Author: pasmanda_admin

शहर छोड़ने वाले मजदूरों को पीसने के लिए तैयार है गांव की जातिवादी चक्की

किताब में गाँव को पढ़ने और जानने वालों के लिए गाँव एक ‘स्वर्ग’ है। यह ‘इंद्रलोक’ के सामान है। यह “सद्भाव” और “सहयोग” का संगम है। यह भारत की “आत्मा” है। यह “पश्चिमी सभ्यता” और “मैटेरियलिज़म” का सही विकल्प है। फिर गाँव को “शांति” और “सुख” का पर्यायवाची कहा गया। यह ग़लतफ़ह़मी दरअसल उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने फ़ैलाया। लंदन में पढ़े और फिर धोती-धारण करने वाले एक ‘फक़ीर’ ने इसे क़ौमी तह़रीक में सच बताकर प्रचारित किया। इसका इस्तेमाल देशी बनाम विदेशी और राष्ट्रीयता बनाम साम्राज्यवाद की राजनीति के तहत किया गया।

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जोजो रैबिट: अंधभक्तों का आईना

जोजो रैबिट फ़िल्म के साथ एक बहस भी चल रही है कि क्या त्रासदी पर कॉमेडी बनाई जा सकती है। मेरा जवाब है आपको किसी भी रचना को इस तरह देखना होगा कि उसका End result क्या है! क्या जोजो रैबिट हम को सिर्फ़ हंसाती है या वह हंसाते हुए हम को विषय की गम्भीरता से परिचित भी करवाती है! फ़िल्म हमें 10 साल के बच्चे के ज़रिए हमें नाज़ी विचारधारा को समझने और समझाने में मदद करती है। हम यह समझ पाने में कामयाब होते हैं कि कैसे नफ़रत भरा प्रोपेगैंडा जोजो जैसे मासूम दिल को भी दूषित कर सकता है। फ़िल्म हमें समझाती है कि जब हम किसी विचारधारा के वर्चस्व में होते हैं तब वह विचारधारा हमारे लिए हमारा ‘विश्वास तंत्र’ बन जाता है। हम कुछ भी ऐसे न देखना चाहते हैं और न सुन्ना जो हमें अपने विश्वास तंत्र से अलग नज़र आता है। इसे ही ‘पोस्ट-ट्रुथ’ कहा जाता है। अंधभक्त तर्कों और तथ्यों को इसलिए नकार देते हैं क्योंकि वह तर्क और तथ्य उनके विश्वास, उनकी भवनाओं से मेल नही खाते। हमें ऐसे लोगों के पागलपन को कम करके नहीं आंकना चाहिए, जिन समझदारों ने हिटलर के उदय को मामूली घटना समझा था। उन लोगों ने इतिहास की एक बड़ी त्रासदी को अपने सामने होते देखा। जोजो रैबिट George Carlin के शब्दों में हमें सबक़ देती है कि Never underestimate the power of stupid people in large groups. [ मूर्खो-अंधभक्तों की बड़ी संख्या वाले समूहों की शक्ति को कम करके नहीं आंकना चाहिए।]

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