। जैसे चुहिया और लुटिया। यानी हिंदी व्याकरण में स्त्री न्यून यानी कमतर है। फिर भी मुझे लुटिया शब्द का छोटे लोटे के रूप में प्रयोग करना पड़ता है। संरचना-गत विषमता से लड़ने के औज़ार जटिल होते हैं

रोलैंड बार्थेस लिखते है

“पीड़ित की भाषा अपरिष्कृत, सीधी और प्राकृतिक है, जबकि दमनकारी की भाषा अप्रत्यक्ष, कलात्मक अप्राकृतिक है।”

एक तर्क और दिया जाता है कि सारे अशराफ बुरे नहीं है और सब को एक ही केटेगरी में नही रखा जा सकता है। इस तर्क के जवाब में विश्व प्रसिद्ध और एफ्रो-अमेरिकन सामाजिक न्याय के साथी, बॉक्सर मुहम्मद अली क्ले (1942-2016) की बात नकल कर देना उचित है, जो उन्होंने एक टीवी शो ब्रिटिश चैट शो “पार्किंसन” 1971, में एक साक्षात्कार के दौरान सवाल करते हुए कहा था

“ऐसे बहुत से गोरे लोग हैं जो अच्छे हैं और दिल से अच्छा करना चाहते हैं। अगर 10 हज़ार सांप उतर कर मेरे गलियारे की तरफ आ रहे हैं, और मेरे पास एक दरवाज़ा है जिसे मैं बंद कर सकता हूँ,और उन 10 हज़ार ज़हरीले सांपो में एक हज़ार अच्छे सांप है जो मुझे डसना नही चाहते हैं और मैं जानता भी हूँ कि वो अच्छे हैं, तो क्या मुझे उन सभी ज़हरीले सांपो को नीचे आने देना चाहिए इस उम्मीद में कि वो एक हज़ार साथ मिलकर मेरे लिए एक ढाल बनालेंगें? या मुझे अपना दरवाज़ा बंद करके सुरक्षित हो जाना चाहिए?

मुहम्मद अली क्ले के इस सवाल को सामने रखते हुए पसमांदा अन्दोलन को स्वयं पर भरोसा रखते हुए आगे बढ़ने का जतन करना चाहिए।

उपर्युक्त धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों के अनुभवों और व्यक्तव्यों के विवरण के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि पसमांदा अन्दोलन और उससे जुड़े लोगो की भाषा सामाजिक न्याय के संघर्ष के अनुरूप नैतिकता के दायरे में है और दमनकारियों की ओर से लगाया जाने वाला आरोप बे बुनियाद है और वो ऐसा सिर्फ अन्दोलन को दिग्भ्रमित करने के लिए कर रहें हैं।

आभार: मैं राष्ट्रपति पुरष्कार से सम्मानित हज़रत मौलाना प्रो० डॉ० मसूद आलम फलाही साहब और जय प्रकाश फ़ाकिर साहब का आभार व्यक्त करता हूँ जिनके वैचारिक दिशा निर्देश ने इस लेख को वजूद में लाने में महती भूमिका निभाई।

यह लेख 07 अक्टूबर 2019 को https://www.thepasmanda.com  पर प्रकाशित हो चुका है।


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