वो नक़्शे-कदम जो तारीख में कभी मद्धम नहीं पड़ते...
Posted by pasmanda_admin | Jan 31, 2025 | Casteism, Culture and Heritage, Education and Empowerment, Pasmanda Caste, Social Justice and Activism | 0 |
मुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों ...
Posted by Abdullah Mansoor | Jan 26, 2025 | Gender Equality and Women's Rights | 0 |
पसमांदा आंदोलन के जनक आसिम बिहारी ने कैसे पसमांदा ...
Posted by pasmanda_admin | Jan 21, 2025 | Education and Empowerment, Pasmanda Caste, Political, Social Justice and Activism | 0 |
डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर...
Posted by Abdullah Mansoor | Jan 14, 2025 | Culture and Heritage, Movie Review | 0 |
Urf: The Intersection of Islam and Indian Culture
Posted by Azeem Ahmed | Jan 13, 2025 | Culture and Heritage | 0 |
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Popularपुस्तक समीक्षा: इस्लाम का जन्म और विकास
by Arif Aziz | May 1, 2024 | Book Review | 0 |
मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि इस्लाम से पहले की तारीख़ दरअसल अरब क़बीलों का इतिहास माना जाता था। इस में हर क़बीले की तारीख़ और इस के रस्म-ओ-रिवाज का बयान किया जाता था। जो व्यक्ति तारीख़ को महफ़ूज़ रखने और फिर इसे बयान करने का काम करते थे उन्हें रावी या अख़बारी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार इस्लाम और मुसलमान में फ़र्क़ करते हैं।
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आडूजीविथम: द गोट लाइफ
by Abdullah Mansoor | Oct 12, 2024 | Movie Review | 0 |
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बंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या आवाज़ का बाज़ारीकरण?
by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
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Top Ratedसामाजिक अस्पृश्यता और बहिष्करण से लड़ती मुस्लिम हलालखोर जाति
by Abdullah Mansoor | Jun 14, 2024 | Casteism, Pasmanda Caste, Social Justice and Activism | 0 |
'हलालखोर' यानी हलाल का खाने वाला, यह सिर्फ एक अलंकार नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज में मौजूद एक जाति का नाम है। जिनका पेशा नालों, सड़कों की सफाई करना, मल-मूत्र की सफाई करना, बाजा बजाना, और सूप बनाना है। हलालखोर जाति के अधिकतर व्यक्ति मुस्लिम समाज के सुन्नी संप्रदाय के मानने वाले हैं। यह लोग अपनी मेहनत द्वारा कमाई गई रोटी के कारण हलालखोर कहलाए होंगे। वहीं, कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि धर्म परिवर्तन के बाद जब इस जाति ने सूअर का गोश्त खाना छोड़ दिया तो इस जाति को हलालखोर के नाम से जाना जाने लगा।
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फिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान
by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
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वक़्फ़-बोर्ड का काला सच
by Abdullah Mansoor | Sep 19, 2024 | Culture and Heritage, Political | 0 |
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Prophet Muhammad: A Life of Leadership and Teaching
by Azeem Ahmed | Oct 6, 2024 | Biography | 0 |
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Latestबंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या आवाज़ का बाज़ारीकरण?
by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
एंटी-कास्ट सिनेमा में बहुजन समाज का अनुभव, उनकी जीवन-शैली, संस्कृति केंद्र बिंदु पर होता है जिसे उनकी भाषा, भोजन, भाव-भंगिमा से चित्रित किया जाता है। अंबेडकरवादी विचारधारा को बोलकर नहीं बल्कि उनके कार्यों, निर्णयों, अन्याय के प्रति उनकी सोच में दिखाया जाता है। अंबेडकर, बुद्ध, कबीर, इलयाराजा का संगीत, सावित्री-ज्योतिबा फुले इत्यादि के प्रतीक चिन्ह आपको एंटी-कास्ट पात्र के आस-पास देखने को मिलते हैं जो इंगित करते हैं कि वो समाज की पहचान, इतिहास और संघर्षों के प्रति जागरूक है।
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मुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों है
by Abdullah Mansoor | Jan 26, 2025 | Gender Equality and Women's Rights | 0 |
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by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
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Read Moreवो नक़्शे-कदम जो तारीख में कभी मद्धम नहीं पड़ते
by pasmanda_admin | Jan 31, 2025 | Casteism, Culture and Heritage, Education and Empowerment, Pasmanda Caste, Social Justice and Activism | 0 |
