अजीम अहमद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर यह कहकर निशाना साधा कि मुसलमानों का ‘राष्ट्र के संसाधनों पर पहला दावा’ है. फिर एक दिन बाद पीएम मोदी ने 22 अप्रैल को अलीगढ़ में अपने चुनावी भाषण में पसमांदा मुसलमानों की दुर्दशा का जिक्र किया. भाषण में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (सपा) पर निशाना साधा गया और उन पर ‘तुष्टिकरण’ की राजनीति करने और पसमांदा मुसलमानों को हाशिये पर रखने का आरोप लगाया गया. एक ओर मुसलमानों को निशाना बनाकर और दूसरी ओर पसमांदा के प्रति सहानुभूति दिखाकर, भाजपा पसमांदा आंदोलन द्वारा उजागर मुसलमानों के बीच धार्मिक और सामाजिक पहचान के बीच तनाव पर खेल रही है.

पसमांदा कार्यकर्ताओं का तर्क है कि मुसलमानों की धार्मिक पहचान और मुसलमानों/अल्पसंख्यकों की राजनीति ने केवल उच्च जाति के अशरफ मुसलमानों के हितों को प्राथमिकता दी है. वे पसमांदा मुसलमानों के रूप में अपनी सामाजिक पहचान पर जोर देते हैं और उसी रूप में अपनी पहचान की मांग करते हैं. हालांकि पसमांदा आंदोलन का सामाजिक और राजनीतिक विमर्श चर्चा से अनुपस्थित है, लेकिन यह पहला चुनाव है, जिसमें पसमांदा मुसलमानों ने खुद को एक राजनीतिक समुदाय के रूप में इस्तेमाल होते देखा है.

भाजपा अपने समर्थन के लिए पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है. पार्टी इसे ‘सबका साथ, सबका विकास, के विचार के तहत प्रचारित कर रही है, जिसमें उसका तर्क है कि इसमें पसमांदा मुसलमान भी शामिल हैं. हालांकि भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों के लिए किसी नीति की घोषणा नहीं की है, लेकिन उन्होंने विपक्षी दलों द्वारा अपने मुख्य मतदाताओं में से एक, मुसलमानों के एक बड़े वर्ग की उपेक्षा को उजागर कर दिया है.

कौन हैं पसमांदा मुसलमान?

भारतीय मुसलमानों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है: अशरफ, अजलफ और अरजल. अशरफ श्रेणी में ऐसे जाति समूह शामिल हैं, जो विदेशी वंश का होने का दावा करते हैं, जैसे कि सैयद, शेख, मुगल या पठान. अजलाफ श्रेणी में व्यावसायिक जातियां शामिल हैं, जैसे राईन (सब्जफरोश), अंसारी (बुनकर), मंसूरी (कपास व्यापारी) या कुरैशी (कसाई). अरजल में पूर्व अछूत जातियां शामिल हैं, जिन्हें दलित मुस्लिम भी कहा जाता है, जो दलित ईसाइयों के साथ, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं.

पसमांदा अजलाफ और अरजल का समूह है और मोटे तौर पर बहुजन की श्रेणी से मेल खाता है. पसमांदा एक फारसी शब्द है, जो ‘पीछे छूट गए लोगों’ को संदर्भित करता है और इसका उपयोग मुसलमानों के बीच दबे हुए वर्गों का वर्णन करने के लिए किया जाता है, अनुमान है कि भारत के 80-85 फीसद मुसलमान पसमांदा हैं.

पसमांदा मुसलमानों को ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया है. उनके साथ रज़ील और कमीन (निम्न मूल के) के रूप में व्यवहार किया गया है और उनसे केवल पारंपरिक कार्य करने की अपेक्षा की गई है, जिन कार्यो को कुलीन (अशरफ) मुसलमानों द्वारा निम्न स्तर का माना जाता था. जियाउद्दीन बरनी से लेकर अशरफ अली थानवी और अहमद रजा खान बरेलवी तक इस्लामी विद्वानों ने इन नामकरणों (रज़ील और कमीन) को वैध ठहराया है.

अपने पारंपरिक व्यवसायों के बाहर सीमित अवसरों के कारण, पसमांदा मुसलमानों को आर्थिक रूप से हाशिए पर रखा गया है और वे अपने अस्तित्व के लिए उच्च जाति के जमींदारों पर निर्भर थे.

