डॉक्टर अंबेडकर नहीं बल्कि कुछ बहुजन बुद्धिजीवी दलि...
Posted by Arif Aziz | May 16, 2024 | Movie Review, Pasmanda Caste, Social Justice and Activism | 0 |
न्यूटन:- लोकतंत्र की ग्रैविटी बताती फिल्म...
Posted by Abdullah Mansoor | May 13, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
संविधान, बाबा साहेब और चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’...
Posted by Abdullah Mansoor | Jul 19, 2024 | Biography, Political, Social Justice and Activism | 0 |
मानसिक स्वास्थ्य: क्या, क्यों, कैसे...
Posted by Abdullah Mansoor | Jul 4, 2024 | Miscellaneous | 0 |
अब्दुल कय्यूम अंसारी: भारत रत्न के असली हकदार...
Posted by Abdullah Mansoor | Jun 30, 2024 | Biography | 0 |
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Popularपुस्तक समीक्षा: इस्लाम का जन्म और विकास
by Arif Aziz | May 1, 2024 | Book Review | 0 |
मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि इस्लाम से पहले की तारीख़ दरअसल अरब क़बीलों का इतिहास माना जाता था। इस में हर क़बीले की तारीख़ और इस के रस्म-ओ-रिवाज का बयान किया जाता था। जो व्यक्ति तारीख़ को महफ़ूज़ रखने और फिर इसे बयान करने का काम करते थे उन्हें रावी या अख़बारी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार इस्लाम और मुसलमान में फ़र्क़ करते हैं।
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From Margins to Mainstream: Pasmanda Politics in Modi’s India
by Azeem Ahmed | May 1, 2024 | Social Justice and Activism | 0 |
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संविधान, बाबा साहेब और चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’
by Abdullah Mansoor | Jul 19, 2024 | Biography, Political, Social Justice and Activism | 0 |
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फिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान
by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
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Top Ratedफिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान
by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है
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by Azeem Ahmed | May 1, 2024 | Social Justice and Activism | 0 |
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by Abdullah Mansoor | Jul 19, 2024 | Biography, Political, Social Justice and Activism | 0 |
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मानसिक स्वास्थ्य: क्या, क्यों, कैसे
by Abdullah Mansoor | Jul 4, 2024 | Miscellaneous | 0 |
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Latestसंविधान, बाबा साहेब और चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’
by Abdullah Mansoor | Jul 19, 2024 | Biography, Political, Social Justice and Activism | 0 |
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अक्सर यह सवाल उठता था – मोदी नहीं तो कौन? लेकिन इस चुनाव के...
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by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
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by Abdullah Mansoor | Jul 4, 2024 | Miscellaneous | 0 |
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अब्दुल कय्यूम अंसारी: भारत रत्न के असली हकदार
by Abdullah Mansoor | Jun 30, 2024 | Biography | 0 |
संविधान, बाबा साहेब और चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’
by Abdullah Mansoor | Jul 19, 2024 | Biography, Political, Social Justice and Activism | 0 |
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अक्सर यह सवाल उठता था – मोदी नहीं तो कौन? लेकिन इस चुनाव के...
