~डॉ. उज़मा खातून
हर साल जब लाखों मुसलमान मक्का की पाक धरती की ओर बढ़ते हैं, तो यह सिर्फ़ एक सफ़र नहीं होता, बल्कि एक ऐसा आलमी मंज़र बन जाता है जिसमें इंसानियत की एकता और बराबरी का बेहतरीन प्रदर्शन नज़र आता है। हज के दौरान हर मुसलमान एक जैसी पोशाक पहनता है, वही इबादतें करता है और सब एक-दूसरे के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होता है। इस जमावड़े में कोई ऊँच-नीच नहीं रह जाती — अल्लाह के सामने हर शख़्स एक जैसा होता है।
हज इस्लाम के पाँच बुनियादी स्तंभों में से एक है। हर मुसलमान, जो तंदरुस्त हो और खर्च उठाने की हैसियत रखता हो, ज़िंदगी में एक बार हज करना फ़र्ज़ समझा जाता है। यह इबादत हर साल इस्लामी कैलेंडर के ज़िल-हिज्जा महीने की 8 से 13 तारीख़ के दरमियान अदा की जाती है। इसके रिवाज हज़ारों साल पहले हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के वक़्त से चले आ रहे हैं, जिन्होंने अपने बेटे इस्माईल (अ.स.) के साथ मिलकर काबा को दोबारा तामीर किया था। बाद में इन रिवाजों को आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) ने मुकम्मल शक्ल दी।
हज की सबसे अनोखी बात एहराम की हालत है। मर्द दो सादे सफ़ेद बिना सिले कपड़े पहनते हैं, और औरतें भी सादा और पर्देदार लिबास अपनाती हैं। इससे अमीरी-ग़रीबी या ऊँच-नीच की हर पहचान मिट जाती है। हर इंसान एक जैसी सूरत में नज़र आता है। यह बाहरी समानता एक अंदरूनी सबक देती है — कि अल्लाह के सामने हमारी असली पहचान हमारी नियत, नम्रता और फ़रमाबरदारी में है, न कि हमारी हैसियत में।

जब हाजियों की ज़ुबान से “लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक” गूंजता है, तो वह इस बात का ऐलान होता है कि “ऐ अल्लाह! मैं हाज़िर हूँ, बस तेरा हूँ।” यह नारा पूरे सफ़र में दिलों को जोड़ता है और एक इख़लास से भरी फ़िज़ा बना देता है। यह उस जवाब का इज़हार है जो इंसान अपने रब की पुकार पर देता है — कि मैं तेरी राह में चलने को तैयार हूँ।
हज के हर अमल का एक गहरा मतलब होता है। शुरुआत होती है तवाफ़ से — सात बार काबा के चारों ओर घूमना, जो इस बात की तर्जुमानी है कि हमारे जीवन का केंद्र अल्लाह होना चाहिए। इसके बाद आता है सई, जिसमें हाजी सफा और मरवा नामी दो पहाड़ियों के बीच सात बार चलते हैं। यह हज़रत हाजरा (अ.स.) की उस बेपनाह माँ की कोशिश की याद है, जिन्होंने अपने प्यासे बेटे इस्माईल (अ.स.) के लिए रेगिस्तान में पानी ढूंढा। यह अमल उम्मीद, मातृत्व और अल्लाह पर यक़ीन की मिसाल बन गया है।
हज का सबसे अहम पड़ाव अराफात का मैदान है, जहाँ 9 ज़िल-हिज्जा को दोपहर से लेकर सूरज ढलने तक हाजियों की भीड़ अल्लाह से माफ़ी, दुआ और खुद से रुबरु होने में लग जाती है। यहीं पर नबी-ए-अकरम (स.अ.व.) ने अपना आख़िरी ख़ुत्बा दिया था — जिसमें इंसानी बराबरी, इंसाफ़ और इज़्ज़त से पेश आने की तालीम दी थी। उन्होंने साफ़ कहा था: “किसी अरबी को अजमी पर, किसी गोरे को काले पर कोई बड़ाई नहीं, बड़ाई सिर्फ़ परहेज़गारी में है।”
अराफात के बाद हाजियों का काफ़िला मुज़दलिफ़ा की तरफ़ बढ़ता है, जहाँ रात गुज़ारने के बाद वे मिना पहुँचते हैं। यहां पर तीन शैतानी निशानों पर कंकड़ फेंके जाते हैं, जो हज़रत इब्राहीम (अ.स.) की उस कोशिश की याद हैं जब उन्होंने शैतान की फुसलाहट को ठुकराया था। इसके बाद जानवर की क़ुर्बानी दी जाती है — अक्सर बकरी या भेड़ — जो इब्राहीम (अ.स.) की अपने बेटे की क़ुर्बानी देने की तैयारियों की मिसाल है। यह क़ुर्बानी हमें त्याग, आज़माइश और गरीबों की सेवा का पैग़ाम देती है।

