शनिवार, 4 अक्टूबर 2023 को हमास ने इजराइल के ख़िलाफ़ ‘अल-अक़्सा स्टॉर्म’ अभियान छेड़ दिया। हमास की इस कार्यवाही ने किसी भी प्रकार से फिलिस्तीन का भला नहीं किया है। हमास को पहले से पता था कि वे एक ऐसा युद्ध छेड़ रहे हैं जिसमें वे हार जाएंगे और उनके इस कृत्य की सज़ा मासूम फ़िलिस्तीनियों को चुकानी होगी। दो महीनों में मरने वालों की संख्या सात गुना से अधिक बढ़ गई है। 17 दिसंबर तक 19,000 से अधिक फिलिस्तीनी, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे, इजरायली सैनिकों द्वारा मारे गए हैं। अब यह संख्या 24,000 से ज़्यादा हो चुकी है। फिर यह सवाल तो बनता ही है कि आखिर इस हमले से लाभ क्या हुआ? इसे समझने से पहले इस क्षेत्र का इतिहास समझते हैं।

इज़राइल का इतिहास

फिलिस्तीन का विवाद उतना ही पुराना है जितना इन धर्मों का इतिहास है। फिर भी, अगर इस विवाद को संक्षिप्त रूप में समझने की कोशिश करें तो इसकी शुरुआत 19वीं शताब्दी से करनी होगी। 19वीं सदी के दौरान, जब एंटी-सेमेटिक विचार यहूदियों के नरसंहार का कारण बन रहे थे, ठीक उसी वक्त यह विचार भी पैदा हुआ कि यहूदी “Land Without a People”

19वीं सदी में, एक ऑस्ट्रो-हंगेरियन यहूदी पत्रकार थियोडोर हर्ज़ल ने यहूदियों के लिए फिलिस्तीन में एक यहूदी मातृभूमि के विचार का प्रचार किया। 1897 में थियोडोर हर्ज़ल ने स्विट्ज़रलैंड के बेसल में पहले ज़ायोनिस्ट कांग्रेस का आयोजन किया, जिसमें यहूदियों के लिए एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना के लिए औपचारिक ज़ायोनिस्ट आंदोलन की नींव रखी गई। इस विचार को ज़ायोनिज़्म के नाम से जाना गया। ऐतिहासिक रूप से यह बात सही नहीं थी क्योंकि यहूदी पहले से ही फिलिस्तीन में रह रहे थे। 19वीं सदी में, इज़राइल/फिलिस्तीन क्षेत्र में लगभग 87% मुस्लिम, 10% ईसाई और 3% यहूदी जनसंख्या थी। यहाँ इस बात को समझना आवश्यक है कि ज़ायोनिज़्म एक राजनीतिक और राष्ट्रवादी विचारधारा है जो 19वीं सदी के अंत में उभरी। इस विचारधारा में धर्मनिरपेक्ष से लेकर धार्मिक और वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी तक कई प्रकार की विचारधाराएँ शामिल हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध से पहले, 1917 की बाल्फोर घोषणा में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में “यहूदी लोगों के लिए राष्ट्र” की स्थापना के लिए समर्थन व्यक्त किया। याद रहे उस वक्त फिलिस्तीन ब्रिटेन का उपनिवेश ही था। 1920 में, प्रथम विश्व युद्ध के बाद, लीग ऑफ़ नेशंस ने ब्रिटेन को फिलिस्तीन पर शासन करने का मांडेट दिया। इस मांडेट का उद्देश्य क्षेत्र में यहूदी और अरब दोनों की राजनीतिक और राष्ट्रीय आकांक्षाओं को संतुलित करना था, लेकिन यह अक्सर विवादों और संघर्षों का स्रोत बना रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों के नरसंहार की भयावहता के कारण बच गए यहूदी लोगों के प्रति अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति बढ़ गई। मातृभूमि की मांग के कारण यहूदियों का इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में आगमन हुआ। इस घटना को “आलियाह” कहा जाता है। आलियाह इजरायल में यहूदी आप्रवासन के लिए हिब्रू शब्द है। इसका उपयोग अक्सर यहूदियों द्वारा अन्य देशों से इजरायल जाकर स्थायी रूप से बसने के वर्णन के लिए किया जाता है।

