इस सवाल का जवाब कुछ भी हो, लेकिन जवाब पाने के लिए हमें रास्ता तय करना आना चाहिए। आजकल यात्रा का प्रचलन भी बढ़ गया है। लड़के अपने बैगपैक के साथ निकल पड़ते हैं, जबकि लड़कियाँ हजारों सवालों और एक मुट्ठी डर के साथ सफर पर जाती हैं। बिना वजह लड़कियाँ कम घूमती हैं और लड़के घूमने के लिए वजह बना लेते हैं। लड़कियों के लिए नितांत अकेले यात्रा करने पर इतनी रोक-टोक क्यों है? लड़कियाँ अगर यात्री बन जाएँ, तो क्या उनकी नज़र से दुनिया अलग दिखाई देगी? क्या आप किसी सोलो ट्रैवलर लड़की से मिले हैं? इस लेख में हम ऐसी ही लड़की और उसकी यात्रा-वृतांत पर चर्चा करेंगे।
घुमक्कड़ी धर्म और स्त्रियाँ
इंसानी ज़िंदगी दो पैरों पर खड़ी होकर सभ्यता बन गई, सभ्यता एक नदी के आजू-बाजू ठहर गई, और ठहरे हुए लोगों ने चलते, घूमते, भटकते लोगों के बारे में कई भ्रांतियाँ पाल लीं कि ये हमसे बहुत अलग हैं या सीधे-सीधे कहें तो हमसे कमतर हैं। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक में विभिन्न घुमक्कड़ों जैसे आर्य, शक, हूण, कोलंबस, वास्कोडिगामा पर अपने विचार रखे और सबको ही प्रेरित किया घुमक्कड़ी धर्म अपनाने के लिए। स्त्रियों को भी यही उपदेश दिया, लेकिन इस धर्म को अपनाने में समाज व प्रकृति द्वारा स्त्रियों को जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, उस पर ध्यान तो दिलाया, लेकिन स्त्री पर ही समस्या की सारी ज़िम्मेदारी लाद दी।
पहली पुस्तक
वह लिखते हैं, “उन्हें घुम्मकड़ बनने दो, उन्हें दुर्गम और बीहड़ रास्तों से भिन्न-भिन्न देशों में जाने दो। लाठी लेकर रक्षा करने और पहरा देने से उनकी रक्षा नहीं हो सकती। वे सभी रक्षित होंगी जब वे ख़ुद अपनी रक्षा कर सकेंगी। तुम्हारे नीति और आचार-नियम सब दोहरे हैं।” लेकिन यह तो एक पुरुष का घुमक्कड़ी नज़रिया है, जिसमें साहस, निडरता, शारीरिक श्रम, प्रेम से दूरी बनाकर रखने का प्रवचन है। जबकि स्त्री घुमक्कड़ अपने स्त्रीत्व के साथ घूमती है, जिसमें प्रेम, कोमलता, सहारा और आसरा शामिल हैं। और जब बात भारतीय स्त्री घुमक्कड़ की हो, तो संस्कृति का एक अलग सा बोझ भी आ जाता है, पश्चिमी रहन-सहन को असभ्य मानने की रूढ़िबद्ध धारणा, पुरुषों के साथ रहने में असहजता व अविश्वास, भावनात्मक मूल्यों की अधिकता।
अनुराधा बेनीवाल की यायावरी आवारगी
अनुराधा बेनीवाल, ‘राजकमल सृजनात्मक गद्य सम्मान से पुरस्कृत’, ऐसी ही महिला हैं जो यूरोप में घूमती हैं और अपनी किताबों के माध्यम से भारतीय संस्कृति से भिन्न पश्चिमी संस्कृतियों को एक स्त्री की नज़र से देखती और समझती हैं। इस क्रम में वह दकियानूसी विचारों पर प्रश्न करती हैं, और सबसे रुचिकर बात यह है कि प्रश्न करने की इस परंपरा में वे विभिन्न संस्कृतियों की लड़कियों को हमसे रूबरू कराती हैं। हिन्दी साहित्य के यात्रा-वृतांत में अनुराधा बेनीवाल की पुस्तकें इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अभी तक यात्रा लेखन में सिर्फ पुरुष लेखकों की कृतियाँ ही मशहूर रही हैं जैसे राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय इत्यादि।
उन्होंने अपने तरीके से यात्रा वृत्तांत लिखा है, जिसमें वहाँ के लोगों, उनके विचार, उनके आपसी रिश्तों के बारे में आप समझ पायेंगे। चूँकि स्थान बदलते ही लोगों की संस्कृति भी बदल जाती है, इसलिए आपको देशाटन का अनुभव भी होता है और आप इस यात्रा पर लेखिका के साथ बने रहते हैं।लेखिका जहाँ कहीं भी रुकती हैं, उन मेजबानों से विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद करती हुई बिना किसी ज़्यादा लाग-लपेट के पाठकों तक वह बात पहुँचा देती हैं। स्विट्जरलैंड के बर्न में उनके होस्ट के साथ संवाद के एक अंश में वे लिखती हैं:
“मैन्युअल: धर्म को अच्छे से समझने की ज़रूरत है। लोगों ने अपने अनुसार इसके ग़लत मतलब निकाले हैं, अपने फायदे के लिए। मैं: अगर बिना समझे काम चलता हो, तो क्या बुराई है? अगर किसी चीज़ के इतने भयंकर मतलब निकल सकते हैं, तो पढ़ने का जोखिम लिया ही क्यों जाए? और जिस तरह से औरतों को दबाने में धर्म ने योगदान दिया है, वह तो भयानक है। इस्लाम को ही लो, कैसे औरतों को धर्म के नाम पर काले कपड़ों में ढँक दिया है! और यह धर्म ही हो सकता है, जिसे लोग किसी भी रूप में स्वीकार लेते हैं। कोई और वजह होती तो औरतें लड़तीं, लेकिन धर्म के नाम पर खुशी-खुशी लिपट जाती हैं। वैसे ही हिंदू धर्म में सती-प्रथा भी कभी रही है और अभी भी बाल विवाह जैसी बुराइयाँ हैं। पति-परमेश्वर की रक्षा के लिए व्रत-उपवास तो जाने कितने ही रखने होते हैं, चाहे खुद के शरीर में खून की बूँद न हो!”
लेखिका की पहली पुस्तक ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ (2016) कई मायनों में अहम है। एक तो यह कि यह पुस्तक लड़कियों में घुमक्कड़ी स्वभाव को प्रोत्साहित करती है, और दूसरा यह कि अच्छी लड़की के मिथ को कठघरे में खड़ा करती है। पर्यटन के बाज़ारीकरण के फलस्वरूप आजकल लोग कुछ चुनिंदा प्रसिद्ध जगहों पर भीड़ की तरह पहुँच जाते हैं, और पूरा ध्यान सिर्फ इस पर होता है कि फोटो कैसे सुंदर आए और सोशल मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा लोग प्रभावित हो जाएं। जहाँ किसी फ़िल्म की शूटिंग हुई हो या कोई सिलेब्रिटी ठहरा हो, उस स्थान को लोग पागलों की तरह देखना चाहते हैं। ऐसे बेमतलब की दौड़ से दूर, यह पुस्तक जल्दी से कहीं पहुँच जाने के विपरीत, कहीं पहुँचने के सुकून और पहुँच कर सुस्ताने पर ध्यान देती है। यह लोगों पर केंद्रित है, खासकर महिलाओं पर। पुस्तक महिलाओं पर केंद्रित होने के बाद भी उनके सशक्तिकरण पर बात नहीं करती है, न ही यह नारीवाद पर लिखी गई है। हाँ, यह निजी स्तर पर औरतों के व्यक्तित्व, खुद के बारे में विचार रखने की परिपक्वता और कहीं भी चल पड़ने की आज़ादी को बखूबी बयाँ करती है। लेकिन यह धारणा भी कचोटने लगती है कि यूरोप में घूमकर आज़ादी को अपना ब्रांड कहने में कोई मुश्किल है क्या? आज़ादी की यह संकुचित परिभाषा नारीवाद को दो कदम आगे बढ़ाकर चार कदम पीछे ले आती है।
शुरू के अध्यायों में स्त्री देह पर बात की गई है कि कैसे एक विदेशी लड़की ‘रमोना’ अपने शरीर पर कपड़े होने और न होने दोनों में सहज है, और भारतीय लड़कियाँ अपनी ब्रा की स्ट्रैप दिखने भर से असहज हो जाती हैं। सेक्स पर एक जगह लिखा गया है कि रमोना को कोई भी लड़का चलेगा, वह रंग, जाति या नौकरी कुछ नहीं देखती, जबकि भारतीय ‘अच्छी’ लड़कियाँ सेक्स को लेकर कोई इच्छा नहीं रखतीं और किसी लड़के से इस तरह का कोई संबंध बनाती हैं तो कुल-गोत्र, घर-परिवार, नौकरी सब देखकर। ये दोनों ही बातें किसी भी जेंडर की सेक्सुअलिटी संबंधित स्वतंत्रता से जुड़ी हैं, जो अपनी जगह पर बिल्कुल ठीक हैं। लेकिन यह भाषा लेखिका के विशिष्ट पृष्ठभूमि (प्रिविलेज्ड बैकग्राउंड) और सतही दृष्टिकोण को दर्शाती है, जो पूरी किताब में देखने को मिलती है। किताब का एक अंश –
“15 साल की उम्र में अपने आयु-वर्ग में नेशनल चैम्पियन बनी, कॉलेज गई, अंग्रेज़ी साहित्य में बीए-एमए किया, लॉ की पढ़ाई की, नौकरी की, पत्रकारिता की पढ़ाई की, फिर नौकरी की, प्रेम-विवाह कर अपना घर बसाया—कहने को एक परफ़ेक्ट लाइफ़ जी रही थी। और क्या चाहिए होता है एक लड़की को—घर, नौकरी, गाड़ी, फर्नीचर, कामवाली बाई और जीवनसाथी के अलावा? और कुछ नहीं न! लेकिन वह क्या था, जिसे ढूँढ़ने की तड़प मेरे भीतर उबल रही थी! मैं किस स्वतंत्रता की बात सोच रही थी?”
