Tag: Casteism

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सामाजिक न्याय की खोज

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का 8 नवंबर 2024 का फैसला एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। सात न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से 1967 के एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में दिए गए फैसले को पलट दिया। इस पुराने फैसले में कहा गया था कि AMU को अल्पसंख्यक संस्था नहीं माना जा सकता। नए फैसले में स्पष्ट किया गया कि किसी संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा उसकी स्थापना के आधार पर निर्धारित होता है। यदि किसी अल्पसंख्यक समुदाय ने संस्थान की स्थापना की है, तो वह संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है। इस निर्णय से AMU को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है, लेकिन यह मामला अब तीन न्यायाधीशों की नियमित पीठ को सौंपा गया है, जो इस नए फैसले में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करेगी।पसमांदा आंदोलन का आरोप है कि अल्पसंख्यक संस्थान जैसे AMU केवल अशरफ वर्ग के हितों की पूर्ति करते हैं और पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते। यह लेख इस मुद्दे का विश्लेषण करेगा और देखेगा कि कैसे AMU अपने जन्म से ही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के खिलाफ खड़ा रहा है।

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पुस्तक समीक्षा: “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष”

यह पुस्तक पसमांदा समाज के लिए न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने में सक्षम है। इसे पढ़कर पसमांदा समाज में जागरूकता बढ़ेगी, और यह उन्हें अपने संघर्षों को दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। पुस्तक की स्पष्टता, तर्कसंगतता, और सामाजिक संदेश इसे पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन बनाते हैं। इसलिए, यह उम्मीद की जा सकती है कि पसमांदा समाज इस पुस्तक को व्यापक रूप से अपनाएगा और इसे अपने संघर्ष के दस्तावेजीकरण के रूप में देखेगा, जिससे आने वाले समय में और अधिक पसमांदा लेखन एवं विचारधारा विकसित हो सकेगी।

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वक़्फ़-बोर्ड का काला सच

वक्फ बोर्ड भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, जिसका अंदाजा इसके कुछ भयावह भूमि घोटालों से लगाया जा सकता है, जैसे कि महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड, जिसने मुकेश अंबानी को मुंबई में स्थित उनके 27 माला अपार्टमेंट ‘इंटालिया’ के लिए 4,535 वर्ग मीटर मुफ्त में प्रदान किया था जो मुम्बई के व्यस्त बाज़ार ‘अल्टा माउंट रोड’ पर स्थित है। इसी तरह बेंगलुरु में 600 करोड़ रुपये से ज्यादा मूल्य का ‘विंडसर होटल’ 12,000 रुपये प्रति माह पर लीज पर दिया गया है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि 600 करोड़ रुपये से ज्यादा की जमीन महज 12000 रुपये प्रति माह में लीज पर दे दी गई। 12000 तो सिर्फ कागजी कार्रवाई में है। जबकि वक्फ बोर्ड के सदस्यों को इसका कई गुना मासिक काला धन या रिश्वत के रूप में मिलता होगा और ये सभी भ्रष्टाचार अल्लाह के नाम पर किए जाते हैं।

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वक़्फ़ संशोधन बिल और हमारी ज़िम्मेदारी

वक़्फ़ की ज़मीन पर जो इक्का-दुक्का निर्माण कार्य किए भी गए हैं तो वह या तो मदरसे हैं या फिर मस्जिद, और वह भी सिर्फ़ पसमांदा (ओबीसी) मुसलमानों को भ्रमित करने के लिए। वास्तव में, यह आम मुसलमानों को भावनात्मक रूप से बेवकूफ़ बनाए रखने की पुरानी अशराफ़िया चाल के अलावा और कुछ नहीं है ताकि पसमांदा मुसलमान शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, समान प्रतिनिधित्व और असमानता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर उन से सवाल न कर सकें क्यों कि मुसलमानों के नाम पर जितने भी संगठन बने हैं, चाहे वह वक़्फ़ बोर्ड हो, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो, जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद हो या कोई अन्य संगठन हो, उन पर विदेशी मूल के अशराफ़ मुसलमानों का ही नियंत्रण है। यहां तक कि देश के 21 विश्वविद्यालयों के विभिन्न पदों पर 90% से अधिक इन्ही अशराफ़ मुसलमानों का ही क़ब्ज़ा है।

विदेशी मूल के यह अशराफ़ लोग पसमांदा मुसलमानों को फिर से मूर्ख बनाने के लिए वक़्फ़ की ज़मीन को अल्लाह की ज़मीन बतला रहे हैं ताकि वह अल्लाह के नाम पर अपनी दुकान चलाते रहें और आप सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक इन का बचाव करते रहें। भले ही आप उन अशराफ़ के इस दावे को मान भी लें कि वक़्फ़ की ज़मीन अल्लाह की ज़मीन है तो इस संदर्भ में यह भी देखें कि कुरान कहता है कि पूरी धरती ही अल्लाह ने बनाई है। इस नज़रिए के अनुसार, अशराफ़ वर्ग को पूरी पृथ्वी पर हीअपना दावा कर देना चाहिए, लेकिन नहीं…उन को दूसरों से संबंध भी तो निभाने हैं ताकि दोनों हाथों में लड्डू रहे।

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सामाजिक न्याय में उप-वर्गीकरण की भूमिका और विवाद

