कोरोना का ख़तरा और पसमांदा समाज की ज़मीनी हकीक़त

Author: Lenin Maududi

10 गुणा 12 के 2-3 कमरों का एक छोटा सा घर. उस घर में दादा-दादी, मियां-बीवी और 3 बच्चे रहते हैं. मऊ के पसमांदा मुस्लिम घरों की आमतौर से यही संरचना होती है. इसका मतलब है कि एक ही परिवार की तीन पीढ़ियों में कोरोना वायरस के वाहक़ (carriers) मौजूद हैं. पोते-पोतियों से घिरे रहने के कारण घर के बुजुर्ग इतने छोटे से घर में खुद को अलग (self-isolate) नहीं कर सकते और यही कोरोना वायरस के सबसे आसान शिकार हो सकते हैं.

आमतौर से पसमांदा मुस्लिम घरों में खाने के बर्तन भी अलग नहीं होते. घर मे एक ही टॉइलेट होता है. इन घरों में हरेक सदस्य के लिए निजी-स्थान (personal space) की कमी की वजह से ही लोग घर के बाहर ज़्यादा नज़र आते हैं सिर्फ सोने के लिए ही घर जाया करते हैं

इन पसमांदा मुस्लिम इलाकों में जनसंख्या का घनत्व किसी भी हिन्दू इलाकों से बहुत ज़्यादा होता है. इसकी वजह यह है कि साम्प्रदायिक दंगों में सुरक्षा की दृष्टि से पसमांदा मुसलमान, मुस्लिम इलाकों में ही रहना पसंद करते हैं. साथ ही खान-पान की आदतों के हिसाब से यहां दुकानें मिल जाया करती है. जनसंख्या घनत्व के कारण तुलनात्मक रूप से आपको पसमांदा मुस्लिम इलाके गंदे और भीड़भाड़ वाले नज़र आएंगे. इन इलाकों में स्वास्थ्य केंद्रों का भी अभाव रहता है. अगर मैं अपने शहर मऊ की बात करूं तो किसी की थोड़ी से भी तबियत खराब होती है तो उसे 120 किलोमीटर दूर बनारस रेफर (refer)  कर दिया जाता है. जबकि मेरा शहर किसी भी आम मुस्लिम बस्ती की तुलना में बहुत विकसित है.

सच्चर कमीटी रिपोर्ट से हमको ये भी पता चलता है कि मुसलमानों में शिक्षा का स्तर सबसे निम्न है. जब हम मुस्लिम समाज की जातियों के हिसाब से राजेन्द्र सच्चर की रिपोर्ट को पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि मुस्लिम समाज की पसमांदा जातियों की स्थिति भारत के दलित वर्ग से भी बदतर है. शिक्षा-रोज़गार में ये भारत का सबसे पिछड़ा वर्ग है. इस समाज में शिक्षा का अभाव जागरूकता फैलाने में बहुत बड़ा बाधक है. लोग विज्ञान से ज़्यादा अंधविश्वास पर यकीन करते हैं. इस समाज में भाग्यवादी लोगों की संख्या बहुत अधिक है. जो होगा देखा जाएगा, अल्लाह जिसको चाहे मौत दे दे, टाइप बातें आमतौर से सुनने को मिलेगी. उनकी इस मानसिकता के निर्माण में अशराफ़ उलेमाओं की भूमिका बहुत अधिक है. इन उलेमाओं ने पसमांदा समाज को बहुत जज़्बाती बना रखा है

पसमांदा मुस्लिम समाज का जो छोटा-सा शिक्षित वर्ग भी इन्हें जागरूक करने में बहुत रुचि नहीं दिखाता. इन शिक्षित वर्ग में से कुछ लोग लोकप्रियता और लाभ के लिए वैसी ही बातें करने लगते हैं जैसा यह वर्ग सुनना चाहता है. जो थोड़े से शिक्षित वर्ग जागरूकता फैलाना भी चाहते हैं तो उन्हें इस बात का डर लगता है कि जागरूकता फैलाने में अगर गलती से भी उनके मुंह से इस्लाम की पूर्वधारणाओं के ख़िलाफ़ कुछ निकल गया तो यह वर्ग उन पर काफ़िर, नास्तिक आदि का लेबल चिपका देगा. गरीबी के कारण सेनेटाइज़र और मास्क की कल्पना करना ही इस समाज में बेमतलब है.

