कोरोना और आर्थिक मंदी

आर्थिक नरमी एक सामान्य प्रोसेस है। कोरोना के कहर से पूर्व समूचे विश्व मे यही हो रहा था। वायरस ने विश्व को रोक दिया है। कारखाने बन्द हैं, ट्रैन बन्द हैं, जहाज, पानी के जहाज, होटल-ढाबे, सिनेमा घर, स्कूल-कॉलेज हर जगह मुर्दाघर जैसी शांति है। ऐसे में ये समझना बहुत आसान है कि कुछ हो नही रहा तो वृद्धि नही होगी। ऐसे में वृद्धि दर नकारात्मक होगी।


22 April 20228 min read

Author: Anuj

जीडीपी क्या होती है कहां से आया इसका विचार? जीडीपी को सबसे पहले अमेरिका के एक अर्थशास्त्री साइमन ने 1935-44 के दौरान इस्तेमाल किया था। इस शब्द को साइमन ने ही अमेरिका को परिचय कराया था। वो दौर वो था जब विश्व की बैंकिंग संस्थाएं आर्थिक विकास का अनुमान लगाने का काम संभाल रहीं थी उनमें से ज्यादातर को एक शब्द इसके लिए नहीं मिल पा रहा था। जब साइमन ने इस शब्द से अमेरिका की कांग्रेस में इस जीडीपी शब्द को परिभाषित करके दिखाया तो उसके बाद आईएमएफ यानी अंतरराष्ट्री मुद्रा कोष ने इस शब्द को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। ये किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का जरिया है।

भारत में हम जीडीपी की गणना प्रत्येक तिमाही में करते हैं। ये किसी भी देश के मुख्य उत्पादन क्षेत्रों की उत्पादन वृद्धि पर निर्भर करता है। भारत मे कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र इसके प्रमुख घटक हैं।

अब इसको सरल भाषा मे समझिए। सोचिए कि किसी तिमाही में किसी देश की जीडीपी 100 रुपये है। और अगली तिमाही में उसकी वृद्धि दर 10 प्रतिशत है तो उसकी जीडीपी 110 रुपए हो जाएगी। और अगर तीसरी तिमाही में उसकी वृद्धि दर घटकर 9 प्रतिशत हो जाए तो उसकी जीडीपी 119.9 रुपए हो जाएगी। वृद्धि में गिरावट का मतलब वृद्धि रुक जाना नही होता है। इसका मतलब की आप पहले ज्यादा पैसे कमा रहे थे और अब पहले से थोड़ा कम। ऐसे हालात को आर्थिक नरमी और अंग्रेज़ी में स्लोडाउन कहते हैं। ऐसे में अगर किसी देश की जीडीपी 1000 रुपए है और किसी तिमाही में उसकी वृद्धि दर -10% है यानी उसकी जीडीपी अब 900 रुपए है। अगली तिमाही में उसकी वृद्धि दर -9% है तो अब उसकी जीडीपी 819 रुपए है। इस स्थिति को आर्थिक मंदी कहते हैं।

अब अगर किसी देश की जीडीपी 100 रुपये है और अगली तिमाही में इसकी जीडीपी 90, उससे अगली में 80 और उससे अगली में 70…. ऐसे गिरती रहे तो उसको महान आर्थिक मंदी कहा जाएगा।

अभी तक कि सबसे लेटेस्ट आर्थिक मंदी 2008-09 में आयी थी। उससे पहले 2001-02 , 1998, 1990-93 , 1980-83, 1974-75 और 1970 में भी ऐसा हुआ। इन सबमे अगर दो बार को नजरअंदाज किया जाए तो हर बार दुनिया मंदी से शानदार तरीके से उभरकर आयी है। आर्थिक मंदी से बाहर आने की भी दो रास्ते हैं - एक होता है U-शेप्ड और एक V-शेप्ड। U शेप्ड रिकवरी धीमी होती है, यानी कि मंदी से बाहर आने में किसी देश को सालभर भी लग सकता है। वहीं दूसरी तरफ V शेप्ड रिकवरी काफी कम समय मे वापिस उसी चोटी तक पहुंचा देती है। दो बार को छोड़कर दुनिया ने हमेशा V शेप रिकवरी की है यानी कि बहुत जल्दी।

Image taken from forbes.