1990 के दशक में बिहार में शुरू हुए पसमांदा आंदोलन ने जाति के राजनीतिकरण पर नई बहस छेड़ दी. पसमांदा आंदोलन ने मुस्लिम प्रतिनिधित्व और संगठनों पर अशरफ मुसलमानों के वर्चस्व की निंदा की. इसने बताया कि मुस्लिम राजनीति अधिकांश मुसलमानों के हितों को बढ़ावा नहीं देती है, बल्कि केवल अभिजात वर्ग (अशरफ) को बढ़ावा देती है. इसने मुस्लिम समाज के भीतर आंतरिक विभाजन पर ध्यान केंद्रित किया और एक अखंड मुस्लिम पहचान और राजनीति की धारणा को चुनौती दी.

बीजेपी की पहल 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हैदराबाद भाषण को पसमांदा मुसलमानों तक भाजपा की पहुंच की शुरुआत के रूप में बहुत लेख लिखे गए हैं. हालांकि, 2021 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले ही बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने की योजना बनाई थी. उत्तर प्रदेश में भाजपा नेतृत्व ने अपने मुस्लिम नेताओं को पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने के लिए कहा था. उसी वर्ष, उन्होंने तीन पसमांदा मुसलमानों को उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक संस्थानों, अल्पसंख्यक आयोग, मदरसा बोर्ड और उर्दू अकादमी के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया.

2022 में, उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने मोहसिन रजा (सैय्यद) की जगह एक पसमांदा मुसलमान दानिश आजाद अंसारी को राज्य मंत्री नियुक्त किया. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तारिक मंसूर को भी पसमांदा के रूप में उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सदस्य और 2023 में भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी नियुक्त किया. तारिक मंसूर उस समय अलीगढ़ में उपस्थित थे, जब पीएम मोदी ने 22 अप्रैल को पसमांदा मुसलमानों की बात की.

उत्तर प्रदेश में 2023 के निकाय चुनाव के दौरान भाजपा ने विभिन्न पदों के लिए 395 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. भाजपा नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि इनमें से 90 प्रतिशत से अधिक उम्मीदवार पसमांदा मुसलमान थे.

भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों को पार्टी के करीब लाने के लिए अपनी अल्पसंख्यक मोर्चा के माध्यम से कई कार्यक्रम शुरू किए हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा ने पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने के लिए राज्य के कई हिस्सों में पसमांदा सम्मेलन आयोजित किया. मोर्चा ने पसमांदा मुसलमानों को पार्टी के करीब लाने के लिए ‘मोदी मित्र’ जैसी पहल का भी इस्तेमाल किया है. उन्होंने पसमांदा मुसलमानों को लक्षित करने के लिए मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में ‘लाभार्थी सम्मेलन’ का भी आयोजन किया है, जो इनके अनुसार योजनाओं के प्रमुख ‘लाभार्थी’ हैं.

भाजपा की पहल ने नए पसमांदा संगठनों के गठन को भी प्रेरित किया है. ये संगठन पसमांदा मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं और उन्हें भाजपा को कांग्रेस और सपा का राजनीतिक विकल्प मानने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं. वे पसमांदा मुसलमानों को ‘लाभार्थी’ की श्रेणी में शामिल करने का प्रयास करते हैं, जो भाजपा द्वारा शुरू की गई योजनाओं के ’लाभार्थी’ हैं. वे पसमांदा मुसलमानों के लिए कुछ किए बगैर, उन्हें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए विपक्षी दलों की आलोचना करते हैं.

अन्य राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया

जब भाजपा पसमांदा आबादी की उपेक्षा के लिए विपक्षी दलों पर निशाना साधने के लिए पसमांदा का उपयोग कर रही है, उनके पास इसका कोई जवाब नही है. कांग्रेस और सपा जैसे राजनीतिक दलों ने मुसलमानों के बीच जाति समूहों की मौजूदगी से इनकार किया है और उन्हें एकमुश्त वोटिंग ब्लॉक के रूप में देखने पर जोर दिया है. वे भाजपा के प्रयासों को मुसलमानों के बीच विभाजन पैदा करने की एक चाल के रूप में देखते हैं.

उन्होंने भाजपा पर पसमांदा मुस्लिम समुदाय के उत्थान की दिशा में काम करने के बजाय वोट हासिल करने के लिए मुस्लिम आबादी को विभाजित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया. भाजपा पर समुदाय को प्रभावित करने वाले संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित किए बिना, कुछ पसमांदा मुस्लिम नेताओं को पार्टी के भीतर पदों पर नियुक्त करने जैसे प्रतीकात्मक संकेत देने का भी आरोप लगाया गया है.

समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अमीक जामेई ने भाजपा की पहल को ‘भाजपा की वोट हासिल करने की कवायद’ कहकर खारिज कर दिया. कांग्रेस ने कुछ बुनकर सम्मेलनों तो किया, लेकिन पसमांदा शब्द से परहेज किया. कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता उदित राज ने कांग्रेस की वेबसाइट पर एक लेख लिखकर इस बात पर प्रकाश डाला कि भाजपा की राजनीति वास्तव में पसमांदा मुसलमानों को प्रताड़ित करती है. हालांकि, पसमांदा मुसलमान उनके चुनावी अभियान में अनुपस्थित रहे हैं.

पसमांदा प्रतिक्रिया

पसमांदा कार्यकर्ताओं ने पसमांदा मुसलमानों के राजनीतिकरण का स्वागत किया है. अधिकांश कार्यकर्ता पसमांदा मुसलमानों के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को धन्यवाद देते हैं. डॉक्टर एजाज़ अली, जिन्होंने दलित मुसलमानों को धारा 341 में शामिल करने के लिए 1994 से आंदोलन किया है, ने प्रधानमंत्री के इस कदम का स्वागत किया है.

पसमांदा कार्यकर्ताओं का एक वर्ग पसमांदा मुसलमानों को भाजपा के करीब लाने और उनकी चिंताओं को उजागर करने के लिए भाजपा के साथ मिलकर काम भी कर रहा है. परवेज हनीफ की अध्यक्षता में ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज ने दानिश आजाद अंसारी के साथ राज्य भर में कई ‘पसमांदा पंचायत’ का आयोजन किया है.

हालांकि, पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अली अनवर जैसे कुछ पसमांदा नेता भाजपा के पहल की आलोचना की है. हैदराबाद में मोदी के भाषण के तुरंत बाद अली अनवर ने प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखा था. इसमें अनवर कहते हैं कि पसमांदा मुसलमानों को ‘स्नेह’ नहीं, ‘सम्मान’ चाहिए. उनका कहना है कि पसमांदा मुसलमानों को बीजेपी के स्नेह की नहीं, बल्कि समानता और सम्मान की जरूरत है.

पसमांदा पर चर्चा ने मुसलमानों में दिलचस्पी और जिज्ञासा पैदा कर दी है. लोगों के मन में पसमांदा के बारे में जानने की जिज्ञासा हो रही है. चूंकि कई पसमांदा मुसलमान इस शब्द से अनजान हैं, इसलिए इसके प्रचार-प्रसार ने उन्हें उत्सुक बना दिया है. कुछ लोग इस शब्द को अस्वीकार भी करते हैं, लेकिन इसने उन लोगों के बीच एक नई पसमांदा चेतना को भी जन्म दिया है जो पसमांदा श्रेणी में अपने हाशिए पर होने के अपने अनुभव को समझ पा रहे हैं।

निष्कर्ष

भाजपा की पहुंच और प्रधानमंत्री द्वारा पसमांदा मुसलमानों का बार-बार जिक्र करने से मुसलमानों के बीच जातिगत पहचान बढ़ी है. इससे 1990 के दशक से सक्रिय पसमांदा आंदोलन को नई जान मिल गई है. जहां बीजेपी लगातार पसमांदा समुदाय में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है, वहीं कांग्रेस और एसपी जैसी पार्टियों ने उनकी मांगों को नजरअंदाज कर दिया है. हालांकि, पसमांदा पहचान का राजनीतिकरण कर दिया गया है और इस चुनाव में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, भले ही पसमांदा मुसलमानों का एक छोटा सा वर्ग भाजपा के साथ जुड़ जाए.

हालांकि पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिकरण हाशिए पर मौजूद निचली जाति और दलित मुसलमानों के लिए एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन यह अभी भी देखा जाना बाकी है कि क्या इससे उनके जीवन में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आएगा. यह देखना भी जरूरी है कि क्या बीजेपी की पसमांदा पहुंच सिर्फ राजनीतिक दिखावा है या पसमांदा मुसलमानों की एक राजनीतिक श्रेणी बनाने की राजनीतिक रणनीति है.

हालांकि, मौजूदा चुनावों में बड़ा सवाल यह बना हुआ है: क्या मुसलमान अपनी धार्मिक या सामाजिक पहचान के आधार पर वोट देंगे? चुनाव यह निर्धारित करेगा कि क्या पसमांदा मुसलमानों की सामाजिक पहचान उनके लिए पसमांदा मुसलमानों के रूप में वोट करने के लिए पर्याप्त महत्वपूर्ण है, चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल को वोट देना चाहें.

साभार: https://www.hindi.awazthevoice.in/opinion-news/lok-sabha-elections-and-pasmanda-muslims-42872.html