न्यूटन फिल्म समीक्षा:- क्या सिर्फ वोट देना ही लोकतंत्र है ?

~ अब्दुल्लाह मंसूर

लोकसभा चुनाव, जो लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘पर्व’  है रहा है और इसी दौरान  एक रिपोर्ट आई है जो दिखा रही है कि लोगों की दिलचस्पी तो चुनाव में है, लेकिन धीरे धीरे ऑटोक्रेसी की तरफ लोगों का रुझान बढ़ रहा है। प्यू रिसर्च सेंटर ने लोकतंत्रिक देशों की राय जांची, जिसमें ऑथोरिटेरियनिज्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ता हुआ देखा जा सकता है. दरअसल प्यूरिसर्च सेंटर एक अमेरिकी थिंक टैंक, जिसने 24 लोकतांत्रिक देशों का एक सर्वे जारी किया है जिसमें उन्होंने ‘लोकतंत्र’ के सबसे पसंदीदा व्यवस्था होने के बावजूद ऑथोरिटेरियनिज्म या अधिनायकवाद के हावी होने की बात कही है.

भारत में भी एक ‘मजबूत नेता’ के समर्थन में भी वृद्धि देखी गई। इसके अलावा जो सबसे ज्यादा खटकने वाली बात इस रिपोर्ट में है, वह यह कि भारत ऑथोरिटेरियन सरकार (अधिनायकवादी सरकार, यानी वह शासन प्रणाली जिसमें सारी शक्तियां एक ही व्यक्ति के हाथ में केंद्रित रहती हैं) के लिए भारत उच्चतम स्तर के समर्थन वाले देश के रूप में सामने आया है. यहां सर्वे में शामिल 67% लोगों ने इसे एक अच्छी प्रणाली बताया. जब 2017 में यही सवाल प्यू ने इंडिया में पूछा था तो 55% लोगों ने ऐसा कहा था. यानी ऑथोरिटेरियन सरकार के लिए 7 सालों में सीधे-सीधे 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी भारत में देखी जा सकती है.

ऐसे में न्यूटन फिल्म की याद आती है जो बताती है कि जब लोकतंत्र के नारे खोखले निकल जाते हैं, सरकारें  बदलने से भी उनके हालात नही बदलते तो लोगों का विश्वास लोकतंत्र की व्यवस्था से ही उठ जाता है. जब सरकार चुनाव को सिर्फ इसलिए कराए ताकि ये दिखा सके कि किसी क्षेत्र विशेष पर अब उसका अधिकार है तब ऐसे में मन में एक सवाल उभरता है कि लोकतंत्र है क्या फिर ? क्या चुनाव , मंत्री , विधायिका , संसद ही लोकतंत्र है या स्वतंत्रता , समानता , न्याय , गरिमा , विरोध/असहमति का अधिकार जैसे आदर्श लोकतंत्र है . इसी बात की पड़ताल करती हुई फिल्म है “न्यूटन” जो इस बात को रेखांकित करती है कि सिर्फ डंडे और झंडे से देश नहीं बनता . जब तक लोकतंत्र का आदर्श अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुचता तब तक एक रष्ट्र के रूप में हम खुद को स्थापित नहीं कर सकते .

How people around the world see democrac

न्यूटन फिल्म नौसिखिए सरकारी अफसर की कहानी है जो छत्तीसगढ़ के एक दूरदराज के जंगल वाले मतदान केंद्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए दृढ़ संकल्पित है, जहां उसे पीठासीन अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया है। न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) भारत का युवा है जो एक दिन मे सब बदल देना चाहता है. वह अनुभवहीन और इतना मासूम है कि विरोधी आवाज़ों से चौक जाता है. फिल्म की शुरुआत एक राजनेता के शर्मनाक प्रचार से होती है, जो लोगों के कंधे से ऊपर उठकर एक वाहन पर खड़ा होता है. कुछ मिनट बाद, जैसे ही वह नेता प्रचार के लिए जंगल में चला जाता है , नक्सलियों का एक समूह उसे उसकी कार से बाहर निकाल कर गोली मार देते हैं। न्यूटन के घर में टेलीविजन स्क्रीन में  माओवादियों द्वारा की गई इस हिंसा की घटना की खबर से गूंज रही है, माओवादियों ने आगामी चुनावों के बहिष्कार की घोषणा की है. इस प्रकार फिल्म न्यूटन को  अपने नायक को इस संघर्ष की हिंसक वास्तविकता से दूर लेकिन मुख्यधारा के मीडिया के माध्यम से इसके बारे में प्रसारित जानकारी के एक सक्रिय उपभोक्ता के रूप में प्रस्तुत करती है।

