उलेमा का एकराम और पसमांदा तहरीक

Author:  Faizi

किसी भी इख़्तिलाफ़ या बिखराव की सूरत में उम्मत को क्या करना चाहिए, इस के लिए इस्लाम में एक ज़ाबिता रख्खा गया है, वो ये की ऐसी सूरत में खुद को किताबुल्लाह और सुनन रुसुल की तरफ लौटा दें (देखे हज्जतुल विदा के मौके पे रुसुलल्लाह का दिया गया ख़ुत्बा)

अब कसौटी यही रहेगी क़यामत तक।

अब सवाल ये है के कोई भी शख्स अकाबरीन (बड़ा का जमा/बहुबचन यानि बड़े) में कब शुमार होता है या हम जिसे अपना पेशवा या रहनुमा कब और क्यों मानते है किस बुनियाद पे मानते हैं? तो सीधा सा जवाब ये ही हुआ के तक़वा(अल्लाह का डर, और इसी डर के बिना पे इस्लाम पे अमल पैरा होना कुल्ली तऔर पे/धर्मपरायणता) की बुनियाद पे। इसी वजेह से ये उलेमा हमारे सर आँखों पे है और हमे इस क़दर अज़ीज़ है के हम उनके शान में ज़र्रा बराबर भी गुस्ताखी नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं (माशाअल्लाह ये एक बहोत बड़ी सिफत है और एक मुस्लिम के अंदर होनी भी चाहिए और है भी) मतलब ये साफ़ हुआ के उनका जो बड़प्पन है बुज़ुर्गी है वो सब इस्लाम/दीन/शरीयत पे कामिल अमल पैरा होने की बुनियाद पे है ना के उन की नस्ली/नसबि, समाजी, मआसी,सियासी और तालीमी ऐतेबार से बड़े होने की बुनियाद पे।

अब एक बात और ज़हनशीं रखे कि इंसान चाहे वो किसी भी मर्तबे का क्यों ना हो ग़लती/भूल चूक/ताअस्सुब/तरफदारी या इस तरह के और भी इंसानी सिफ़ात(गुणों) से पाक नहीं है, और तभी वो इंसान है वरना ये सब ना हो तो फरिश्ता हो जाये।

अब आते है असल जवाब पे तो जनाब अगर किसी आलिम/अकाबिर/रहनुमा/पेशवा ने खुद को दीन/इस्लाम/शरीयत से अलग कर लिया या कोई ऐसा अमल कर लिया या बराबर कर रहा है या इस्लाम और दीन के नाम पे कोई गैर इस्लामी चीज़ या रस्म या उसूल इस्लाम में दाखिल या पेवस्त करने की कोशिश करें या कर दिया है और उसको दीन साबित भी करा दिया हो(जब की वो दीन ना हो) और वो मुसलसल इसी काम में लगा भी हो और जब उस बिदअत/गैर इस्लामी रस्म के खिलाफ आवाज़ उठे तो उसकी दिफ़ा(रक्षा) अपने पुरे जीजान से करे( जाने अनजाने में/ ग़लती से/ गुमराह होके/ या किसी और बिना पे, तो क्या वो अकाबिर/उलेमा/रहनुमा और पेशवा रह जायेगा?

हमारे सर आँखों पे रह जायेगा

बिलकुल नहीं जब एक डॉक्टर अपनी तिब्बी सिफ़ात के बिना पे जो एकराम वो इज़्ज़त पा रहा है अगर वो खो दे तो क्या उसे वही इज़्ज़त/बड़प्पन/अकाबरियत हासिल रहेगी और क्या लोग उस से इलाज मुआल्जे के लिए रुजू करेंगे?? मैं समझता हूँ के हरगिज़ नहीं।

अब आते है कुफू के नाम पे ज़ात पात ऊँच नीच हसब नसब को इस्लाम में पेवस्त/दाखिल करके उसे दीन बना देने वाले अकाबरीन/उलेमा/अईम्मा/फ़ुक़हा(फ़क़ीह, क़ानून का जानने वाला और उसका तशरीह करने वाला) पे, तो ज़रा गौर करे की क्या वो ये सब रह जाते हैं?? और उम्मत पे उनका इकराम वाजिब रह जाता है? और वो क्या अपना ये हक़ खो नहीं दे रहा है?