अब बात इस्लाम धर्म की भी कर लेते हैं. इस्लाम धर्म एक सामुदायिक धर्म (collective religion) है. अर्थात इसके सारे कर्मकांड व्यक्तिगत न हो कर समूहों में होते हैं. सामाजिक दूरी (Social Distancing) मुस्लिम समाज के लिए एक एलियन शब्द है. इस्लाम धर्म का जन्म ही भेदभाव, छुआछूत के ख़िलाफ़ हुआ था. यद्यपि आज भी मुस्लिम समाज मे भेदभाव छुआछूत मौजूद है. इस्लाम धर्म का मूल सिद्धांत समानता को केंद्र में रख कर गढ़ा गया है. छुआछूत-भेदभाव को खत्म करने के तरीकों में एक तरीका यहाँ एक दूसरे का जूठा खाना खाना या एक थाली में खाना खाना और जूठा पानी पीना भी अपनाया गया है. भले ही लोग दूसरी जातियों के साथ जूठा खाना-पानी साझा न करें पर मुसलमान अपने घरों मे इस प्रवर्ती को अपनाते हैं. मस्जिदों में जब नमाज़ पढ़ी जाती है उस वक़्त भी कंधे-से-कंधा और घुटनों-से-घुटना मिलाने पर ज़ोर दिया जाता है. मुसलमानों में अभिवादन के वक़्त हाथ मिलाना, हाथ चूमना गले मिलना आम रिवाज है. जिसे मुस्लिम समाज सदियों से अपनाता रहा है. एकाएक इन तरीकों में बदलाव करना मुमकिन नहीं है. ज़रा सी भी सावधानी हटी तो मुसलमान अपनी मूल प्रवृति के अनुसार ही आचरण करने लगेंगे

आमतौर से मीट मुस्लिम घरों का पसंदीदा भोजन होता है. मीट से कम पैसे में ज़रूरी पौष्टिक तत्व मिल जाते हैं. लेकिन मुसलमान हलाल मीट की दुकान से ही मीट लेना पसंद करते हैं. ये दुकानें स्वछ्त्ता और स्वास्थ्य की दृष्टि से उतनी बढ़िया नहीं होती. गरीब बस्ती में ऐसी ही दूकान हो सकती है. इन्हीं दुकानों से मुस्लिम समाज के गरीब और यहाँ तक कि अमीर भी, यानि अशराफ़-पसमांदा दोनों ही मीट लेते हैं अर्थात इन दुकानों से संक्रमण फैला तो समाज का हर वर्ग प्रभावित हो सकता है. 

मीडिया और सरकार की बात करें तो मुस्लिम समाज में मोदी सरकार के प्रति अविश्वास बहुत अधिक है. एक तरफ जहाँ समाज में एक वर्ग मोदी समर्थन में 'अंधभक्त' बना हुआ है तो दूसरी और एक दूसरा वर्ग भी मोदी विरोध में खड़ा हुआ है. लेकिन यह विरोध अंध नहीं है. इसके पीछे पसमांदा समाज का आंखों-देखा और तन-सहा तजुर्बा है. ऐसे में मोदी सरकार की हर नीति का विरोध होना बड़ी बात नहीं. स्वाभाविक ही है ये. हम यह भी देखते हैं कि सरकार ने इस अविश्वास को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया है. सो, मुस्लिम समाज का यह वर्ग सरकार की उन नीतियों का भी विरोध करने की दशा में आ गया है जो शायद सही होतीं. एक आमधारणा इन पसमांदा मुस्लिम बस्तियों में बसती है कि दुनियां मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िश कर रही है. मीडिया उसी साज़िश का हिस्सा है. ये हर नए ख़तरे को चाल और साज़िश के रूप में देखते हैं.