21 अगस्त के भारत बंद को उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और राजस्थान के बुद्धिजीवियों, राजनितिक दलों और संगठनों का समर्थन मिला, जहां प्रमुख अनुसूचित जातियों का प्रभाव है। मायावती, चंद्रशेखर आजाद, चिराग पासवान, प्रकाश अंबेडकर, और रामदास अठावले जैसे नेताओं ने इस बंद का जोरदार समर्थन किया। इसके विपरीत, वाल्मीकि, मादिगा, अरुंथतियार, मान, मुसहर, हेला, बंसफोर, धानुक, डोम जैसी पिछड़ी अनुसूचित जातियां इस बंद से दूर रहीं, खासकर दक्षिण भारत (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना) में, जहां उप-वर्गीकरण पर बहस अधिक उन्नत है। इन समूहों ने एकीकृत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति श्रेणी की अवधारणा को आंतरिक न्याय के बिना पर चुनौती दी है। वे जाति जनगणना की मांग और अन्य तर्कों को यथास्थिति बनाए रखने की रणनीति के रूप में देखते हैं।

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आधा गाँव: एक पसमांदा समीक्षा

राही मासूम रज़ा का उपन्यास “आधा गाँव” भारतीय ग्रामीण समाज की जटिलताओं और विभाजन के समय की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों का विशद चित्रण करता है। इस उपन्यास में मुख्यतः शिया सैयद परिवार और अशराफ मुसलमानों के जीवन को केंद्र में रखा गया है। लेखक ने अपनी जातिगत पहचान और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर उन सामाजिक मुद्दों को उजागर किया है जो भारतीय मुस्लिम समाज में लंबे समय से विद्यमान हैं, जैसे जातिवाद, धार्मिक भेदभाव, और सामाजिक असमानता।

हालाँकि, लेखक पर यह आलोचना भी की जा सकती है कि उन्होंने उपन्यास में पसमांदा मुसलमानों के संघर्षों और उनकी आवाज़ को वह महत्व नहीं दिया, जो कि उनका हक था। उपन्यास में पसमांदा पात्रों को केवल सहायक भूमिकाओं में दिखाया गया है, और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को गहराई से नहीं उभारा गया है। इस दृष्टिकोण से, “आधा गाँव” केवल अशराफ मुसलमानों के दृष्टिकोण से समाज का चित्रण करता है, और पसमांदा मुसलमानों के जीवन की वास्तविकताओं को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं करता।

यह समीक्षा पसमांदा समाज के दृष्टिकोण से उन मुद्दों पर प्रकाश डालती है, जो इस उपन्यास में अनदेखे रह गए हैं, और पसमांदा समाज के संघर्षों को अधिक समर्पित और संवेदनशील लेखन की आवश्यकता पर जोर देती है।

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क्या है सैयदवाद ?

अशराफ उलेमाओं ने भी खुद को नबी (स.अ.) के खानदान से जोड़ कर झूठी हदीसें गढ़ीं। उन्होंने भी सैयद की सेवा करने के नाम पर मिलने वाली जन्नत के किस्से गढ़े, अगर सैयद गरीब है तो यह उस सैयद का इम्तिहान नहीं है बल्कि हमारा इम्तिहान है कि हम उस सैयद की कितनी सेवा कर पाते हैं। यह भी ज्ञात रहे कि हदीसों का संकलन नबी (स.अ.) की वफात के 100 साल बाद शुरू हुआ है।

यह वही वक्त था जब सत्ता के लिए शिया और सुन्नियों के बीच जंग हो रही थी। जब यह बताया जाता है कि खलीफा सिर्फ कुरैश बन सकते हैं तब दरअसल यह बताया जा रहा होता है कि खिलाफत पर सिर्फ एक कबीले/जाति का दैवीय अधिकार है। राज्य ईश्वर ने बनाया इसलिए राजा ईश्वर का दूत है, ‘ज़िल्ले इलाही’ है। कोई भी उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता। अगर यह साबित कर दिया जाए कि नबी (स.अ.) ने किसी खास खानदान या कबीले को सत्ता सौंपी थी तो उसकी दावेदारी ईश्वरीय हो जाएगी क्योंकि नबी (स.अ.) ईश्वर के दूत थे।

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ज़ातत-पात (जातिवाद) की जड़ें

मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) पिछड़ी बिरादरियों को शिक्षा का अधिकार दिए जाने कि बात दूर की है. धार्मिक दृष्टिकोण से सभी मुसलमानों को बराबर नहीं समझा गया. इस का एक उदाहरण मौलाना अशरफ़ अली थानवी (र०अ०) की किताब ‘अशरफ़-उल-जवाब’ में मिलता है. उस के अन्दर है कि-

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पसमांदा : कल, आज और कल

सामाजिक बराबरी के लिए आज़ाद भारत में जो भी नीतियाँ बनी हैं, उनका लाभ बहुत कम तबकों को मिल सका है। उसका कारण ज़रूरतमंद लोगों के सही आंकड़ों का उपलब्ध ना होना भी है। इस्लाम को मानने वाले समाज में यह आंकड़े इसलिए नहीं जुट सके कि वहां व्यावहारिक और  सैद्धांतिक बातों में अंतर है। इस आलेख में इसी की पड़ताल करने का प्रयास है। आमतौर पर यही माना जाता है कि इस्लाम बराबरी और समानता का धर्म है जहां कोई ऊंच-नीच नहीं है। पर ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है।

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