बड़ी संख्या में यहूदियों के आने से जब तनाव बढ़ गया तो अंग्रेजों ने समस्या को नवस्थापित संयुक्त राष्ट्र को सौंप दिया। 1947 में, संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को विभाजित करके अलग फिलिस्तीनी और यहूदी राज्यों की स्थापना करने के लिए मतदान किया। इस योजना को अरबों ने अस्वीकार कर दिया।

14 मई, 1948 को यहूदी एजेंसी के प्रमुख डेविड बेन-गुरियन ने इजरायल राज्य की स्थापना की घोषणा की, जिसके बाद से तनाव बढ़ गया। 1948: इज़राइल की स्थापना के तुरंत बाद, पांच अरब देशों – मिस्र, जोर्डन, इराक, सीरिया, और लेबनान ने नवगठित इज़राइल पर हमला कर दिया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप 700,000 से अधिक फिलिस्तीनियों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा। 1948 का युद्ध, 1967 में छह दिवसीय युद्ध, 1973 में योम किप्पुर युद्ध, 1987 में पहला फ़िलिस्तीनी इंतिफ़ादा, 2000 में दूसरा फ़िलिस्तीनी इंतिफ़ादा, प्रथम लेबनान युद्ध (6 जून 1982 – 5 जून 1985), दूसरा लेबनान युद्ध 2006, इस तरह आज तक यह क्षेत्र तनाव से घिरा हुआ है।

इजरायल खुद को “डेविड और गोलियथ” के मिथक से जोड़ता है। मिथक की उत्पत्ति डेविड की बाइबिल कहानी से हुई है, जो एक युवा चरवाहा था जिसने अपने गोफन के एक ही पत्थर से विशाल योद्धा गोलियथ को हरा दिया था। हास्यास्पद है कि फिलिस्तीन की 80% भूमि के साथ, उन्नत हथियार, एक उच्च प्रशिक्षित सेना और मजबूत अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ भी इजरायल खुद को कमज़ोर चरवाहा साबित करने में सफल रहा है क्योंकि उसके पास अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का समर्थन है, इसीलिए आईडीएफ द्वारा कथित मानवाधिकारों के हनन और अंतर्राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन की घटनाओं को नजरअंदाज किया जाता रहा है। आज भी इस युद्ध की रिपोर्टिंग गाज़ा से नहीं, तेल अवीव से हो रही है।

गाज़ा में हमास

गाज़ा में अमानवीय स्थितियां लंबे समय से चली आ रही हैं। यह आज के युद्ध का परिणाम नहीं है। गाज़ा 2007 से मुख्य रूप से इज़राइल और मिस्र द्वारा नाकाबंदी के अधीन है। यह नाकाबंदी गाज़ा के अंदर और बाहर लोगों, वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही को प्रतिबंधित करती है। चेक पोस्ट पर क्या गाज़ा में जाएगा, इससे लंबी सूची इस बात की होती है कि गाज़ा में क्या नहीं जाएगा। जैसे घर बनाने के लिए सीमेंट, बहुत सी दवाएं, किसी मरीज़ का इलाज करने के लिए इज़राइल से पर्मीट लेना पड़ता है। इस नाकेबंदी से इस क्षेत्र के लोगों की आवश्यक संसाधनों तक पहुंच सीमित हो जाती है। गाज़ा दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है, जहां एक छोटे से क्षेत्र में 2 मिलियन से अधिक लोग रहते हैं। यह भीड़भाड़ बुनियादी ढांचे, आवास और बुनियादी सेवाओं पर अत्यधिक दबाव डालती है। गाज़ा में बार-बार बिजली कटौती एक दैनिक वास्तविकता है। वर्षों के संघर्ष, अस्थिरता और प्रतिबंधित जीवन स्थितियों ने आबादी के मानसिक स्वास्थ्य पर, विशेषकर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। नाकेबंदी के कारण गाज़ा पट्टी में बेरोजगारी और गरीबी का सामना करना पड़ता है। गाजा में बेरोजगारी दर विश्व में सबसे अधिक है, जो कि 50% से भी अधिक है। इसके अलावा, गाज़ा की अर्थव्यवस्था लगभग पूरी तरह से सहायता पर निर्भर है और वहां की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है। यह बात सर्वविदित है कि जहाँ मानवाधिकारों का हनन होता है वहाँ हिंसा का जन्म होता है।

फिलिस्तीनियों का तर्क है कि उन्हें आत्मरक्षा का अधिकार है। अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत, राष्ट्रों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को आत्मरक्षा का अधिकार है। यह अधिकार संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 में निहित है। यह सशस्त्र हमले के जवाब में बल प्रयोग की अनुमति देता है। पर हमास जैसे कुछ फिलिस्तीनी समूहों द्वारा हिंसा का उपयोग, जैसे आत्मघाती बम विस्फोट या इजरायली नागरिकों को निशाना बनाने वाले रॉकेट हमलों की कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा आतंकवाद के रूप में व्यापक रूप से निंदा की गई है। जिसे आतंकवाद कहा जाता है वह ‘स्वीकृत हिंसा’ के दायरे में नहीं आता। पर दिलचस्प बात यह है कि इस ‘अस्वीकृत हिंसा’ जिसे आतंकवाद की श्रेणी में रखा गया है और ‘स्वीकृत हिंसा’ जिसमें सरकार चाहे तो किसी भी प्रकार का दमन कर सकती है, के बीच विभाजक रेखा बेहद झीनी है। एक व्यक्ति की हत्या आतंकवाद कहा जा सकता है और एक लाख लोगों की हत्या को युद्ध।

हमास की स्थापना 1980 के दशक के अंत में प्रथम इंतिफादा के दौरान हुई थी, जो कि इजरायली कब्जे के खिलाफ एक फिलिस्तीनी विद्रोह था। यह एक जमीनी स्तर के आंदोलन के रूप में उभरा और इसे विशेष रूप से गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक में समर्थन मिला। 2006 में, हमास ने फिलिस्तीनी विधान परिषद चुनावों में बहुमत हासिल किया, जिससे गाज़ा पट्टी पर उसका शासन स्थापित हो गया। इससे गाज़ा पर नियंत्रण रखने वाले हमास और वेस्ट बैंक में नियंत्रण बनाए रखने वाले फिलिस्तीनी प्राधिकरण (फतह) के बीच विभाजन हो गया। 2006 में शुरू हुई लड़ाई में हमास ने 2007 में फतह (पीएलओ को नियंत्रित करने वाला राजनीतिक समूह) को हराया था। हमास का प्रमुख उद्देश्य इज़राइल के अस्तित्व को समाप्त करना और एक इस्लामी राज्य की स्थापना करना है। यह संगठन फिलिस्तीन के सभी हिस्सों पर इस्लामी शासन की स्थापना की वकालत करता है।

हमास (जिसे कई लोग आतंकवादी समूह मानते हैं) 2008, 2012 और 2014 में विशेष रूप से महत्वपूर्ण लड़ाइयों के साथ इज़राइल के साथ लड़ रहा है। 2008-09 का गाजा युद्ध, जिसे “ऑपरेशन कास्ट लीड” के नाम से जाना जाता है, में इज़राइल ने गाजा पर बड़े पैमाने पर हमला किया था। इस युद्ध का प्रमुख उद्देश्य हमास द्वारा इज़राइल पर रॉकेट हमलों को रोकना था। इस युद्ध में 1,400 से अधिक फिलिस्तीनी और 13 इज़राइली मारे गए थे। 2014 में इज़राइल-हमास संघर्ष, जिसे “ऑपरेशन प्रोटेक्टिव एज” के नाम से भी जाना जाता है, में 2,000 से अधिक फिलिस्तीनी और 70 इज़राइली मारे गए थे। इस युद्ध के परिणामस्वरूप गाजा में बड़े पैमाने पर विनाश हुआ और हजारों लोग विस्थापित हुए।

