Category: Pasmanda Caste

इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद: फिलिस्तीन के खिलाफ नरसंहार का आरोप

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अध्यक्ष जोन ई. डोनॉग्यू ने कहा, “अदालत इस क्षेत्र में सामने आ रही मानवीय त्रासदी की सीमा से भली-भांति परिचित है और जीवन की निरंतर हानि और मानवीय पीड़ा के बारे में गहराई से चिंतित है।” दक्षिण अफ्रीका ने अदालत से कहा था कि वह इज़राइल से “गाजा में और उसके खिलाफ अपने सैन्य अभियानों को तुरंत निलंबित करने के लिए कहे।” हालांकि, अदालत ने दक्षिण अफ्रीका की याचिका को अस्वीकार कर दिया और युद्धविराम को लेकर कोई आदेश नहीं दिया। दक्षिण अफ्रीका ने ICJ से मांगा है कि ‘अनंतिम उपायों’ (provisional measures) का इस्तेमाल करके इज़राइल को गाज़ा पट्टी में अपराध से रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं। उनका तर्क है कि ‘जेनोसाइड कन्वेंशन’ के तहत फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनंतिम उपाय आवश्यक है।

यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि यहूदी विशेषकर इज़रायल राष्ट्र खुद को जनसंहार का विक्टिम बताते आया है, लेकिन अब उस पर जनसंहार करने का आरोप लगा है। भले ही इज़रायल अमेरिकी और अन्य यूरोपीय दोस्तों द्वारा बचा लिया जाए, फिर भी यह उसकी विक्टिमहुड की छवि को पूरी तरह बदल देगा।

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सामाजिक  अस्पृश्यता और बहिष्करण से लड़ती मुस्लिम हलालखोर जाति

‘हलालखोर’ यानी हलाल का खाने वाला, यह सिर्फ एक अलंकार नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज में मौजूद एक जाति का नाम है। जिनका पेशा नालों, सड़कों की सफाई करना, मल-मूत्र की सफाई करना, बाजा बजाना, और सूप बनाना है। हलालखोर जाति के अधिकतर व्यक्ति मुस्लिम समाज के सुन्नी संप्रदाय के मानने वाले हैं। यह लोग अपनी मेहनत द्वारा कमाई गई रोटी के कारण हलालखोर कहलाए होंगे। वहीं, कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि धर्म परिवर्तन के बाद जब इस जाति ने सूअर का गोश्त खाना छोड़ दिया तो इस जाति को हलालखोर के नाम से जाना जाने लगा।

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लोकसभा चुनाव 2024 का सबसे चर्चित मुद्दा मुस्लिम आरक्षण: तथ्य और मिथ्य

लोकसभा 2024 के चुनाव ने इस बार बहुचर्चित मुद्दा मुस्लिम आरक्षण था। कोई सारे मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कर रहा था तो कोई सारे मुसलमानों के आरक्षण को खत्म करने की बात कर रहा था। मुस्लिम आरक्षण सदैव से एक अबूझ पहेली रही है। समाज से लेकर न्यायालायों तक में इस पर बहसें होती रहीं हैं।
सबसे पहले यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि EWS (आर्थिक रूप से कमज़ोर) आरक्षण लागू होने के बाद ऐसा कोई मुस्लिम तबका नहीं है जो आरक्षण की परिधि से बाहर हो अर्थात लगभग सारे मुसलमान पहले से ही आरक्षण का लाभ लें रहें हैं। विदित रहे कि मज़हबी पहचान के नाम पर आरक्षण संविधान के मूल भावना के विरुद्ध है कोई भी मज़हब पिछड़ा या दलित नहीं होता है बल्कि उसके मानने वालो में गरीब, पिछड़े और दलित हो सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए आरक्षण की EWS, ओबीसी और एसटी कैटेगरी में अन्य धर्मों के मानने वालों के साथ-साथ सारे मुसलमानों को भी समाहित किया गया।

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पसमांदा विमर्श के मायने

यह मात्र हाजी नेसार अंसारी की कहानी नहीं है। मुस्लिम समाज के अंदर का पच्चासी फिसदी हिस्सा रखने वाला ‘पसमांदा’ तबकें की मुसलमानों की कहानी है। जो मुस्लिम समाज में संख्या बल हाने के बावजूद इस्तेमाल किया जाता है।

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दलित-दलित एक समान हिन्दू हो या मुसलमान

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 वर्तमान में दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति (SC) के लाभ प्राप्त करने की अनुमति नहीं देता है। इसमें केवल हिंदू, सिख और बौद्ध दलित शामिल हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि अस्पृश्यता केवल हिंदू धर्म में ही मौजूद है। हालाँकि, साक्ष्य बताते हैं कि दलित मुसलमानों और ईसाइयों को भी इसी तरह के भेदभाव और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें एससी श्रेणी में शामिल करने से उन्हें महत्वपूर्ण सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक सहायता मिलेगी। अनुच्छेद 341 में संशोधन का उद्देश्य सभी दलितों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करना है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, उनके संघर्षों को मान्यता देकर और उन्हें समान कानूनी अधिकार देकर।