दूसरी बात कि जब किसी भी उन्वान पे बात की जाती है तो उसी के हिसाब से उस बात के कहने/करने वाले पे बहस होती है यानि अगर किसी इंसान के नमाज़ पढ़ने और ना पढ़ने पे बहस हो रही है और वो नमाज़ नहीं पढता है तो उसे बेनमाज़ी तो कहा जा सकता है लेकिन इसी बिना पे उसे क़ातिल (जब कि उसने ऐसा ना किया हो) नहीं कहा जा सकता है।

अब बात करते है के ऐसी सूरत में उम्मत को क्या करना चाहिए। तो जनाब इसका इंतज़ाम भी अल्लाह और उसके रसूल(इस्लाम/शरीयत/दीन) ने कर रखा है और वो ये की जब कभी भी कोई गलत (वो गैर इस्लामी ही होगा) काम/क़ओल/बोल/बिदअत हो और उसे होता देखे तो उसे अपनी ताक़त से रोक दे और अगर इस पे क़ुदरत ना हो तो अपनी ज़ुबान से रोक दें और अगर इस लायेक भी ना हो तो अपने दिल में इस/उस काम को और उस काम के करने वालों को बुरा जाने और इस से कोई निचला दर्जा नहीं ( बुखारी)।

1. अब बात करते है के हमे अब करना क्या है? पहले तो ये काम करना है के कुफ़ु के नाम पे जो ऊँच नीच/ज़ात पात/अशराफ (शरीफ/उच्च का बहुबचन), अर्ज़ाल (मलेछ) और अजलाफ (असभ्य) में उम्मत को बांटा गया है। उसके खिलाफ एक बड़ी तहरीक उठाई जाये और उलेमा इसकी क़यादत करें बिना किसी मसलकि/फिरकाबंदी की तफरीक़ (भेदभाव) किये।

(मुझे तो बड़ी हैरत होती है के उलेमा/फ़ुक़हा ने कैसे किसी कलिमा पढ़ने वाले को रज़िल (मलेछ) जल्फ़ (असभ्य) कहा है और उसी बुनियाद में उस से शादी बियाह करने को रोका है याद रहे कि राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ {RSS}सारे मुस्लिमो को मलेछ (रज़िल) कहता है)

2.  इसकी (कुफ़ु) वजेह से हमारे जिन कालिमा गो मुस्लिमो भाईओ की इज़्ज़त आबरू ख़राब हुई है उसको दुबारा बहाल करना उन्हें इज़्ज़त देना अपने समाज में उठाना बिठाना आम तौर से शादी बियाह करना हत्ता के सारा भेदभाव मिट जाये और एक उम्मत बन जाये। यहाँ एक बात और नोट करलें की कुफू का ऐतेबार सिर्फ दीनदारी हो (किफायत फ़िद्दीन) यानि दीनदारी देख के शादी बियाह आम हो ना के हसब नसब, ऊँच नीच, शरीफ रज़िल (मलेछ) देखकर। और इसकी (कुफ़ु) वजेह से जो मुस्लिम समाजी, मआशी (आर्थिक), तालीमी और सियासी ऐतेबार से पिछड़ गए है,पसमांदा (आदिवासी, पिछड़े और दलित) हो गए हैं उनको मुख्या धारा (mainstream) में वापस लाने की कोशिश हो एक तहरीक (आंदोलन) की शुरआत हो। ( पसमांदा आंदोलन के नाम से इसकी शुरआत हो भी चुकी है, अब हमें उसमे शामिल हो के अपना दीनी फ़रीज़ा अंजाम देना है)

3. वो ये के अपने उन अकाबरीन/उलेमा/फ़ुक़हा जिन्होंने कुफ़ु के नाम पे इस बिदअत को शरीयत बनाया है, उनसे बुरा भला कहने से गुरेज़ करें मोमिन की ये सिफत होती है कि वो दोस्ती दुश्मनी सिर्फ अल्लाह और उसके रुसुल के लिए ही करता है उसका कोई भी ज़ाती दुश्मनी और दोस्ती नहीं होती है, जो इस्लाम के खिलाफ है हम उसके खिलाफ है जो इस्लाम के साथ है हम उसके साथ हैं।

उनकी दीगर खिदमात को नज़रअंदाज़ ना करे और उस से फायदा उठाये उन्होंने बहोत जाफसानि,जद्दो जेहद और क़ुरबानी से ये काम (फिक़्ह/दरस वो तदरीस/दीगर इस्लामी खिदमात वगैरह) अंजाम दिए हैं।

लेकिन जब भी कुफ़ु या किसी भी ऐसी चीज़ की बात हो जो इस्लाम के खिलाफ है, तो बिना किसी झिझक के हदीसे बाला पे अमल पैरा हो कोई भी शख्सियत चाहे वो कितनी भी बड़ी क्यों ना ही अल्लाह और उसके रुसुल से बालातर यानि बड़ी नहीं।

अल्लाहो आलम बिस्सावब