एक औरत जो कुछ भी करने के लिए आज़ाद हो, सक्षम हो और फिर भी अपनी सोच से आज़ाद नहीं हो पा रही हो, तो उन्हें इस पुस्तक से बहुत कुछ जानने-समझने को मिलेगा। हमारे समाज में लड़की को एक उम्र के बाद इन्हीं दो बातों पर आँका जाता है कि उसने क्या पहना है और किसी लड़के से क्यों बात कर रही है अर्थात् उसका उस लड़के से क्या संबंध है। ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज भी लड़की को उसके शरीर से अलग करके सोच ही नहीं पाता, और इसी समाज का हिस्सा हम लड़कियाँ भी होती हैं।
हम भी खुद को अपने शरीर की आज़ादी से जुड़ी पहचान तक सीमित कर लेते हैं। शरीर को सजाना, सँवारना, कपड़े पहनाना, उतारना मात्र ही आज़ादी है, तो हम कहीं न कहीं अपने शरीर का ऑब्जेक्टिफ़िकेशन करने में खुद ही लगे हुए हैं, और यही तो पुरुष समाज चाहता है। अगर हम सेक्स को लेकर खुलेपन पर बात करते हैं, तो भी हम नारी सशक्तिकरण की कोई लड़ाई नहीं जीत रहे जब तक कि हम लड़कियों को भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर सुरक्षित नहीं कर लेते। सेक्स करने की आज़ादी से पहले अगर आप अपने पार्टनर का कुल-गोत्र ढूँढ रहे हैं, तो शायद आप पहले ही मानसिक ग़ुलाम और (जाने या अनजाने) जातिवादी हैं। सेक्स और शरीर से जुड़ी आज़ादी ज़रूरी है क्योंकि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के अंतर्गत हम औरतों के शरीर को एक इंसान के स्तर पर न देखकर पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखते हैं। औरत के शरीर पर जाति व परिवार की इज्जत को थोप दिया है और इस तरह औरत की पूरी पहचान उसके शरीर पर ही केंद्रित होकर रह जाती है। लेकिन क्या समस्या-स्थल से पलायन कर जाना आज़ादी है? क्या कहीं दूर किसी आज़ाद जगह पर बस जाना आज़ादी है? उनका क्या जो दूर नहीं जाना चाहते, क्या आज़ादी उनकी है ही नहीं?