हमास को ईरान से वित्तीय और सैन्य समर्थन प्राप्त होता रहा है। ईरान हमास को हथियार, धन और प्रशिक्षण प्रदान करता है, जिससे उसे इज़राइल के खिलाफ संघर्ष करने में मदद मिलती है। हमास का हालिया हमला इजरायल के साथ शांति समझौते की मांग करने वाले अरब देशों की बढ़ती प्रवृत्ति से प्रभावित हो सकता है, जिसका उदाहरण 2020 अब्राहम समझौते हैं, जिसमें संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान और मोरक्को शामिल हैं। ऐसी अटकलें भी हैं कि सऊदी अरब इज़रायल के साथ शांति समझौते पर विचार कर रहा है। ऐसे में अरब देशों की इज़रायल से नजदीकियां घटेंगी और हमास और फिलिस्तीनियों के प्रति सहानुभूति बढ़ेगी।

लेही और इरगुन: इज़राइल के आतंकवादी संगठन जिन्हें भुला दिया गया

अब लोगों को याद भी नहीं होगा कि इरगुन नाम का एक आतंकवादी संगठन इज़राइल के बनने से पहले काम करता था। जिसे आधिकारिक तौर पर इरगुन ज़वई लेउमी के नाम से जाना जाता है, यह 1931 से 1948 तक सक्रिय था। इसका लक्ष्य फ़िलिस्तीन में एक यहूदी राज्य की स्थापना करना था। यह ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध में शामिल होने और बमबारी और हमलों सहित अपने विवादास्पद कार्यों के लिए जाना जाता था, जैसे फिलिस्तीनी बस्तियों को खाली कराकर यहूदी सेटलमेंट बनाना।

1946 में यरूशलेम में किंग डेविड होटल पर बमबारी हुई, जिसमें कई फिलिस्तीनी और ब्रिटिश नागरिकों की मौत हुई। यह घटना उस समय की 9/11 जैसी घटना थी। इरगुन के सदस्य खुद को स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में देखते थे, पर ब्रिटिश अधिकारियों और अन्य लोगों द्वारा उन्हें आतंकवादी ही माना जाता था। इरगुन ने एक और बड़ी आतंकवादी घटना 9 अप्रैल 1948 को अंजाम दी, जब उन्होंने फिलिस्तीनी अरब गांव ‘दीर यासीन’ पर हमला किया। हमले का मकसद इस क्षेत्र में यहूदी बस्तियाँ बसाना था। हमला इतना भयावह था कि फिलिस्तीनी अपने घरों को ताला लगाकर जान बचाकर भागे। इस जबरन विस्थापन और बेदखली को “नकबा” कहा जाता है, जिसका अरबी में अर्थ है “तबाही“। 1948 में इज़राइल राज्य की स्थापना के बाद, मेनकेम बेगिन, जो इरगुन के एक प्रमुख नेता थे, एक अर्धसैनिक नेता से एक राजनीतिक नेता बन गए। उन्होंने हेरुट नामक राजनीतिक दल की स्थापना की, जो इरगुन की विचारधारा और लक्ष्यों से जुड़ा था। हेरुट का बाद में लिकुड पार्टी में विलय हो गया। इज़राइल में बेगिन का राजनीतिक करियर महत्वपूर्ण था, और वह 1977 में इज़राइल के प्रधान मंत्री बने। उन्होंने 1983 तक प्रधान मंत्री के रूप में कार्य किया।

“लेही” का पूरा नाम “लोहामेई हेरुट इज़राइल” है, जिसका अंग्रेजी में अनुवाद “फाइटर्स फॉर द फ्रीडम ऑफ इज़राइल” है। इस संगठन ने बैरन मोयने, जिन्हें वाल्टर गिनीज के नाम से भी जाना जाता है, की हत्या की थी। बैरन मोयने ने इज़राइल की स्थापना में ब्रिटिश नीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मध्य पूर्व में रेजिडेंट ब्रिटिश मंत्री के रूप में, वह फिलिस्तीन में ब्रिटिश नीतियों को आकार देने में शामिल थे। वह यहूदियों के हमदर्द थे और व्यवस्थित रूप से इज़राइल राज्य की स्थापना करना चाहते थे। हर साल कितने यहूदी फिलिस्तीन आकर बसेंगे, इस पर बैरन मोयने नियंत्रण रख रहे थे। यही बात ज़ायोनिस्ट आतंकवादियों को बुरी लगी। यह संगठन फिलिस्तीन के विनाश में ही इज़राइल का विकास देख रहे थे। लेही के दो आतंकवादियों, एलियाहू बेट-ज़ुरी और एलियाहू हकीम ने बैरन मोयने की हत्या कर दी। एलियाहू बेट-ज़ुरी और एलियाहू हकीम को सज़ा-ए-मौत दे दी गई, पर 1975 में मरणोपरांत उन्हें “इज़राइल के हीरो” के रूप में अलंकृत किया गया। यह पुरस्कार इज़राइली सरकार द्वारा लॉर्ड मोयने की हत्या में उनके कार्यों को मान्यता देने के लिए दिया गया था, जिसे उन्होंने इज़राइली स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में देखा। इज़राइल के गठन के बाद, लोहामेई हेरुत इज़राइल (लेही) के कई सदस्य नवगठित इज़राइल रक्षा बलों (आईडीएफ) या अन्य सरकारी संस्थानों में शामिल हो गए। कुछ सदस्य राजनीतिक दलों में शामिल होकर सरकार चलाने लगे।

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में इज़राइल के खिलाफ नरसंहार का आरोप

नरसंहार ऐसी स्थिति नहीं है जो रातोंरात या बिना किसी चेतावनी के घटित हो जाए। नरसंहार के लिए एक संगठन की आवश्यकता होती है और यह वास्तव में एक सोची-समझी रणनीति होती है। यह रणनीति प्रायः सरकारों या राज्य तंत्र को नियंत्रित करने वाले समूहों द्वारा अपनाई जाती है। नरसंहार की परिभाषा को स्थापित करने में 1948 का “जनसंहार कन्वेंशन” महत्वपूर्ण था, जिसे वानसे सम्मेलन के बाद अपनाया गया था। इसे ऐसे समझें कि क्या हिटलर ने होलोकॉस्ट सत्ता में आते ही शुरू कर दिया था? कोई भी जनसंहार तुरंत शुरू नहीं होता, उसके लिए माहौल तैयार किया जाता है, जैसा कि हमने रवांडा और टुल्सा जनसंहार में देखा था। यहूदियों का जनसंहार भी तुरंत शुरू नहीं हुआ था। इस जनसंहार की भूमिका कई दशकों से तैयार हो रही थी। हिटलर ने बस उसे अमली जामा पहनाया था। हिटलर ने किस तरह होलोकॉस्ट को अंजाम दिया, इसे समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि होलोकॉस्ट शुरू होने से पहले बनाए गए तमाम एंटी-सेमेटिक क़ानूनों को देखा जाए। अध्ययन करने पर आप पाते हैं कि हिटलर ने बड़े सिलसिलेवार ढंग से यहूदियों के मुकम्मल दमन के इरादे को अंजाम दिया।

हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी शासन ने यहूदियों के खिलाफ नरसंहार की एक विस्तृत और संगठित योजना को लागू किया, जिसे “आख़िरी समाधान” (Final Solution) कहा जाता था। नाज़ी अधिकारियों ने यहूदियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण क़ानून बनाए, जैसे 1935 का नूर्नबर्ग क़ानून जो यहूदियों को नागरिक अधिकारों से वंचित करता था। इसके बाद, 1938 में क्रिस्टल नाइट (Kristallnacht) की घटना हुई, जिसमें यहूदी व्यापारों को लूटा गया और सैकड़ों यहूदियों को गिरफ्तार किया गया। इसके अलावा, नाज़ी शासन ने बड़े पैमाने पर यहूदी नरसंहार के लिए अत्यधिक कुशलता से तैयार किए गए औद्योगिक कंसंट्रेशन कैम्प और गैस चैंबरों का इस्तेमाल किया। इस पूरे नरसंहार की योजना और उसके कार्यान्वयन ने साबित कर दिया कि जनसंहार की अवधारणा एक योजनाबद्ध और सामूहिक रूप से की गई कार्यवाही है।

हिटलर के बाद, द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) की स्थापना की गई, जो युद्ध अपराधों और जनसंहार जैसे मामलों की जांच करती है। हेग, नीदरलैंड में स्थापित यह अदालत संयुक्त राष्ट्र (UN) की सर्वोच्च अदालत है। वर्तमान में, ICJ में इज़राइल के खिलाफ नरसंहार के आरोपों की जांच की जा रही है। यह कदम दक्षिण अफ़्रीकी सरकार द्वारा इज़राइल पर गाजा में फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ “नरसंहार करने वाले” कृत्य करने का आरोप लगाने के बाद उठाया गया है। अदालत ने यह भी स्वीकृति दी है कि दक्षिण अफ्रीका को इज़राइल के खिलाफ यह दावा लाने का अधिकार है क्योंकि नरसंहार कन्वेंशन के पक्षकार सभी देशों का नरसंहार की रोकथाम, दमन और सज़ा सुनिश्चित करने में साझा हित है।

Genocide case against Israel

संयुक्त राष्ट्र (UN) के अनुसार, नरसंहार एक ऐसा विनाश है जो किसी जातीय, नस्लीय, धार्मिक या राष्ट्रीय समूह को मंशापूर्ण और व्यवस्थित तरीके से नष्ट करता है। इसमें सामूहिक हत्या, जबरन स्थानांतरण और कठोर जीवन दशाएँ शामिल हो सकती हैं, जो व्यापक रूप से मृत्यु का कारण बनती हैं। संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार, नरसंहार के अपराध में मानसिक तत्व और भौतिक तत्व शामिल होते हैं। मानसिक तत्व में राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह के पूर्ण या आंशिक नष्ट करने की मंशा शामिल है, जबकि भौतिक तत्व में समूह के सदस्यों की हत्या, गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति, और समूहों पर ऐसी जीवन दशा थोपना भी शामिल है जो व्यवस्थित तरीके से उस समूह को मृत्यु के करीब ले जाए।

गाज़ा में इज़राइली सेनाओं द्वारा बड़ी संख्या में फिलिस्तीनियों, विशेषकर बच्चों की हत्या, उनके घरों का विनाश, उनका निष्कासन और विस्थापन हो रहा है। इसमें गाज़ा पट्टी में भोजन, जल एवं चिकित्सा सहायता पर नाकाबंदी लागू करना, गर्भवती महिलाओं एवं शिशुओं के लिए आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं को नष्ट करना, और शारीरिक व मानसिक पीड़ा पहुँचाना शामिल है। इन गतिविधियों को नरसंहार के दायरे में रखा जा सकता है।

