Author: Arif Aziz

सवर्ण केंद्रित नारीवाद बनाम बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श

भारतीय नारीवाद में अक्सर सवर्ण, शहरी महिलाओं की आवाज़ हावी रहती है, जबकि दलित, आदिवासी और पसमांदा औरतों की हकीकतें हाशिए पर धकेल दी जाती हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास *‘कुठाँव’* मुस्लिम समाज में जाति, वर्ग और लिंग आधारित भेदभाव को उजागर करता है। बहुजन स्त्रियाँ नारीवाद को अपनी ज़मीनी ज़रूरतों—इज़्ज़त, शिक्षा, सुरक्षा और अस्तित्व—के संघर्ष से परिभाषित करती हैं। पायल तडवी की आत्महत्या जैसी घटनाएँ इस असमानता को उजागर करती हैं। लेख समावेशी और न्यायसंगत स्त्री विमर्श की वकालत करता है, जो हर महिला की पहचान, अनुभव और संघर्ष को जगह देता है—सिर्फ़ “चॉइस” नहीं, “इंसाफ़” की लड़ाई के साथ।

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बिहार से भारत तक: अब्दुल क़य्यूम अंसारी को भारत रत्न देने का समय

शहनवाज़ अहमद अंसारी उन्होंने बंटवारे का विरोध सत्ता के लिए नहीं, सिद्धांतों के लिए किया।उन्होंने...

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हज: आस्था, एकता और बराबरी की एक रूहानी यात्रा

**सारांश (100 शब्दों में):**

हज इस्लाम के पाँच स्तंभों में से एक है, लेकिन यह सिर्फ़ धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि इंसानियत, बराबरी और एकता का प्रतीक है। हर साल लाखों मुसलमान एक जैसी पोशाक में, नस्ल, हैसियत और ज़ुबान से ऊपर उठकर इबादत करते हैं। तवाफ़, सई और अराफात जैसे अमल आत्मसमर्पण, इतिहास और आत्ममंथन का संदेश देते हैं। यह सफ़र सब्र, नम्रता और दूसरों की फिक्र सिखाता है। मैल्कम एक्स जैसे लोगों ने हज के ज़रिए नस्लभेद के खिलाफ नई सोच पाई। हज सिखाता है कि असली पहचान किरदार और नियत में है। यह पूरी इंसानियत को बराबरी और भाईचारे का पैग़ाम देता है।

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