डा० फैयाज अहमद फैज़ी
लोकसभा 2024 के चुनाव ने इस बार बहुचर्चित मुद्दा मुस्लिम आरक्षण था। कोई सारे मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कर रहा था तो कोई सारे मुसलमानों के आरक्षण को खत्म करने की बात कर रहा था। मुस्लिम आरक्षण सदैव से एक अबूझ पहेली रही है। समाज से लेकर न्यायालायों तक में इस पर बहसें होती रहीं हैं।
सबसे पहले यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि EWS (आर्थिक रूप से कमज़ोर) आरक्षण लागू होने के बाद ऐसा कोई मुस्लिम तबका नहीं है जो आरक्षण की परिधि से बाहर हो अर्थात लगभग सारे मुसलमान पहले से ही आरक्षण का लाभ लें रहें हैं। विदित रहे कि मज़हबी पहचान के नाम पर आरक्षण संविधान के मूल भावना के विरुद्ध है कोई भी मज़हब पिछड़ा या दलित नहीं होता है बल्कि उसके मानने वालो में गरीब, पिछड़े और दलित हो सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए आरक्षण की EWS, ओबीसी और एसटी कैटेगरी में अन्य धर्मों के मानने वालों के साथ-साथ सारे मुसलमानों को भी समाहित किया गया। हालांकि एससी कैटेगरी के आरक्षण से अभी भी मज़हबी पहचान के आधार पर ईसाई और मुस्लिम धर्मावलंबी दलित (इन्हें ओबीसी में रखा गया है) बाहर हैं। यह मामला सर्वोच्च न्यायलय में पिछले लगभग 23 वर्षो से विचाराधीन है और केंद्र सरकार ने दो वर्षीय कार्यकाल और तीन सदस्यीय आयोग गठित कर इस पूरे मुद्दे पर रिपोर्ट तलब किया है।
दक्षिण भारत के राज्यों विशेष रूप से तमिलनाडु और केरला में लगभग सभी मुस्लिम जातियों को ओबीसी के आरक्षण में समाहित किया गया है जो कि न्याय संगत प्रतीत नहीं होता है। यहां यह गौरतलब है कि इन्हीं राज्यों की केंद्रीय ओबीसी की लिस्ट में सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक रूप से मजबूत मुस्लिम जातियों को बाहर रखा गया है जो कि न्याय संगत भी है। इन राज्यों के आरक्षण के लिस्ट से सशक्त मुस्लिम जातियों (अशराफ़ मुसलमान) को बाहर किया जाना चाहिए ताकि सामाजिक न्याय के आधार पर योग्य जातियों एवं समुदायों को ही आरक्षण का लाभ मिले इसके लिए संबंधित राज्यों के ओबीसी लिस्ट को केंद्रीय ओबीसी लिस्ट के तर्ज पर तैयार किया जा सकता है।
पिछले वर्ष कर्नाटक राज्य की भाजपा सरकार ने कर्नाटक स्टेट कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास की अनुशंसा पर ओबीसी आरक्षण के अंतर्गत केवल मुस्लिमों के लिए (Exclusively Muslim Reservation) आवंटित कैटेगरी 2B (4%) को समाप्त कर इसमें आने वाले मुस्लिमो को ईडब्ल्यूएस (10%) में शिफ्ट कर दिया। और 2B के 4% को दो बराबर भागों में विभाजित कर ओबीसी की अन्य कैटेगरी 3A (अब 2C) और 3B (अब 2D) को दे दिया। सरकार के इस फैसले को बाद में कोर्ट में चुनौती दिया गया है। यह आरक्षण शुद्ध रूप से धार्मिक पहचान पर आधारित था, यहां तक कि इस कैटेगरी के लिए बनने वाले सर्टिफिकेट पर भी कास्ट के आगे मुस्लिम लिखा रहता था जो संविधान सम्मत नहीं था। यहां गौरतलब है कि सामाजिक न्याय के आरक्षण के लिए अर्ह मुस्लिमों की अधिकतर पसमांदा जातियों को पहले से ही ओबीसी के कैटिगरी 1 (4%), 2A (15%) और एसटी (7%) में रखा गया है, जो अभी भी यथावत बरकरार है। यानी पसमांदा जातियों को पहले की तरह ओबीसी के 19% और एसटी के 7% आरक्षण का लाभ मिल रहा है।
जहां तक तेलंगाना और आंध्रा के ओबीसी की केटेगरी बीसी-इ (4%) की बात है तो वो मज़हबी पहचान/धर्म के आधार पर नहीं बल्कि शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े होने की पहचान के आधार पर चिन्हित मात्र 13 मुस्लिम पिछड़ी जातियों (पसमांदा) को ही सम्मिलित किया गया है। बीसी-ए और बीसी-बी में मुस्लिम समाज की जातियां यथा मेहतर, दूदेकुला, नूरबाश, पिंजारी अन्य धर्मों के पिछड़ी जातियों के साथ पहले से ही शामिल हैं। ठीक इसी प्रकार केटेगरी बीसी-सी में केवल ईसाई धर्म की वंचित जातियां दर्ज हैं। इन दोनों कैटिगरी में केवल मुस्लिम और केवल ईसाई धर्म विशेष की पिछड़ी जातियों के दर्ज होने से यह भ्रम उत्पन्न होता है कि यह आरक्षण धर्म के आधार पर है जबकि यह पूरी तरह से संवैधानिक मंशा के अनुरूप शैक्षिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर है। इस भ्रम को दूर करने के लिए ओबीसी के वर्गीकरण पर पुनः विचार करते हुए धर्म निरपेक्ष वर्गीकरण किया जा सकता है।