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अध्यक्ष जोन ई. डोनॉग्यू ने कहा, “अदालत इस क्षेत्र में सामने आ रही मानवीय त्रासदी की सीमा से भली-भांति परिचित है और जीवन की निरंतर हानि और मानवीय पीड़ा के बारे में गहराई से चिंतित है।” दक्षिण अफ्रीका ने अदालत से कहा था कि वह इज़राइल से “गाजा में और उसके खिलाफ अपने सैन्य अभियानों को तुरंत निलंबित करने के लिए कहे।” हालांकि, अदालत ने दक्षिण अफ्रीका की याचिका को अस्वीकार कर दिया और युद्धविराम को लेकर कोई आदेश नहीं दिया। दक्षिण अफ्रीका ने ICJ से मांगा है कि ‘अनंतिम उपायों’ (provisional measures) का इस्तेमाल करके इज़राइल को गाज़ा पट्टी में अपराध से रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं। उनका तर्क है कि ‘जेनोसाइड कन्वेंशन’ के तहत फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनंतिम उपाय आवश्यक है।

यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि यहूदी विशेषकर इज़रायल राष्ट्र खुद को जनसंहार का विक्टिम बताते आया है, लेकिन अब उस पर जनसंहार करने का आरोप लगा है। भले ही इज़रायल अमेरिकी और अन्य यूरोपीय दोस्तों द्वारा बचा लिया जाए, फिर भी यह उसकी विक्टिमहुड की छवि को पूरी तरह बदल देगा।

भारत सरकार का पक्ष

भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लंबे समय तक इज़राइल के साथ किसी कूटनीतिक संबंध का संचयन नहीं किया, जिससे यह प्रकट होता है कि भारत फिलिस्तीन के पक्ष में था। हालांकि, 1992 में भारत ने औपचारिक रूप से इज़राइल के साथ संबंध स्थापित किए और अब ये संबंध रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो गए हैं। फिलिस्तीन की समस्याओं के प्रति भारत की सहानुभूति है और उसने फिलिस्तीनियों के साथ मित्रता बनाए रखी है, जो भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत ने फिलिस्तीन से संबंधित कई प्रस्तावों का समर्थन किया है, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र परिसर में फिलिस्तीनी ध्वज लगाने का समर्थन। भारत ने इज़राइल का भी समर्थन किया है और दोनों देशों के साथ अपनी संतुलित नीति बरकरार रखी है।

हाल ही में, 2023 में, जब आतंकी संगठन हमास द्वारा इज़राइल पर हमले किए गए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इज़राइल के साथ एकजुटता व्यक्त की थी। पीएम मोदी ने इसे ‘आतंकवादी हमला’ बताकर इसकी कड़ी निंदा की थी। उन्होंने कहा, “इज़राइल में आतंकवादी हमलों की खबर से गहरा सदमा लगा है। हमारी संवेदनाएं और प्रार्थनाएं निर्दोष पीड़ितों और उनके परिवारों के साथ हैं। इस कठिन घड़ी में हम इज़राइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं।”

आज जब इज़राइल पर जनसंहार का मामला दर्ज हुआ है, भारत इज़राइल से युद्धविराम करने और क्षेत्र में शांति बहाल करने की सिफारिश कर रहा है। तेल अवीव के लिए भारत का अटूट समर्थन भारत के सुरक्षा हितों पर आधारित है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत की मध्य पूर्व नीति में जो सबसे महत्वपूर्ण बदलाव आया है, वह है – क्षेत्रीय कूटनीति का धर्म से अलगाव। भारत सरकार यह समझती है कि फिलिस्तीन-इज़राइल का संघर्ष यहूदी-मुसलमान संघर्ष नहीं है।

2017 में भारतीय प्रधानमंत्री ने पहली बार इज़राइल का दौरा किया और 2018 में उन्होंने पहली बार फ़िलिस्तीन की आधिकारिक यात्रा की। भारत ने 2017 में एकतरफा मतदान करके पूरे यरूशलम को इज़राइल की राजधानी घोषित करने के प्रयास का खंडन किया। भारतीय नीति में स्पष्टता है – वह आतंकवाद की निंदा करता है, लेकिन अंधाधुंध प्रतिशोधात्मक बमबारी का समर्थन नहीं करता। इज़राइल-फ़िलिस्तीन संघर्ष पर भारत की आधिकारिक धारा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, और भारत दोनों देशों को अच्छे पड़ोसी के रूप में मानता है।

आगे का रास्ता क्या हो?