आर्थिक नरमी एक सामान्य प्रोसेस है। कोरोना के कहर से पूर्व समूचे विश्व मे यही हो रहा था। वायरस ने विश्व को रोक दिया है। कारखाने बन्द हैं, ट्रैन बन्द हैं, जहाज, पानी के जहाज, होटल-ढाबे, सिनेमा घर, स्कूल-कॉलेज हर जगह मुर्दाघर जैसी शांति है। ऐसे में ये समझना बहुत आसान है कि कुछ हो नही रहा तो वृद्धि नही होगी। ऐसे में वृद्धि दर नकारात्मक होगी। वृद्धि के नकारात्मक होने का अभिप्राय है कि आप अब पैदा कुछ नही कर रहे हैं लेकिन भूतकाल में अपने जितना कमाया था उसमें से एक स्थिर गति से कमाई का हिस्सा लगातार निकलता जा रहा है दवाइयों के लिए, चिकित्सा के तमाम उपकरणों, खाने पीने की चीज़ों में, सुरक्षा बलों को साधन उपलब्ध कराने में ऐसे अनेकों खर्चे हैं। अति सरल भाषा मे आप अब कमाना बन्द करके बस खर्च किए जा रहे हैं जिसकी वजह से वृद्धि दर को नकारात्मक कहा जाता है। तमाम कम्पनियों और बैंकों को डूबने से बचाने के लिए सरकार अब उनको पैसा दे रही है। मतलब एकदम से शून्य आमदनी के साथ बहुत भारी खर्चे आ गए हैं। और खर्चे का ये दौर कुछ एक दो दिन का न होकर महीनों का है । किसी भी अर्थव्यवस्था को पहले जैसा होने में साल भर या उससे अधिक समय लग जाएगा, अब कितना अधिक ये भविष्य के गर्भ में है।

ये सच मे भयावह है। यदि सरकार अब कुछ उद्योगों को ढील भी देती है इस समय मे तो भी आमदनी नगन्य ही होने वाली है। गुंजाइश है ये की ये आर्थिक मंदी महान आर्थिक मंदी का रूप धारण कर सकती है जिसे अंग्रेज़ी में हम द ग्रेट डिप्रेशन कहते हैं।

अभी का संकट एकदम से फूटा बम है। मतलब ये है कि आपके पास पहले से ही खाने के लाले हैं और किसी दिन काम पर जाते समय आपको दुर्घटना में चोट लग जाए। अब कोरोना की वजह से अर्थव्यवस्था का कौनसा अंग टूटा है यह स्पष्ट नही है लेकिन दर्द बहुत अधिक है ये स्पष्ट है।

आयात और निर्यात की रोक ने सबसे ज्यादा तकलीफ है। मने की आपको एक्सीडेंट में कई जगह चोट आए और सिर में सबसे अधिक। अगर सिर में चोट न आती तो आप पीड़ा सहन कर जाते लेकिन यहाँ पीड़ा असहनीय है। भारत का कुल इलेक्ट्रॉनिक आयात यानी लगभग 45% चीन पर निर्भर है. लगभग एक-तिहाई मशीनरी और लगभग two-fifth कार्बनिक रसायन जिन्हें भारत दुनिया से खरीदता है, चीन से आते हैं । मोटर वाहन भागों और उर्वरकों के लिए भारत के आयात में चीन की हिस्सेदारी 25% से अधिक है. लगभग 65 से 70% सक्रिय फार्मास्युटिकल सामग्री और लगभग 90% मोबाइल फोन चीन से भारत में आते हैं. ये सिर्फ चीन के साथ वाले आँकड़े हैं , पूरी दुनिया के आंकड़े पेश किए जाएँ तो स्थिति और भयावह नजर आएगी।

डन एंड ब्रैडस्ट्रीट (Dun Bradstreet) के नवीनतम अर्थव्यवस्था पूर्वानुमान के अनुसार, मंदी की स्थिति में आने वाले देशों और दिवालिया होने वाली कंपनियों में प्रवेश करने की संभावना बढ़ गई है।

