-डॉ . कहकशां

भारत बहुजातीय और बहुधार्मिक समाज का देश है। यही विविधता इसकी सांस्कृतिक पूंजी है। आज़ाद भारत में यह विविधता कई प्रकार के उतार-चढ़ाव से होती हुई आगे बढ़ी है। इसमें कई तरह की असमानताएं रही हैं जो समाज और देश की उन्नति में बाधा का काम करती रही हैं।असमानताओं को दूर करने और बराबरी का समाज बनाने के उद्देश्य से मंडल कमीशन बना। जो हाशिये पर रह गए थे, उनको सामाजिक बराबरी दिलाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था कायम की गयी। इस व्यवस्था के लागू होने के बाद ऐसा लगा था कि देश में सामाजिक बराबरी आएगी। कई क्षेत्रों में बदलाव भी हुए। लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाकी है।

            सामाजिक बराबरी के लिए आज़ाद भारत में जो भी नीतियाँ बनी हैं, उनका लाभ बहुत कम तबकों को मिल सका है। उसका कारण ज़रूरतमंद लोगों के सही आंकड़ों का उपलब्ध ना होना भी है। इस्लाम को मानने वाले समाज में यह आंकड़े इसलिए नहीं जुट सके कि वहां व्यावहारिक और  सैद्धांतिक बातों में अंतर है। इस आलेख में इसी की पड़ताल करने का प्रयास है। आमतौर पर यही माना जाता है कि इस्लाम बराबरी और समानता का धर्म है जहां कोई ऊंच-नीच नहीं है। पर ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। भारत बहु-सांस्कृतिक देश है। इस सांस्कृतिक विविधता की जड़ें कहीं न कहीं जातीय विविधता से जुड़ी हुई हैं। यह ‘जातीय’ शब्द पेशे को अभिव्यक्त करता है। यहाँ पेशा और जन्म का गहरा सम्बन्ध है। अब यहाँ यह समझना है कि जातीय संरचना बहुत गहरी है। बहुत विस्तृत है। इतनी अधिक विस्तृत है कि उस में हर जाति में कई स्तर बनाये गए हैं और उन स्तरों में भी आतंरिक विभाजन है। इसके लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी की एक पंक्ति प्रचलित है- “गौड़ों में भी गौंड़”

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            मुस्लिम समाज में भी जातीय विभाजन वैसे ही है जैसे भारत के अन्य सम्प्रदायों में है। यहाँ भी जातीय व्यवस्था का आधार कहीं जन्म है और कहीं पेशा। भारतीय मुस्लिम समाज में भी हिंदू समाज की तरह ही कई श्रेणियां और ऊंच-नीच का भेदभाव विद्यमान है। इतना ज़रूर है कि दोनों में ‘श्रेणी और ऊँच-नीच’ के भेदभाव का आधार अलग-अलग है। मुझे आश्चर्य के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारा मुस्लिम समाज इक्कीसवीं शताब्दी में भी इस भेदभाव की भयंकर बीमारी से बेखबर है। एक तरफ दुनिया चाँद पर बसने के लिए प्रयासरत है और हम सदियों पुरानी जातिवादी मान्यताओं और परम्पराओं की विविध स्तरीय परतों से लोगों को अवगत करा रहे हैं। अब ज़रुरत है इस समस्या पर सामाजिक विमर्श खड़ा करने की, जिससे इस गुत्थी को सुलझाया जा सके और पसमांदा समाज केवल वोट बैंक बनकर ना रह जाय।

Representational Image (फोटो साभार : यूपीतक)

            भारत में इस्लाम का आगमन व्यापार के साथ सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ।  विद्वान मानते हैं कि इस्लाम के साथ ही जाति-व्यवस्था का आगमन हुआ। क्योंकि ‘अरब, जहाँ इस्लाम की पैदाईश हुई उस समाज का जायज़ा लेने से मालूम होता है कि वहां भी यह बीमारी कमोबेश मौजूद थी। चाहे इस्लाम से पहले का अरब हो या बाद का। अगर ऐसा नहीं होता तो अरबी भाषा में अशराफ, अजलाफ़ और अरजाल शब्द आते कहाँ से?’ अरबी में प्रचलित ये शब्द क्रमशः उच्च, निम्न और नीच जाति के सूचक हैं। इसका विस्तृत रूप हमें हुमायूँ मुराद के लेख ‘स्वतंत्रता सेनानी नियामतउल्लाह अंसारी : एक सौ दसवां जन्म दिवस’ में मिलता है। वह लिखते हैं,