फिल्म की कहानी  नूतन कुमार (राजकुमार राव) की है . जिसको अपना नाम पसंद नही था इसलिए वह नू को न्यू और तन को टन बना कर न्यूटन कुमार बन जाता है. ये गौर करने वाली बात है कि नूतन के नाम से कुछ महिलाएं इतनी लोकप्रिय हुयीं कि पुरुषों को यह नाम रखने में शर्म आने लगी थी . यहाँ ये बात भी गौर करने वाली है कि हिंदी सिनेमा में मुख्य किरदार के नाम हमेशा उच्च जातियों के नाम हुआ करते हैं .हिंदी सिनेमा की ब्राह्मणवादी- अशराफवादी सोच ही है जो दलित- पसमांदा नाम के किरदारों को जगह नहीं देती . आज भी भारत में कुछ दलित-पसमांदा जातियों का नाम गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है पर इस मिथ को तोड़ने की कभी कोशिश नहीं की जाती. यह फिल्म भी जाति के मुद्दे पर ऐसे ही मौन बनी रहती है.  फिल्म में स्पष्ट रूप से तो नहीं बताया गया है कि न्यूटन दलित है पर उसके घर में बाबा साहब की तस्वीर इस ओर इशरा करती है .निर्देशक मसूरकर का दलित नायक अपनी पहचान और इतिहास के बोझ से मुक्त है. जिस तरह से फिल्म हाशिये का सामना करना चाहती है उसमें विरोधाभास है. फिल्म में उनकी जाति की पहचान को प्रभावी ढंग से मिटा दिया गया है. फिल्म खुद को बहुजन फिल्म कहलाने से बचती है. न्यूटन एक आदर्शवादी और जिद्दी लड़का है जब उसको पता चलता है कि लड़की नाबालिग़ है तो वह रिश्ता तोड़ लेता है , इसपर उसके पिता जी नाराज़ हो के कहते हैं “ नौकरी लग गई तो दिमाग आसमान पे चला गया है कल कहोगे कि ठाकुर-ब्राह्मण की लड़की से शादी करूँगा “ . कितनी आसानी से यहाँ जाति और वर्ग के बिच अंतर को स्पष्ट कर दिया गया है . दलित भले ही सरकारी नौकरी पा कर अपनी आर्थिक स्थिति मज़बूत कर ले पर उसे अपने सामाजिक स्थिति से उठने के लिए अभी संघर्ष करना है .

फिल्म में न्यूटन कुमार को छत्तीसगढ़ में नक्सली प्रभावित सुदूर एक गांव में चुनाव अधिकारी बना कर भेजा जाता है .  न्यूटन के साथ लोकनाथ (रघुबीर यादव) भी होते हैं . यहाँ अभी तक चुनाव नहीं कराया गया था . नक्सली-ग्रस्त संघर्ष क्षेत्र में उस यात्रा पर उनके साथी वरिष्ठ पुलिसकर्मी आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी), एक स्थानीय बूथ स्तर के अधिकारी माल्कोनेताम (अंजलि पाटिल), इस क्षेत्र में हर कोई वोट देने से बहुत डरता है या बहुत संदेह करता है। छत्तीसगढ़ पहुंचने के बाद इनकी मुलाकात असिस्टंटकमान्डेंट आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी ) से होती है जो स्वभाव से कठोर और निराशावादी लगते हैं . उनके अंदर की जो खीज है वो बहुत ही स्वभाविक है . जो उनके लम्बे अनुभव से आई है इसी अनुभव के आधार पेवोन्यूटन कुमार से कहते हैं कि “मै लिख के दे सकता हूँ कि कोई नहीं आएगा वोट देने” . पर न्यूटन एक आदर्शवादी जिद्दी लड़का है.

चुनाव का प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षक संजय मिश्रा न्यूटन से पूछता है “क्या आप जानते हैं कि आपकी समस्या क्या है?”

न्यूटन  जवाब देता है: “मेरी ईमानदारी?”

