1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ और 26 नवम्बर 1949 को जब यह अस्तित्व में आई, उस दौरान डा0 भीमराव अम्बेडकर तथा अन्य सदस्य हिन्दू समाज में निचली जातियों (जिन्हें दलित भी कहा गया) के उत्थान के लिए संविधान में संशोधन के प्रयत्न करते रहे। संविधान के अनुच्छेद 341 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह विभिन्न जातियों और कबीलों के नाम एक सूची में शामिल कर दें। 1950 में …
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पसमांदा मूल रूप से फ़ारसी भाषा का शब्द है। यह 'पस' और 'मांदा' नामक दो शब्दों से मिल कर बना है। पस का अर्थ होता है पीछे और मांदा का अर्थ होता है छूटा हुआ अर्थात पीछे छूटा हुआ। आम इस्तेलाह (बोल चाल की भाषा) में पसमांदा शब्द उन (वर्गों/जातियों) के लिए प्रयोग किया जाता है जो तरक़्क़ी की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। हालांकि पसमांदा शब्द का सम्बन्ध किसी विशेष धार्मिक समूह के …

मुस्लिम आरक्षण की माँग का उद्देश्य मुस्लिम हित नहीं बल्कि यह माँग अपनी (अशराफ़) लीडरशिप को क़ायम रखने व पसमांदा मुसलमानों को (आरक्षण के द्वारा) मिल रहे संवैधानिक लाभों से वंचित कर ख़ुद उस को प्राप्त करने का बेहतरीन हथियार/ज़रिया मात्र है क्योंकि तथाकथित मुस्लिम लीडरशिप (दरअसल अशराफ़ लीडरशिप) पसमांदा समाज में फैल रही जागरूकता व उन में उभर रही लीडरशिप की योग्यता में अपनी चौधराहट (एकछत्र राज) लिए ख़तरा महसूस कर रही है, जो …

“सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बतौर चेयरमैन अल्पसंख्यक सुरक्षा कमेटी जब ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशनल कमेटी के लिए रिजर्वेशन के मामले को ज़ेरे बहस रखा तो 7 मेम्बरों की कमेटी में से 5 ने इस के ख़िलाफ़ अपना वोट दिया। यह मेंबर थे- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना हिफ्ज़ुर्रहमान, बेग़म एजाज़ रसूल, हुसैनभाई लालजी, तजम्मुल हुसैन।” ज्ञात रहे कि उस समय तक 1935 के भारत सरकार एक्ट के अनुसार पसमांदा जातियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा …

इस पूरे संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि धार्मिक उन्माद के इस दौर में वंचितों को उनके अधिकार दे कर ही समतावादी समाज की कल्पना को साकार किया जा सकता है। हमारा यह मानना है कि पेशागत समानताओं के आधार पर समाज के अलग अलग समूहों को चिन्हित करना और इन समाजों के समायोजन से एक तरह की ठोस पहचान बनाते हुये संविधान प्रदत्त अधिकारों की बहाली का प्रयास करना होगा। इस प्रयास से …
जब मुसलमानों में जाति का सवाल उठता है तो कई मुस्लिम विद्वान छटपटाहट के साथ कहते हैं - कुरान में जात-पात कहाँ? पर यहाँ सवाल कुरान का नहीं उसकी व्याख्या का है. किसी भी किताब की व्याख्या कोई लेखक करता है और लेखक हमारे इसी समाज के होते हैं. लेखक की समाजी हैसियत का असर उसकी व्याख्या पर भी ज़रूर पड़ता है. जब मौलाना अशराफ अली थानवी बहिश्ती ज़ेवर में ‘कुफु’ के सिद्धान्त/ उसूल को …
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