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डॉक्टर अंबेडकर नहीं बल्कि कुछ बहुजन बुद्धिजीवी दलित मुस्लिमों के आरक्षण के खिलाफ हैं

यदि संविधान कहता है कि अगर संविधान के हिसाब से सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, तो सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण से बाहर भी नहीं किया जा सकता। लेकिन 1950 का राष्ट्रपति आदेश बिल्कुल यही करता है, जिसमें दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को केवल उनके धर्म के कारण एससी श्रेणी से बाहर रखा गया है। यह उनके मूल अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 14 (समानता), बल्कि अनुच्छेद 15 (कोई भेदभाव नहीं), 16 (नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं), और 25 (विवेक की स्वतंत्रता) के भी खिलाफ है।

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पसमांदा आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास

बहुत सालों बाद बाबा कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए  मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी (1890-1953) ने बाजाब्ता सांगठनिक रूप में एकअंतरराष्ट्रीय संगठन (जमीयतुल मोमिनीन/ मोमिन कांफ्रेंस) की स्थापना किया जो भारत के अलावा नेपाल, श्रीलंका और वर्मा तक फैला हुआ था।

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पसमांदा : कल, आज और कल

सामाजिक बराबरी के लिए आज़ाद भारत में जो भी नीतियाँ बनी हैं, उनका लाभ बहुत कम तबकों को मिल सका है। उसका कारण ज़रूरतमंद लोगों के सही आंकड़ों का उपलब्ध ना होना भी है। इस्लाम को मानने वाले समाज में यह आंकड़े इसलिए नहीं जुट सके कि वहां व्यावहारिक और  सैद्धांतिक बातों में अंतर है। इस आलेख में इसी की पड़ताल करने का प्रयास है। आमतौर पर यही माना जाता है कि इस्लाम बराबरी और समानता का धर्म है जहां कोई ऊंच-नीच नहीं है। पर ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है।

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पसमांदा आंदोलन के जनक आसिम बिहारी

आसिम बिहारी का जन्म शिक्षा और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से लगे खासगंज, बिहार शरीफ के एक देशभक्त परिवार में हुआ था. उनके दादा मौलाना अब्दुर्रहमान ने 1857 की क्रांति के झंडे को बुलंद किया था. आसिम बिहारी का असल नाम अली हुसैन था.
आसिम बिहारी के संघर्ष और सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो पैदा बिहार के नालंदा में हुए, आंदोलन की शुरुआत कोलकाता से की और उनकी मृत्यु उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुई.

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मुस्लिम आरक्षण का आधा-अधूरा सच

कुछ बहुजन सोशल मीडिया दलालों द्वारा एक और अर्ध-सत्य फैलाया जा रहा है, इन मीडिया दलालों की हाल ही में हिंदू राइट के प्रति सहानुभूति है, वह कह रहे हैं कि मुस्लिम पहले से ही चार प्रकार की आरक्षण सुविधा प्राप्त कर रहे हैं – OBC वर्ग में पिछड़े मुस्लिम, ST वर्ग में आदिवासी मुस्लिम, EWS वर्ग में ऊपरी जाति (अशराफ़) मुस्लिम, और सरकार द्वारा अनुदानित मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थानों – और इसलिए दलित मुस्लिम (या ईसाई) को एससी वर्ग में शामिल करना गलत है।

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हर सवाल का सवाल ही जवाब हो

अशराफ अक्सर पसमांदा आंदोलन पर मुस्लिम समाज को बांटने का आरोप लगाकर पसमंदा आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश करता है। जिसके भ्रम में अक्सर पसमांदा आ भी जाते हैं। जबकि पसमांदा आंदोलन वंचित समाज को मुख्यधारा में लाने की चेष्टा, सामाजिक न्याय का संघर्ष, हक़ अधिकार की प्राप्ती का प्रयत्न है। जिसका किसी भी धर्म से कोई सीधा टकराव नही है। इतिहास साक्षी है कि अशराफ, हमेशा से धर्म का इस्तेमाल अपनी सत्ता और वर्चस्व के लिए करता आ रहा है, और इसमें सफल भी रहा है। अतः उसके लिए यह आरोप लगाना बहुत आसान है। पसमांदा की तरक़्क़ी में सबसे बड़ी बाधा अशराफ ही बना हुआ है जो पसमांदा को धार्मिक और भावनात्मक बातो में उलझा कर उसको उसकी असल समस्यों, रोज़ी रोटी, समाजी बराबरी और सत्ता में हिस्सेदारी से दूर रखते हुए स्वयं को सत्ता के निकट रखना सुनिश्चित किये हुए है। इसलिए पसमांदा को इस धोखे से बाहर निकल कर सामाजिक न्याय की इस लड़ाई में अशराफ के विरुद्ध कमर कसकर खड़ा होना होगा।

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