“नहीं,” संजय मिश्रा  कहते हैं, “आपकी समस्या आपकी ईमानदारी पर आपका गर्व है।”

उनकी बात बिल्कुल सीधी है, जैसा कि वे आगे कहते हैं: इस बात पर ज्यादा ध्यान न दें कि आप कितने साफ-सुथरे हैं, बस अपना काम एक समय में एक कदम, एक दिन में एक बार करें और समय के साथ देश खुद ही अपनी देखभाल कर लेगा। अपने अहंकार को इस हद तक जुनूनी न होने दें, कि आप छोटी बूंदों से सागर बनने की पुरानी कहावत को भूल जाएं. यहाँ ये देखना भी दिलचस्प है कि सभी को न्यूटन की ईमानदारी से की जा रही ड्यूटी से दिक्कत है कि भाई इतनी भी क्या ईमानदारी करना ? एक सीन में संजय मिश्रा चुनाव अधिकारियों के लिए ब्रीफिंग करते हैं। वह कहते हैं , “हम यह सुनिश्चित करते हैं कि यहां चुनाव पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ हों, भले ही चुनकर संसद में भेजे गए लोग अपराधी और गुंडे ही क्यों न हों।” कितना सटीक और चुभती हुई बात कही है कि ईमानदारी से बईमान लोग चुने जाते हैं

न्यूटन तैय करता है कि चुनाव वहीँ होगा जहाँ तैय किया गया है . न्यूटन की मदद के लिए स्थानीय आदिवासी लड़की (जो टीचर है ) माल्को (अंजलि पाटिल) आती हैं जो बूथ लेवलआफीसर के रूप में ड्यूटी पर है . पर आत्मा सिंह को किसी भी स्थानीय पर यकीन नहीं है और न ही माल्को को अर्धसैनिक बल पे इसीलिए माल्को कहती है कि उसे ब्लूट प्रूफ जैकेट नहीं चाहिए . कहीं न कहीं यहाँ ये बात साफ़ होती है कि नक्सली स्थानीय निवासियों के वैसे दुश्मन नहीं है जैसे अर्धसैनिक बलों के हैं .

इस तरह इस फिल्म में  इसमें तीन पक्ष नजर आते हैं, पहला एक दिन के लिए चुनाव की ड्यूटी पर आया सरकारी कर्मचारी, दूसरा जंगल में रह रहे आदिवासी का और तीसरा वहां तैनात सुरक्षा बलों की टुकड़ी. पर न्यूटन के इलावा दोनों पक्ष इसी जंगल के हैं इसीलिए कोशिश की गई है कि फिल्म को इस तरह बनाया जाए कि दर्शक भी न्यूटन के साथ साथ ही नक्सल प्रभावित क्षेत्र को देखता है .पूरी फिल्म में कहीं भी हिंसा नहीं दिखाई गई है पर माहौल में एक तनाव है जिसे आप महसूस कर सकते हैं .

फिल्म की खासियत यह है कि यह किसी का पक्ष लिए बगैर सबका पक्ष रखती है . न्यूटन जब जले हुए गाँव देखता है तो पूछता है कि इसे किसने जलाया पर कोई जवाब नही मिलता फिर जब वह स्कूल के पीछे भारत और सैनिकों के खिलफ कुछ लिखा हुआ पड़ता है तो वह माल्को से कहता है कि ये नक्सलियों ने किया है न, माल्को बहुत ही सरलता से जवाब देती है कि जब तुम किसी का गाँव जलाओगे तो गुस्सा तो आयगा ही . न्यूटन को जो शोषण जो अत्याचार बेचैन कर रहा है मल्को उसे देखते हुए बड़ी हुई है.स्थानीय चुनाव अधिकारी माल्को को आत्मा सिंह बहुत संदेह की नजर से देखते हैं, जैसे सभी आदिवासी नक्सली हैं यहां तक ​​कि नौ साल के बच्चे भी जो पेड़ों के आसपास खेल रहे हैं. एक दृश्य है जहां सभी चुनाव अधिकारी स्पष्ट रूप से थके हुए और चिढ़े हुए हैं क्योंकि कोई भी वोट देने के लिए नहीं आ रहा है,

न्यूटन माल्को की ओर मुड़ता है और उससे पूछता है, “क्या तुम भी निराशवादी हो”

माल्को जवाब दिया: ” निराशावादी नहीं, मैं आदिवासी हूं” 

माल्को (अंजलि पाटिल)

न्यूटन ने आदिवासियों को मतदान प्रक्रिया समझाने का प्रयास करता है। वह उनसे कहता हैं कि उनके वोट दिल्ली जाएंगे जहां उनका इस्तेमाल एक प्रतिनिधि नेता चुनने के लिए किया जाएगा. एक बूढ़ा, कमजोर दिखने वाला आदमी  खड़ा होता है. वह कहता है कि वह उनका नेता है और वे उसे दिल्ली भेज सकते हैं. माल्को न्यूटन को बताती है कि वे सूची में शामिल एक भी राजनेता से परिचित नहीं हैं. न्यूटन आदिवासियों से पूछता है कि वे क्या चाहते हैं, उनमें से एक आदिवासी व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है, “अगर हम वोट देते हैं, तो नक्सली नाराज़ हो जाते हैं, अगर हम वोट नहीं देते हैं, तो सेना नाराज़ हो जाती है”. जनता के एक हिस्से को पता नहीं कि कौन प्रत्याशी है , वोट क्यों देना है ? वोट देने से पैसे मिलेंगे क्या? वोट देने से उनकी जिंदगी में क्या बदलेगा आदि आदि ? विदेशी पत्रकार को दिखाने के लिए जबरदस्ती मतदाताओं को हाँक कर मतदान कराया जाता है और जब एक बार दिखावा खत्म हो जाता है तो भाड़ में जाएं चुनावी प्रक्रिया और नियम कानून ?

अब सवाल यह उठता है कि सेना का काम लोकतंत्र स्थापित करना है कि नहीं ? अगर सेना लोकतांत्र स्थापित कर पाती तो इराक-अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित हो पाता  इसलिए आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी ) को इस बात में कोई रूचि नहीं की चुनाव हो और निष्पक्ष चुनाव हो पर उसका काम आदेशों को मानना मात्र है जैसे ही ये खबर मिलती है कि कोई विदेशी पत्रकार डी.आई.जी साहब के साथ चुनाव बूथ का दौरा करने आ रही है तो आदिवासियों को महान भारतीय लोकतंत्र की इज्ज़त बचाने के लिए सेना द्रारा जबरन वोटिंग बूथ में लाया जाता है . आदिवासियों को अपने चुनाव प्रत्याशी तो दूर चुनाव का अर्थ भी नहीं पता है . ऐसे में चुनाव एक मज़ाक से ज्यादा कुछ और नज़र नहीं आता . पर हमारी मीडिया के लिए लोकतंत्र का मतलब ऊँगली में लगी चुनाव की सियाही मात्र है . मल्को न्यूटन से कहती है कि जंगल से थोड़ी ही दूर तुम शहर में रहते हो पर तुम्हे जंगल के बारे में कुछ नहीं पता. यही सचाई है इस देश की हमें मुख्यधारा का पक्ष तो बताया जाता है पर जंगल का पक्ष नहीं बताया जाता. आदिवासी सदियों से इन जंगल में रहते आए हैं ये उनका घर है, उनकी अपनी एक संस्कृति है, जीने का तरीका है. हमने उन्हें सभ्य बनाने के नाम पर उनके घरों पर कब्ज़ा कर लिया. उनके अराध्य माने जाने वाली पहाडियों का उत्खनन शुरू कर दिया. क्या देश हित में ‘राम सेतु‘ या कोई मस्जिद को हम तोड़ सकते हैं ? अगर विकास के आगे आस्था का मोल नहीं है तो बहुसंख्यको की आस्था के आगे सरकार और न्यायालय क्यों झुक जाया करती हैं ? सरकार बलप्रयोग से दंडकारण्य को मओवादियो मुक्त करा सकती है पर असली लड़ाई तब शुरू होगी जब जंगल में रहने वाले आदिवासियों को लोकतंत्र के आदर्शो से जोड़ने की बात की जाएगी. उन्हें मओवादियो की सर्वहारा-शक्ति के नारों में अपना भविष्य इसलिए दीखता है क्योंकि लोकतंत्र के नारे खोखले निकले . सरकारें आई और गई पर उनके हालत जस के तस रहे . अगर इस लोकतान्त्रिक तरीके से हमें इस समस्या का समाधान करना है तो हमें लोकतंत्र के आदर्श को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचना होगा.