दुनिया ने 2008 की मंदी का दौर भी देखा था, जब कंपनियां धड़ाधड़ बंद हुईं थीं और एक साथ कई सौ-हजार लोगों को बेरोज़गार भी होना पड़ा था। इसलिए स्वाभाविक सवाल है कि क्या ये दौर 2008 की मंदी जैसा ही है या कई मायने में उससे भी अलग है? जानकार इससे साफ़ इनकार करते हुए कहते हैं कि यह उससे भी ख़राब दौर हो सकता है। क्योंकि उस समय तो एयर कंडिशन जैसी चीज़ों पर टैक्स कम हुए थे। तब, सामान की कीमत कम होने पर भी लोग उसे ख़रीद रहे थे, लेकिन लॉकडाउन में सरकार यदि अपना टैक्स ज़ीरो भी कर दे तो भी उसे कोई ख़रीदने वाला नहीं है। लिहाजा, विशेषज्ञ मौजूदा स्थितियों को सरकार के लिए भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण मान रहे हैं। क्योंकि अचानक ही उसके सामने कोरोना त्रासदी से उपजे लॉकडाउन जैसी एक विशाल समस्या आ खड़ी हुई है। यहां यह स्पष्ट कर दें कि 2008 के दौर में तो कुछ कंपनियों को आर्थिक मदद देकर संभाला गया था। लेकिन, आज यदि सरकार ऋण भी दे तो उसे सभी को देना पड़ेगा। क्योंकि हर सेक्टर में उत्पादन और ख़रीदारी प्रभावित हुई है। किंतु सरकार सबको लोन देने का जोखिम कितना उठा पाएगी, यह वक्त बताएगा।

लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ेगा। इस क्षेत्र से ही हमारी अर्थव्यवस्था का 50 प्रतिशत जीडीपी आता है। जबकि यह क्षेत्र लॉकडाउन के दौरान काम नहीं कर सकता है। जब इस क्षेत्र के लोग कच्चा माल नहीं ख़रीद सकते, बनाया हुआ माल बाज़ार में नहीं बेच सकते तो उनकी कमाई प्रायः बंद ही हो जाएगी। हमारे देश में छोटे-छोटे कारखाने और लघु उद्योगों की बहुत बड़ी संख्या है, जिन्हें नगदी की समस्या पैदा हो जाएगी।

इन सभी समस्याओं के बीच सबसे अधिक चिन्ता का समय देश के अन्नदाता के लिए आ खड़ी हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की गन्ने की फसल की छिलाई अभी पूरी भी नहीं हुई है कि ऊपर से गेहूं की फसल कटाई के लिए तैयार खड़ी है… लॉकडाउन के कारण मजदूर नहीं मिल रहे हैं और लॉकडाउन जारी रहने की आशंका से किसान को अगली फसल की बुआई की चिंता भी सता रही है. अगर समय पर फसल कटाई नही हुई तो निश्चित रूप से किसान और मजदूर समाज को आज तक का सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।वहीं गेहूं निकालने वाली मशीनें (थ्रेसर) उपलब्ध होने की भी स्थिति दिखाई नहीं दे रही. दरअसल ये मशीने ज्यादतर पंजाब से हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इलाकों के किसानों की फसल कटाई और कढ़ाई के लिए प्रस्थान करती है। तालाबंदी की वजह से बड़ी संख्या में ये साधन एक राज्य से दूसरे राज्य में नही जा पाएंगी और फसल कटाई में देरी होगी। बिहार , उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश से आने वाले दिहाड़ी मजदूरों की रोजी रोटी हरियाणा और पंजाब की फसल काटने से चलती है। ऐसे में मजदूर को काम कम मिलेगा, जिनको मिलेगा वो काम खत्म करने के बाद अपने घर वापिस लौट पाने में नाकाम रहेंगे। वरिष्ठ पत्रकार और कृषि मामलों के जानकार पी साईनाथ जल संकट की समस्या को भी गंभीर बताते हैं। राहत की बात ये है कि सरकार द्वारा किसानों को मंडी जाकर अपना अनाज बेचने की छूट दे दी गयी है। हरियाणा में खट्टर सरकार ने नया एक्सपेरिमेंट किया है। मंडियों के आढतियों को आदेश दिए गए हैं कि गाँव गाँव जाकर ही किसानों की फसल खरीदें, और नए आढ़ती बनाने के प्रस्ताव भी पारित किए हैं। लेकिन पुराने आढतियों ने रोष जताया है कि ऐसे में उनके कमिशन में घाटा आएगा और गाँव मे अनाज को स्टोर करने की सुविधा भी नही हैं। ध्यान रहे कि मंडियों में आढतियों के पास भी दिहाड़ी मजदूरों की कमी है जिसकी वजह से गांवों से मंडी तक अनाज ढोना आढतियों के लिए आसान बात नही होगी।

मतलब साफ है संकट लंबे समय तक चलने वाला है। अब कितने समय तक भारत और दुनिया की अर्थव्यवस्था को तकलीफ चीन वायरस देता रहेगा ये आने वाला समय बताएगा।



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