एक समाधान जिसे भारत सहित कई देश मानते हैं, वह यह है कि दो अलग और स्वतंत्र राज्यों का गठन हो—इज़राइल और फ़िलिस्तीन। इज़राइल तो पहले ही बन चुका है, इसलिए अब फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राज्य बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। अरब देश तब तक इज़राइल के अस्तित्व को मान्यता नहीं देंगे जब तक कि इस संघर्ष का उचित समाधान नहीं निकाला जाता। भारत, संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस जैसे अंतर्राष्ट्रीय अभिनेता बातचीत की सुविधा प्रदान कर सकते हैं और विवादों में मध्यस्थता करने में मदद कर सकते हैं। बातचीत का मुख्य लक्ष्य दोनों राज्यों की भौगोलिक सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना होना चाहिए।

संघर्ष के दौरान विस्थापित हुए फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों का मुद्दा एक जटिल और भावनात्मक समस्या है। इसके समाधान में वित्तीय मुआवजा, नए फ़िलिस्तीनी राज्य में पुनर्वास, या आपसी समझौते के अधीन शरणार्थियों को अपने पैतृक घरों में लौटने की अनुमति देना शामिल हो सकता है। एक स्थायी समाधान में नई यहूदी बस्तियों के निर्माण को रोकना और संभवतः कुछ मौजूदा बस्तियों को हटाना भी शामिल होगा, ताकि एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना की जा सके। इसके अलावा, बुनियादी ढांचे, शिक्षा और नौकरी के अवसरों में निवेश इज़राइल और फिलिस्तीन दोनों की आर्थिक स्थिरता में योगदान दे सकता है और दोनों पक्षों के बीच विश्वास निर्माण में सहायक हो सकता है।

दोनों राज्यों की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इज़राइल को आतंकवाद की रोकथाम की चिंता है, जबकि फिलिस्तीन को अपनी संप्रभुता और सुरक्षा की चिंता है। सुरक्षा उपायों में फिलिस्तीनी राज्य का विसैन्यीकरण, अंतर्राष्ट्रीय शांति सेना की मौजूदगी और संयुक्त सुरक्षा व्यवस्था शामिल हो सकती है। किसी भी दीर्घकालिक शांति समझौते पर पहुंचने के बाद, शांति स्थापित करने और बनाए रखने के लिए निरंतर और समर्पित प्रयासों की आवश्यकता होगी।

आतंक का स्रोत कुछ भी हो, युद्ध किसी भी पक्ष द्वारा शुरू किया गया हो या किस देश और संगठन को कितना समर्थन प्राप्त है, ये सारी बातें बेबुनियाद लगती हैं जब इंसानियत सिसक रही हो। यह बहुत आसान है कि मीडिया एक देश का पक्ष ले ले, इतिहास की घटनाओं को गिनवाकर सही और गलत का निर्धारण कर ले। लेकिन बम और गोलाबारी में अनाथ होते बच्चे और जवाबी कार्रवाई में होने वाले जुल्म को सही और गलत से परे देखा जाना चाहिए। उनकी जिंदगी अब रोज की एक नई आज़माइश है और उनके सवालों का कोई भी जवाब नहीं देना चाहता। क्या हम कभी एक जमीन के टुकड़े पर रहने वालों की भूख और तकलीफ पर बात करने लायक हो सकेंगे, इस सवाल को किनारे कर के कि वह जमीन किसके हक में जाना चाहिए? वैश्विक पटल पर इन घटनाओं को खबर की तरह न देखकर, सबक की तरह लेना चाहिए और समाधान के रूप में इंसानी मूल्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए। दोनों ही तरह के आतंकवाद को खारिज करना चाहिए और एक स्थायी शांति की दिशा में प्रयास करना चाहिए।

अब्दुल्लाह मंसूर
लेखक, पसमांदा एक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।