भारत में मीडिया ने भी लगातार जैसी रिपोर्टिंग की है. उससे मुस्लिम समाज में विरोध की भावना बढ़ी है. यही वजह है कि मुस्लिम समाज का भरोसा भारतीय मीडिया से उठ गया है. बहुत से मुस्लिम घरों में कोई न्यूज़ चैनल नहीं चलता है. जिन घरों में न्यूज़ चैनल चल रहा है. वहां उसे गम्भीरता से नहीं लिया जाता है. आम धारणा है कि भारतीय न्यूज़ चैनल सरकार के भोंपू हैं और न्यूज़ एंकर सरकार का प्रवक्ता. न्यूज़ चैनल कभी भूले से इन चेनलों पर कोई सही खबर प्रसारित हो भी जाए तो उस पर बहुत कम यकीन किया जाता है. गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के अभाव में यह समाज का भरोसा whatsapp पर आए जादू-मंत्रो की कहानियों पर हो गया है. खैर, अगर न्यूज़ चैनल को ज़रा भी गम्भीरता से लिया जाता तो CAA और NRC के पक्ष में तमाम न्यूज़ एजेंसियां थी जो सरकार का पक्ष रख रही थी. बता रही थी कि इन कानूनों से किसी मुसलमान की नागरिकता नहीं जाएगी. किसी को भी डिटेंशन कैम्प में नहीं भेजा जाएगा. इसके बावजूद भी मुस्लिम समाज सड़कों पर बैठा हुआ था. यह बानगी है कि उन्हें न्यूज़ चैनल पर भरोसा नहीं है.

भारतीय पुलिस के प्रति भी पसमांदा मुसलमानों का नज़रिया नकारात्मक ही है. अभी हाल में हुए दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठे हैं. कई जगहों पर पुलिस दंगाईयों के साथ नज़र आई थी. दंगों में मारे जाने वाला वर्ग आमतौर से पसमांदा बहुजन वर्ग होता है. हाशिमपुरा नरसंहार में पुलिस की गोलियों से मारे गए 42 नौजवान अंसारी समाज से थे. भारतीय पुलिस के प्रति भी पसमांदा समाज में भारी असंतोष है. यही वजह है कि पुलिस के द्वारा बार-बार दिए जा रहे दिशा निर्देशों को गंभीरता से नहीं लिया जाता

ऊपर कही बातों से यह तो समझ में आता है कि पसमांदा मुस्लिम इलाकों में समाज के लोग अपने आप ही खुद पर किसी तरह का प्रतिबंध लगा पाने की स्थिति में तो नहीं हैं. यहां पसमांदा समाज के उलेमाओं, नागरिक समाज को बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा. प्रशासन की सख्ती अनैतिक ही लगेगा क्यूंकि प्रशासन का यह नैतिक फ़र्ज़ था कि वह इस समाज को बराबर के नागरिक होने का अहसास दिलाती और ऐसे कार्य करती जिससे पसमांदा समाज उन्हें संजीदगी से लेता. अब ऐसे में अगर यह बात मान लें कि कोरोना वायरस मानव से मानव में फैल रहा है, जैसा कि कहा जा रहा है, तो पसमांदा मुस्लिम इलाकों में इस इसके फैलने की संभावनाएं भी अधिक हैं. ऊपर से, पसमांदा समाज इस स्थिति में नहीं है कि वह अपना ईलाज प्राईवेट अस्पतालों को कर पाए. पसमांदा मौलानाओं को खुद ही आगे आकर मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने को पूरी तरह से स्थगित कर देना चाहिए, जब तक कि इस वायरस का अंत नहीं हो जाता. उन्हें खुद से ही बाजू-बगल में चलती चाय के दुकानदारों से दूकान को बन्द करने के लिए कहना चाहिए. प्रशासन-सरकार को अगर लगता है कि पसमांदा मुस्लिम उनकी बात या अपील पर भरोसा करे तो पसमांदा समाज को उनके आम जनजीवन में प्रसाशन-सरकार कुछ ऐसा करती दिखाई भी दे जिसमें उन्हें भेदभाव या साजिश की बू ना आये. करोना से लड़ने में ये समाज सब का साथ क्यूँ नहीं देगा! वैसे भी अपने स्तर पर लोग प्रयास कर ही रहे हैं भले ही वे प्रयास उतने कारगर न हों.

यह लेख 03 अप्रैल 2020 को http://hindi.roundtableindia.co.in/index.php

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