‘मुस्लिम समाज को हमेशा से मुस्लिम रहनुमाओं द्वारा इस तरहलोगों के सामने पेश किया जाता रहा है कि मुस्लिम नामक शब्द जब भी किसी के सामने आता है तो आमतौर पर लोगों के ज़ेहन में एक ऐसे समाज,वर्ग, संप्रदाय की छवि उभरती है जो जन्म आधारित ऊंच-नीच ही नहीं बल्कि जात-पात से भी पाक है। ऐसा महसूस होता है कि जैसे सब बराबर हैं। बल्कि ‘मसावत’ शब्द तो जैसे मुस्लिम समाज का पर्याय हो। लेकिन हकीकत यह है कि यह मुस्लिम समाज की नहीं बल्कि इस्लाम की विशेषता है।

मुस्लिम समाज में जन्म आधारित ऊंच-नीच इस तरह मौजूद है, जिसकी एक आम गैर -मुस्लिम के द्वारा कल्पना कर पाना मुश्किल होगा। सत्य तो यह है कि मुस्लिम समाज में भी लगभग यही स्थिति है जो हिंदू समाज की है। जैसे भंगी कभी भी सार्वजनिक कुआँ से पानी नहीं भर सकता था वैसे ही अरजाल मुसलमान मस्जिद में सबके लिए इस्तेमाल होने वाले लोटे से वज़ू नहीं कर सकता था। इतना ही नहीं, छोटी जाति मुसलमान (अरजाल, अजलाफ़) नमाज में अशराफ़ के बराबर की लाइन में खड़े भी नहीं हो पाते थे। उनकी लाइन अशराफ़ की लाईन के पीछे लगती थी। कुछ जगहों पर तोआज भी यह परंपरा जारी है।’ 

            हुमायूँ मुराद का लेख बताता है कि यह परतें भारतीय व्यवस्था से प्रेरित नहीं बल्कि मुस्लिम समाज की अपनी पैदाइश है। ऐसे कई उदहारण उनके लेख में मिलते हैं। जातिगत भेदभाव पर वह लिखते हैं, ‘जिस प्रकार हिन्दू समाज में छोटी जाति की महिलाओं को स्तन ढकने पर केरल में स्तन टैक्स देना पड़ता था, उसी प्रकार मुस्लिम समाज में भी जाति आधारित टैक्स तक लगाए जाते थे। उदाहरण  के लिए धोबिया से लिया जाने वाला प्रजौटी टैक्स। इसी प्रकार गोरखपुर के जमींदार पसमांदा (अजलाफ/अरज़ाल) मुसलमानों से रेज़ालत टैक्स वसूल करते थे, क्योंकि उनका मानना थाकि यह रज़ील  (कमीना, नीच) हैं।’  सामाजिक व्यवहार में रखकर ‘पसमांदा’ शब्द को और स्पष्ट किया जाए तो हम कह सकते हैं कि मुसलमानों की वह तमाम जातियां पसमांदा के अंतर्गत आती हैं, जिनको भारत में मौजूद लगभग-लगभग सभी फिरकों, उलेमाओं, अशराफ़ वर्ग और संस्थापकों द्वारा ‘अजलाफ व अरजाल’ अर्थात नीच/कमीना लिखा गया।

            मुस्लिम समाज में मौजूद इस कोढ़ रूपी व्यवस्था व इससे उत्पन्न पसमांदा की दयनीय दशा को देखकर 1901 की बंगाल की जनगणना के संदर्भ में जनगणना अधीक्षक की रिपोर्ट और अवलोकनीय है, जिसमें उन्होंने विस्तार पूर्वक मुस्लिम समाज में मौजूद तीन वर्गों (अशराफ़, अजलाफ, अरजाल) का वर्णन किया, जिसका उल्लेख डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ में भी किया है। हालांकि इस्लाम में सिद्धांत के आधार पर तो बराबरी की बात है पर व्यवहार के स्तर पर जाति व्यवस्था जैसी भेदभाव वाली प्रथा के लक्षण साफ दिखते हैं। ‘सिद्धांतऔर व्यवहार’ का यह फर्क मुस्लिम समाज में लंबे समय से रहा है।

            पसमांदा की समस्या को समझने के लिए वर्ण व्यवस्था में ‘अशराफ़’ उच्च जाति के अंतर्गत आते हैं। यह अपना उद्भव पश्चिम एशिया से मानते हैं।  इसमें सैयद, शेख, मुगल, पठान इत्यादि शामिल हैं। इन में सैयद बिरादरी का दर्जा सबसे ऊपर है और मुसलमानों में वह ब्राह्मणों के समानांतर हैं। मुसलमानों के अंदर गैर- बराबरी के दर्शन को ‘सैयदवाद’ कहा जाता है। जातीय नज़रिए से यह मुस्लिमों का अभिजात वर्ग है।

Representational Image : Gadheri / Lodhi Samaj

            दूसरी श्रेणी में अजलाफ वर्ग आता है। इसमें शूद्र या पिछड़े मुसलमान हैं। यह निम्न अथवा साधारण वर्ग है जिसमें पेशेवर जातियां आती हैं। इसमें  दर्जी, धोबी, धुनिया, गद्दी, फाकिर, बढई-लुहार, हज्जाम (नाई), जुलाहा, कबाड़िया, कुम्हार, कंजरा, मिरासी, मनिहार, तेली समाज के लोगआते हैं।