क़ुर्बानी के बाद मर्द अपने बाल मुँडवाते या कटवाते हैं और औरतें थोड़ा बाल काटती हैं — यह आत्मा की ताज़गी और हज की मुकम्मलता की निशानी है। इसके बाद आख़िरी बार तवाफ़ होता है — जो हज का आख़िरी अमल होता है। मगर असली मक़सद यह नहीं कि बस रस्में पूरी हो जाएं — असली मक़सद है एक नया इंसान बनकर लौटना, जो ज़्यादा दरियादिल, ज़्यादा इंसाफ़पसंद और ज़्यादा नम्र हो।
हज का पैग़ाम बराबरी का है — जो इस्लाम की बुनियाद में शामिल है। आख़िरी ख़ुत्बे में नबी (स.अ.व.) ने यह बात दुनिया के सामने रख दी थी कि इंसान का दर्जा रंग, नस्ल या ज़ुबान से तय नहीं होता, बल्कि उसके किरदार और अल्लाह से रिश्ते से होता है। आज जब दुनिया में जात-पात, नस्लभेद और नाइंसाफ़ी बढ़ रही है, हज का ये पैग़ाम हमें याद दिलाता है कि इंसानियत एक ही ख़ानदान की औलाद है — एक ही रब की पैदा की हुई।
हज एक ऐसा तजुर्बा है जो दिलों को जोड़ता है। अलग-अलग ज़मीने, भाषाएं, रंग और हैसियत रखने वाले लोग एक ही जगह इकट्ठा होते हैं। मलेशिया का कोई कारोबारी किसी भारतीय किसान के पास सो रहा होता है, या कनाडा की कोई प्रोफ़ेसर इंडोनेशिया की एक घरेलू महिला के साथ सफा और मरवा के दरमियान चल रही होती है। सब एक जैसे, एक ही रास्ते पर, एक ही रब के बंदे।

इस सफ़र का असर लोगों के दिलों पर गहरा होता है। मैल्कम एक्स — अमरीकी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता — जब 1964 में हज से लौटे तो उन्होंने कहा कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि अलग-अलग रंगों के लोग इस क़दर भाईचारे से रह सकते हैं। उन्होंने बताया कि गोरे मुसलमान, काले मुसलमानों से गले मिलते हैं, साथ खाते-पीते हैं। उन्हें यक़ीन हो गया कि नस्लभेद इस्लाम का हिस्सा नहीं हो सकता। यह अनुभव उनके जीवन और संघर्ष का नया मोड़ बन गया।
मैल्कम एक्स ने अमेरिका को पैग़ाम दिया: “अमेरिका को इस्लाम को समझना चाहिए, क्योंकि यही वह मज़हब है जो नस्लभेद को मिटाता है। मैंने इस्लामी दुनिया में ऐसे गोरे लोगों के साथ खाया-पीया, जो अमेरिका में ‘सफेद’ कहे जाते हैं, लेकिन इस्लाम ने उनके दिल से यह घमंड निकाल दिया था। ऐसा सच्चा भाईचारा मैंने पहले कभी नहीं देखा था।”
हज इंसान को खुद से बाहर लाकर दूसरों की फ़िक्र करना सिखाता है। लंबी क़तारों में खड़ा होना सब्र सिखाता है, भीड़ में रहना नम्रता और दूसरों की तकलीफ़ देखकर रहम दिल बनाता है। यह सबक शांति भरे समाज की बुनियाद हैं। आज जब दुनिया मज़हब, जाति और सियासत में बंटी हुई है, हज हमें याद दिलाता है कि अगर हम एक-दूसरे को इंसान समझें, तो एकता मुमकिन है।
हज के बाद मुसलमानों से यह तवक़्क़ो की जाती है कि उनकी ज़िंदगी बदल जाए — वह ज़्यादा सच्चे, दयालु और इंसाफ़पसंद बनें। हज की बराबरी का तजुर्बा उन्हें यह सोचने पर मजबूर करे कि अपने समाजों में फैली जात-पात, रंगभेद, अमीरी-ग़रीबी और लिंगभेद जैसी नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। भारत जैसे देशों में, जहाँ समाज में गहरे भेद हैं, हज की तालीम एक नया रास्ता दिखा सकती है।

आख़िर में, हज सिर्फ़ मक्का की तरफ़ सफ़र नहीं है — यह दिल की तरफ़ भी एक सफ़र है। यह इंसान के बाहरी मुखौटे उतार देता है और उसकी असल पहचान सामने लाता है। यह रब से रिश्ता मज़बूत करता है और इंसानों से जुड़ाव गहरा करता है। हज सिखाता है कि किसी का रंग, ज़ुबान या हैसियत उसे बड़ा नहीं बनाती — इंसानियत का मापदंड सिर्फ़ उसके किरदार में है।
हज एक ऐसा आलमी पैग़ाम है जिसमें विविधता में एकता की मिसाल है। यह मुसलमानों के लिए एक फर्ज़ तो है ही, लेकिन पूरी इंसानियत के लिए एक उम्मीद का संदेश भी है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारे बीच जो फ़र्क़ हैं, वो असल नहीं हैं — असल बात है कि हम सब एक ही रब की मख़लूक़ हैं, और एक-दूसरे की इज़्ज़त और बराबरी हमारे फर्ज़ हैं।
डॉ. उज़मा खातून, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इस्लामी अध्ययन विभाग में पढ़ा चुकी हैं।