लड़कियों को घर से बाहर निकल कर घूमना आना ही चाहिए, अकेले सफ़र करना आना चाहिए, कोई मुश्किल पड़े तो उसे कैसे हल करना है ये हुनर आना चाहिए। मैं लेखिका की इस एक बात का समर्थन करती हूँ कि आप दुनिया देखो, वहाँ के लोगों से मिलो, उनसे सीखो और धारणा बनाए बिना उन्हें स्वीकार करो। लेकिन पुस्तक अन्याय पर बात टाल कर आगे बढ़ जाती है और सिर्फ कपड़ों और सेक्स को मुद्दा बनाए रखती है। जिस दुपट्टे को लेखिका बंदिश मानती है, उसी दुपट्टे को ओढ़ने का अधिकार माँगने के लिए दलित महिलाओं ने संघर्ष किया है, ताकि सवर्ण पुरुष उनका शारीरिक शोषण और अपमान ना कर सकें। वह जिस निरर्थक बाहर घूमने को आज़ादी बताती हैं, कितनी ही मजदूर महिलाएँ शहर-शहर भटकने पर विवश हैं अपने पति व बच्चों के साथ। जिस सेक्स पर वह निरंतर बात कर सकती हैं, उसी के लालच में दलित-बहुजन-पसमांदा बच्चियों को वैश्यावृत्ति जैसे नरक में धकेल दिया जाता है जहां उनका कोई भविष्य नहीं है।
दूसरी पुस्तक
अनुराधा बेनीवाल की दूसरी किताब ‘लोग जो मुझमें रह गए’ (2022) उपरोक्त यायावरी आवारगी की दूसरी कड़ी है। यह किताब पहली कड़ी के मुक़ाबले ज़्यादा अर्थपूर्ण लगती है। यात्रा में बेपरवाह घूमने के साथ मक़सद भी शामिल है, जिसमें सोवियत यूनियन से पृथक हुए देशों की सामाजिक-राजनीतिक विचारों को वहाँ के वासियों के नज़रिये से जानने की कोशिश, समलैंगिक संबंधों पर चर्चा और इतिहास में हुई सबसे वीभत्स घटना होलोकॉस्ट का मार्मिक चित्रण प्रमुख रूप से सामने आता है। ऐसा नहीं है कि यहाँ लेखिका ने शरीर और सेक्स की आज़ादी पर नहीं लिखा है, लेकिन वह उनकी ख़ुद की जिज्ञासा और वहाँ के रहन-सहन व अनुभवों तक सीमित है। इन मुद्दों पर भारत की लड़कियों को कोई भाषण या सलाह नहीं दी गई है। बल्कि कई जगह पर लेखिका बेतुकी आज़ादी का ख़याल छोड़कर वही करती हैं जो कोई भी लड़की ख़ुद को किसी भी तरह के व्यर्थ फ़साद से बचाने के लिए करती है या आदतन अपने रहन-सहन के अनुसार, जैसे इस्तांबुल में झीना स्कार्फ़ अपने कंधों पर डालना, रिगा शहर के एक बीच पर कार्ली द्वारा सारे कपड़े उतारने पर सकपका जाना और दूर चले जाना, सॉना बाथ में स्थानीय लोगों द्वारा निर्वस्त्र होने में सहज होते हुए भी ख़ुद को तौलिये में रखना इत्यादि।
जिस तरह की यात्रा वह इस किताब में करती हैं वह पाठकों को ज़रूर रोमांचक लगेगी। यूरोप की संस्कृति को पास से देखने का एक मौक़ा मिलता है, जिसमें सिर्फ़ चकाचौंध नहीं बल्कि इंसानी रिश्तों के कुछ बुनियादी मसले भी हैं। खाप पंचायत से लड़ती औरतें हैं, हर क़िस्म की आज़ादी के बाद भी पश्चिम के पूरब की रूढ़िवादी सोच है, ख़ुद को खोल कर न रखने वाली पर मदद करती दूर देश की अनबूझ सहेलियाँ हैं। लड़का-लड़की के बाइनरी से अलग इंद्रधनुषी स्पेक्ट्रम है।
नारी विमर्श
बहुत कुछ ऐसा है जिसे आपको ध्यान में रखना चाहिए। औरत की पहचान केवल जेंडर आधारित न होकर बहुआयामी होती है, जिसकी वजह से किसी भी समाज की औरत का संघर्ष और नारीवाद विशिष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में आपको अपने संघर्ष की परिभाषा और दिशा खुद तय करनी चाहिए। हाँ, किसी भी महिला वर्ग के संघर्ष को सम्मान से देखना चाहिए और उससे सीखना चाहिए। स्त्री की तय सुंदरता के पैमानों का खंडन करना चाहिए, यह समझते हुए कि पुरुष हर बार शोषक नहीं होता और किसी वर्ग की औरतें भी शोषण करती हैं। इस जटिलता को समझने की ज़रूरत है।
अंत में, आपकी आज़ादी कई लोगों के संघर्ष, त्याग और बलिदान का सामूहिक परिणाम है, इसलिए यह एक ब्रांड नहीं बल्कि एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। यात्रा करना न केवल हमें नई जगहों और लोगों से मिलवाता है, बल्कि हमारे दृष्टिकोण को भी व्यापक बनाता है। हमें ऐसा समाज बनाना चाहिए जिसमें घूमना केवल एक अनुभव हो, न कि एक विशेषाधिकार। उम्मीद है कि हम सब मिलकर एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जहाँ हर कोई अपनी मर्ज़ी से घूम सके और अपनी आज़ादी की चाभी अपने पास रख सके।
- पायल श्रीवास्तव एक स्वतंत्र लेखिका हैं, इंस्टाग्राम चैनल Graphite_Voice के माध्यम से सामाजिक पृष्ठभूमि के कार्टून बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं।
- यह लेखिका का निजी विचार है