अपने ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढाव के बावजूद दलितों पिछड़ों और पसमांदा के संघर्ष से अपना नाता नही तोड़ा. पैसे-रुपयों की कमी या घरेलू हालात अथवा परेशानियाँ भी आप को अपने मकसद से डिगा न सकी. आप ने कांशीराम और उनकी तहरीक (आन्दोलन) को उस समय गले लगाया था जब बड़े से बड़ा सामाजिक कार्यकर्ता भी उधर मुंह करके खड़ा होने से घबराता था कि कहीं अछूत न समझ लिया जाऊं।
Read Moreमुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों है
by Abdullah Mansoor | Jan 26, 2025 | Gender Equality and Women's Rights | 0 |
आज भी इस्लामी नारीवाद इसी मिशन पर काम कर रहा है। यह क्लासिकल इस्लामी इल्म और आधुनिक नारीवादी सोच दोनों से बातचीत करता है ताकि महिलाओं के हुकूक को बेहतर तरीके से समझा जा सके। सेक्युलर नारीवादी अक्सर इस्लाम को पितृसत्तात्मक मानते हुए उसकी आलोचना करते हैं, लेकिन इस्लामी नारीवादी मज़हब के अंदर रहकर उन तशरीहों को चुनौती देते हैं जो महिलाओं पर ज़ुल्म का सबब बनती हैं। इस्लामी नारीवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि यह क़ुरआन के नैतिक उसूलों पर आधारित है। अस्मा बरलास और अमीना वदूद जैसे विद्वानों का मानना है कि क़ुरआन इंसाफ़, बराबरी और इंसानी इज़्ज़त-ओ-तक्रीम (सम्मान) को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि तौहीद (ईश्वर की एकता) का मतलब यह भी है कि किसी इंसान को दूसरे इंसान पर लिंग, नस्ल या जाति के आधार पर हुकूमत करने का हक नहीं है। पितृसत्ता, जो मर्दों को महिलाओं पर प्रभुत्व देती है, तौहीद के उसूल के खिलाफ जाती है।
Read Moreपसमांदा आंदोलन के जनक आसिम बिहारी ने कैसे पसमांदा समाज को जागरूक और सक्रिय किया
by pasmanda_admin | Jan 21, 2025 | Education and Empowerment, Pasmanda Caste, Political, Social Justice and Activism | 0 |
आसिम बिहारी ने 22 साल की उम्र में प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक पंचवर्षीय (1912-1917) योजना शुरू की. 1914 में मात्र 24 साल की आयु में अपने वतन नालंदा में बज़्म-ए-अदब (साहित्य सभा) नामक संस्था की स्थापना की जिसके अंतर्गत एक पुस्तकालय भी संचालित किया.
Read Moreडोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर
by Abdullah Mansoor | Jan 14, 2025 | Culture and Heritage, Movie Review | 0 |
नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री “डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर” देखने के बाद मुझे एक अजीब सा अनुभव हुआ। यह फिल्म ब्रायन जॉनसन नाम के एक अमीर टेक उद्यमी की कहानी है, जो बुढ़ापे और मौत से लड़ने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रहा है।
जॉनसन साहब की जिंदगी देखकर मुझे लगा कि वो किसी साइंस फिक्शन फिल्म के किरदार हैं। हर दिन वो सैकड़ों गोलियां खाते हैं, अजीब-अजीब मशीनों में घंटों बिताते हैं, और अपने बेटे का प्लाज़्मा भी ले लेते हैं। लेकिन फिर मैंने सोचा कि शायद जॉनसन साहब कुछ ऐसा कर रहे हैं जो हम सब चाहते हैं – लंबी और स्वस्थ जिंदगी जीना। बस फर्क इतना है कि उनके पास करोड़ों रुपये हैं जो वो इस पर खर्च कर सकते हैं।
फिल्म में दिखाया गया कि जॉनसन साहब पहले मोटे और उदास थे। लेकिन अब वो फिट और खुश नजर आते हैं। शायद उनकी कोशिशों का कुछ फायदा हुआ है।
मगर मुझे लगता है कि वो कुछ जरूरी चीजें भूल गए हैं। जैसे परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताना, जिंदगी का मजा लेना। फिल्म के आखिर में जब उनका बेटा कॉलेज जाता है तो वो रो पड़ते हैं। तब मुझे लगा कि शायद उन्हें अहसास हुआ कि सिर्फ लंबी उम्र काफी नहीं है।
कुल मिलाकर ये फिल्म दिलचस्प थी। इसने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हम अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें, लेकिन साथ ही जिंदगी का लुत्फ भी उठाएं। मुझे लगता है कि हमें जॉनसन साहब जैसा पागलपन नहीं करना चाहिए, लेकिन उनसे कुछ सीख जरूर ले सकते हैं – जैसे अच्छी नींद लेना, सही खाना खाना और एक्सरसाइज करना।
Urf: The Intersection of Islam and Indian Culture
by Azeem Ahmed | Jan 13, 2025 | Culture and Heritage | 0 |
Urf, an integral concept in Islamic jurisprudence, represents the collective practices and customs recognized as commendable by a society. The term originates from the Arabic root meaning “to know” and embodies the idea of societal knowledge that is both familiar and good. Within the Islamic legal tradition, ‘urf serves as a secondary source of law, subordinate to the Qur’an and Sunnah, but significant in its role as a mediator between divine principles and human contexts. By incorporating beneficial local practices that align with Islamic values, ‘urf allows Islam to adapt to diverse cultural settings without compromising its core tenets. Understanding ‘urf is essential to appreciating how Islam embraces regional customs, particularly in a multicultural society like India.
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