            तीसरी श्रेणी अरजाल की  है। ‘अरजाल’ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ ‘कमीना’ होता है। यह भारतीय समाज में  शुद्ध गाली जैसा ही है। अरज़ाल में वे दलित हैं जिन्हों ने इस्लाम कबूल किया। जैसे कि हलालखोर, भंगी, हसनती, लाल बेगी, मेहतर, नट, गधेरी आदि आदि। इनके लिए 1901 जनगणना रिपोर्ट कहती है कि ‘अरजाल अथवा नीची जातियों में भी जो सबसे नीचे आते हैं, इनमें हलालखोर, लालबेगी, अबदाल और बेदिया आदि शामिल हैं। इनके साथ कोई दूसरा मुसलमान संबंध नहीं जोड़ता है और जिन्हें मस्जिद में जाने की मनाही है। यह सार्वजनिक दफ़न-गाह का भीप्रयोग नहीं कर सकते।’  मुस्लिम समाज में इनकी स्थिति कीड़े-मकोड़े जैसी है। मुसलमानों की इस बिरादरी के पेशे और नाम हिंदू दलितों से मिलतेजुलते हैं। इसलिए मुसलमानों के इस तबके के लिए ‘दलित’ शब्द का प्रचलन हो गया है। बिहार में पसमांदा  मुस्लिम महाज पिछड़े मुसलमानों के अधिकार की लड़ाई का अगुआ बन कर आगे आया है।

‘जो पीछे छूट गया’ उसे ‘पासमांदा’ कहते हैं अर्थात्  सामाजिक विकास के आईने में यह वर्गकाफी पीछे छूट गया। जो हर क्षेत्र में चाहे वह सामाजिक हो, शैक्षणिक हो या फिर राजनीतिक या आर्थिक हो। यह तबका आजादी से पहले याआजादी के इतने  वर्षों बाद भी अपनी स्थिति में बदलाव नहीं कर सका।

            ‘अब जबकि 21वीं सदी चल रही है मुस्लिम समाज जहां का तहां नजर आता है। कई मायनों में जड़, गति हीन और यथास्थिति से पीड़ित थी लेकिन उसी का पोषक! मज़हबी तौर पर इजाज़त होने के बावजूद यहां 1% प्रतिशत भी अन्तर्जातीय विवाह नहीं होते। जब कभी मुसलमानों के बीच जात-पात ऊंच-नीच के भेदभाव के मुतल्लिक सवाल उठते हैं तो कुछ लोगों द्वारा कुरान की  कुछ आयतों का हवाला देकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि इस्लाम में इस तरह का भेदभाव  नहीं है। कुरान पर भला कहां बहस है? वह तो इस बात पर है कि उसूलन  ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं होते हुए भी अमलन मुस्लिम समाज में यह क्यों मौजूद है?

            हिंदू समाज में वर्ण व्यवस्था की उसूलन मान्यता थी और इसलिए वहां जात-पात या छुआ-छूत है तो यह बात समझ में आती है। मगर जहां इस्लाम और उसकी किताब कुरान में जात-पात की मान्यता नहीं, वहां इसका होना तो और भी खतरनाक है मुस्लिम समाज की इस  बीमारी के लिए कौन जवाबदेह है? इसको कैसे समाप्त किया जाए? इस पर खुलकर विचार विमर्श करने के बजाय बीमारी को छिपाने की प्रवृत्ति आज भी मुस्लिमसमाज पर हावी है। यही नहीं इन बीमारियों की निशानदेही करने वालों को इस्लाम का दुश्मन और मुसलमानों में फूट डालने वाला तक करार दियाजाता है। आलोचना और आत्मालोचना की ज़ेहनियत नहीं होने से मुसलमानों की बीमारी और बढ़ती गई है।

आजादी के बाद भारतीय मुसलमान अपने धार्मिक एजेंडे में उलझा रह गया। राजनीतिक दलों ने उनकी समस्याओं पर सियासत तो खूब की , लेकिन उसके समाधान का प्रयास नहीं हुआ। खासकर छोटी जातियों और पारिवारिक पेशों में शामिल मुसलमान अपने दीन (धर्म) के प्रति समर्पित था। उसको कभी लगा ही नहीं कि इस्लामियत को मानने वाले भी उसके साथ छल कर सकते हैं। अशराफ समाज के लोग खुद तो अल्पसंख्यक के नाम पर आगे बढ़ते रहे और सुविधाओं का भोग करते रहे। इस्लाम को मानने वाला एक बहुत बड़ा तबका, पीछे छूट गया। अब उस तबके को बोध हो रहा है कि उनकी स्थिति क्या है। अच्छी बात यह है कि उनकी आवाज़ उन दलों तक भी पहुँच रही है जो सत्ता के सूत्रधार या संचालक हैं।