Read Moreफिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान
by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है
Read Moreमानसिक स्वास्थ्य: क्या, क्यों, कैसे
by Abdullah Mansoor | Jul 4, 2024 | Miscellaneous | 0 |
जरा सोचें कि हमारा दलित बहुजन पसमांदा समाज बिना किसी सामाजिक आर्थिक पूंजी के किस तरह मानसिक दबाव को झेल रहा होता है। शोषक वर्ग कभी भी शोषित समाज के लिए करुणा का भाव नहीं रखता। इसलिए हमारी लड़ाई दो अलग-अलग मोर्चों पर जारी है। एक तो हम समाज में अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ हम खुद के प्रति शोषण, अपमान, निरादर से हुए मानसिक आघात से लड़ रहे हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में, जहां जातिगत भेदभाव से जुड़ी मनोधारणा पूरे समाज में ज़हर की तरह फैली हुई है, यह और भी ज्यादा जरूरी है कि दलित बहुजन पसमांदा अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति पहले से सजग रहे। इस मानसिक संघर्ष में हम अकेले न पड़ें, इसलिए हमें आपस में आंदोलन के साथ-साथ इस विषय पर भी बात करने की जरूरत है।
Read Moreअब्दुल कय्यूम अंसारी: भारत रत्न के असली हकदार
by Abdullah Mansoor | Jun 30, 2024 | Biography | 0 |
1 जुलाई को सूरज उगते ही, अब्दुल कय्यूम अंसारी के जन्मदिन को चिह्नित करते हुए, उन्हें हम याद करते हैं। 1905 में जन्मे अंसारी एक भूले-बिसरे नायक थे, जिनकी अडिग भावना और अथक प्रयासों ने भारत के स्वतंत्रता और समानता के संघर्ष को आकार दिया। उनके विशाल योगदान और राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए उनकी निरंतर वकालत उनके भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न के लिए योग्यता को रेखांकित करती है। जैसे ही हम उनके जन्मदिन को मनाते हैं, उनके विरासत को याद करना और एक राष्ट्र की सामूहिक स्मृति को पुनर्जीवित करना महत्वपूर्ण है, जो उनके गहरे प्रभाव के लिए ऋणी है।
Read Moreउर्दू ज़ुबान का पसमांदा अदब कहाँ है?
by Abdullah Mansoor | Jun 23, 2024 | Culture and Heritage, Poetry and literature | 0 |
अशराफ वर्ग पसमांदा समाज को अहल-ए-जबान में शामिल नहीं करते थे। इसका असर भी उर्दू अदब में नजर आता है। 85 प्रतिशत पसमांदा समाज को, उनकी समस्याओं को और उनकी संस्कृति को सिरे से खारिज कर दिया गया है।
उर्दू अदब में प्रगतिशील आंदोलन का भी एक दौर चला है, पर उनकी सारी प्रगतिशीलता अपनी जाति पर आकर खत्म हो गई। इन्होंने खुदा की जात को तो आड़े हाथों लिया, पर अपनी जात पर कुछ नहीं लिखा। यह बताना आवश्यक नहीं है कि प्रगतिशील आंदोलन के शुरुआती दौर में लिखने वाले सभी लोग उच्च जाति के थे।चूंकि उर्दू पर अशराफ लोगों का वर्चस्व है और इन्हीं के पास तमाम संसाधन हैं। इसीलिए यही तय करते हैं कि गजल के मौजू (मुद्दे) क्या हों! अगर पसमांदा शायर और लेखक कुछ लिखते हैं, तो उसे अदब के स्तर का ना मानकर खारिज कर दिया जाता है।यही वजह है कि पसमांदा शायर अपने लूम, साड़ी, कपड़े, बानी, खेती-किसानी, अपने मवेशी, कपड़े और अपने समाज की परेशानी वगैरह पर शेर न लिखकर अशराफों की तरह औरतों की कमर और उनकी जुल्फों पर शायरी करते नजर आ जाते हैं।
Read Moreसामाजिक अस्पृश्यता और बहिष्करण से लड़ती मुस्लिम हलालखोर जाति
by Abdullah Mansoor | Jun 14, 2024 | Casteism, Pasmanda Caste, Social Justice and Activism | 0 |
‘हलालखोर’ यानी हलाल का खाने वाला, यह सिर्फ एक अलंकार नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज में मौजूद एक जाति का नाम है। जिनका पेशा नालों, सड़कों की सफाई करना, मल-मूत्र की सफाई करना, बाजा बजाना, और सूप बनाना है। हलालखोर जाति के अधिकतर व्यक्ति मुस्लिम समाज के सुन्नी संप्रदाय के मानने वाले हैं। यह लोग अपनी मेहनत द्वारा कमाई गई रोटी के कारण हलालखोर कहलाए होंगे। वहीं, कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि धर्म परिवर्तन के बाद जब इस जाति ने सूअर का गोश्त खाना छोड़ दिया तो इस जाति को हलालखोर के नाम से जाना जाने लगा।
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