यह एक ऐसी फिल्म है जो हमें आशा देने के लिए बनाई गई है. न्यूटन एक व्यावसायिक फिल्म नहीं है.इसमें भीड़ को खींचने और उन्हें एक महत्वाकांक्षी नायक के लिए जयकार कराने का कोई दिखावा नहीं है. इस फिल्म के एक गीत के शब्दों में (संगीत: नरेनचंदावरकर और बेनेडिक्टटेलर, गीत: वरुण ग्रोवर): “ मंज़िल दूर थी / धीमी चाल थी / उड़ती धूल में / आँखें लाल थी / चलते-चलते खुद रास्ता मुड़ गया / तुझको देख के पंछी उड़ गया ।” नायक न्यूटन उस निराश और हताश व्यवस्था से लड़कर उस आदिवासी क्षेत्र में चुनावी कर्मकांड जैसे तैसे पूरा करने में सफल होता है लेकिन अंत में परिणाम – वही ‘ढाक के तीन पात ‘ चुनाव के 6 महीने बाद उस आदिवासी क्षेत्र में खनन पूरे उफान पर है और नायक न्यूटनआफिस के रूटीन में लग गया है |

बस आशा की किरण यही है कि नायक न्यूटन अपनी ऑफिस में बैठकर अभी भी निराश नहीं है. कोई भी छत्तीसगढ़ के जंगलों में ‘विकास’ और ‘प्रगति’ के लिए हो रही जमीन हड़पने के बारे में पढ़ता है और फिर भी, हमें आश्चर्य नहीं होता कि यह ‘विकास’ और ‘प्रगति’ किसके लिए है. हम सैन्यीकरण की बढ़ती उपस्थिति के बारे में बहुत कम सोचते हैं, और क्या यह संघर्ष को संबोधित करने का ‘सही’ तरीका है.

दलित,पसमांदा और आदिवासी वर्गों के पास लोकतांत्र से अच्छा कोई विकल्प नहीं है. हमारा नारा था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ इस नारे को वस्विकता में सिर्फ लोकतंत्र द्वारा ही पूरा किया जा सकता है. लोकतंत्र ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा दलित,पसमांदा और आदिवासी खुद को राष्ट्र निर्माण में लगा सकते हैं खुद को राष्ट्र समझ सकते हैं. यदि लोकतंत्र कमज़ोर रहा तो उनके मन मे पृथक अस्तित्व की भावना सदा बनी रह सकती है. अगर आज लोकतंत्र से हमारी दूरी बड़ी है तो इसका ज़िम्मेदार कौन है? लोकतंत्र कमज़ोर होने से वह कौनसा वर्ग है जो लाभांवित होगा?

डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा, ‘भारतीयों को मात्र गणतंत्र से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक जनतंत्र को एक सामाजिक जनतंत्र बनाना चाहिए। राजनीतिक जनतंत्र अधिक दिनों तक आगे नहीं बढ़ सकता, यदि उसका आधार सामाजिक जनतंत्र नहीं है। डॉक्टर अम्बेडकर यह भी मानते थे कि मानव व्यक्तित्य के निर्माण में स्वतंत्रता की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है और अपने को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करता है। स्वतंत्रता के माध्यम से ही व्यक्ति के अन्दर प्रतिभाएं जागृत होती है और वह अपने भाग्य का निर्माण भी करता है। वे आगे कहते हैं कि ‘समानता आदमी को आदमी, समूह को समूह और समुदाय को समुदाय के साथ बांधती है। जो स्वतंत्रता और समानता के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करते हैं, जहां लोग उनके व्यवहार से लाभान्वित हो सकें। अम्बेडकर ने भ्रातृत्व का अर्थ बताते हुए स्पष्ट किया कि भारतीयों के बीच एक सामान्य भाईचारे की भावना है. सभी भारतीय एक राष्ट्र है। Dr अम्बेडकर के प्रजातंत्र में मुख्य आधार व्यक्ति, उसकी स्वतंत्रता तथा उसके सम्मान में अटूट आस्था को परिलक्षित करना है और यह तभी संभव हो सकता है जब राज्य ऐसी परिस्थितियां तैयार करे, जिससे सब लोगों का विकास हो सके. समाज का मूल उ‌द्देश्य सामाजिक न्याय अर्थात् सामान्य जन-कल्याण है और राज्य का कार्य इसे व्यावहारिक जगत में अवतरति करना है. समाज और राज्य में सामंजस्य मानवता के हित में है.

लेखक, पसमांदाएक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtubeचैनल PasmandaDEMOcracyके संचालक भी हैं।