उसके अतिरिक्त देश के अन्य प्रदेशों में सारे मुसलमानों को नहीं बल्कि मुस्लिम समाज के वंचित जातियों को ही ओबीसी और एसटी के आरक्षण में सम्मिलित किया गया।
सच्चर कमिटी के अनुसार ओबीसी आरक्षण के केन्द्र व राज्य सूची में असमानता अब भी मौजूद है। यह एक साधारण शिकायत है जो केवल मुस्लिमों से ही जुड़ी हुई नहीं है। धार्मिक पहचान से परे ऐसे कई ओबीसी समूह है जो राज्यसूची में हैं लेकिन केन्द्र सूची में नहीं हैं। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के द्वारा अनुशंसित 95 सामाजिक समूहों को ओबीसी सूची में सम्मिलित किया गया है लेकिन इनमें से केवल 65 समूहों को ही केंद्र सूची में जगह मिल पाई है। उत्तर प्रदेश की ओबीसी सूची में 74 जातियां सम्मिलित हैं लेकिन केन्द्र की सूची में केवल 65 जातियां शामिल हैं।
ऐसी विभिन्नता मुस्लिम ओबीसी की स्थिति में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश की राज्य सूची में 37 समुदाय, मुस्लिम समूहों के रूप में सम्मिलित हैं, लेकिन उनमें से केवल 27 ही केन्द्रीय सूची में हैं। बिहार में सूचियों के नवीनीकरण के बाद 17 ओबीसी समूह ऐसे हैं जिन्हें केन्द्रीय सूची में जगह नहीं मिली है। उत्तर प्रदेश में 2 मुस्लिम समूह- मिर्शिकार व नानबाई को केन्द्रीय सूची में जगह नहीं मिली हैं। गुजरात में मुस्लिम समूह जैसे कि जिलाया, तरियातई, मंसूरी, बरब, सूमरा, तरक कलाल और नहवैया राज्य की पिछड़ा वर्ग सूची में हैं, लेकिन केन्द्रीय सूची में नहीं। इसी प्रकार महाराष्ट्र में कई मुस्लिम समूह जैसे कि मंसूरी, पान फरोश, अतार, मुस्लिम मदारी, मुस्लिम गावली, दरवेशी, हाशमी (डफाली), नालबंद ऐसे है जिन्हें केन्द्रीय सूची में जगह नहीं मिली है। राज्य सरकारों द्वारा बनाई गई ओबीसी सूचियों में भी कई ऐसी वंचित जातियां और समुदाय हैं जिन्हें सूची में जगह नहीं मिली है। ऐसे कुछ मुस्लिम समूह है जिन्हें केंद्र की सूची में जगह मिली है परंतु जिन्हें अभी राज्य सूची में सम्मिलित किया जाना बाकी है। बिहार में कलवार, राजस्थान में मुसूरी, उत्तर प्रदेश में आतिशबाज, पश्चिम बंगाल में राईन, कलवार, रंगबाज और चूड़ीहार ऐसे मुस्लिम समुदायों के उदाहरण हैं। अभी भी ऐसे कई समूह हैं जिन्हें न तो केन्द्र और नहीं राज्य की सूची में जगह मिल पाई है।
यह बात न्याय संगत है कि मुस्लिम समाज के वंचित जातियों का उत्थान उनके मज़हबी पहचान के इतर सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन के अनुरूप हो, इसीलिए यह उचित है कि अनुच्छेद 341 के पैरा-3 को हटाकर मुस्लिम धर्मावलंबी और ईसाई धर्मावलंबी दलित को भी एससी आरक्षण में सम्मिलित किया जाय और ओबीसी आरक्षण की तरह एससी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर एवं वर्गीकरण किया जाय। दक्षिण भारत के प्रमुख राज्यों यथा कर्नाटका, तमिलनाडु और केरला के ओबीसी आरक्षण से शासक वर्गीय सशक्त अशराफ़ जातियों को बाहर निकाला जाय, साथ ही सच्चर कमिटी द्वारा दर्शायी गई केंद्रीय और राज्य सरकारों की जातिसूची की विसंगतियों को सुधारने का प्रयास हो। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी ईश्वरैया के मतानुसार केंद्र और राज्यों के अन्य पिछड़े वर्ग को तीन समूहों में विभाजित किया जाय ताकि मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त हो और आरक्षण किसी भी स्थिति में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का मुद्दा न बनने पाय।
डा० फैयाज अहमद फैज़ी
लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं।