“अगर दुनिया देखती है और फिर भी कुछ नहीं करती, तो हम सब मारे जाएंगे।”

‘Hotel Rwanda’ फिल्म का यह संवाद केवल एक किरदार की चिंता नहीं है, यह एक पूरे दौर की चीख है जिसे दुनिया ने सुना और अनसुना कर दिया। यह फिल्म 1994 में रवांडा में हुए नरसंहार की पृष्ठभूमि में बनी है, जिसमें एक लाख से अधिक तुत्सी और उदार हुतू लोगों की हत्या कर दी गई थी। यह केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक दस्तावेज़ है जो यह याद दिलाता है कि कैसे इंसान अपनी पहचान, जाति, नस्ल या धर्म के नाम पर हैवान बन जाता है।

फिल्म का नायक, पॉल रूसेसबगिना, रवांडा की राजधानी किगाली के एक होटल का मैनेजर है। वह एक हुतू है लेकिन उसकी पत्नी तुत्सी है। जब देश में नफरत की लपटें उठती हैं और तुत्सियों की सुनियोजित हत्या शुरू होती है, तब पॉल अपने होटल को एक सुरक्षित पनाहगाह में बदल देता है और 1200 से अधिक लोगों की जान बचाता है। फिल्म में डॉन चीडल ने पॉल की भूमिका निभाई है और उन्होंने इतनी संजीदगी से इसे जिया है कि दर्शक खुद को उस नरसंहार के बीच खड़ा महसूस करते हैं। फिल्म पॉल को सुपरहीरो नहीं बनाती, बल्कि उसे एक कमजोर, डरपोक, लेकिन ज़मीर वाले इंसान के रूप में दिखाती है। वह सत्ता के सामने गिड़गिड़ाता है, घूस देता है, झूठ बोलता है — लेकिन इन सबका मक़सद सिर्फ एक होता है — जान बचाना। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है कि वह हमें यह समझने देती है कि नायकत्व असाधारण नहीं, बल्कि मानवीय हो सकता है।

‘Hotel Rwanda’ को एक नायाब फिल्म बनाती है उसकी सादगी में छिपी मार्मिकता। न इसमें लाउड म्यूजिक है, न ज़रूरत से ज़्यादा नाटकीय दृश्य। इसकी सबसे बड़ी ताक़त इसकी चुप्पी है। वह चुप्पी जो एक बच्चे की लाश के पास खड़ी मां के चेहरे पर है, वह चुप्पी जो होटल के गलियारे में दुबके बच्चों की आंखों में है। यह वही चुप्पी है जिसे अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक “Identity and Violence” में पहचानते हैं, जब वे कहते हैं:

“The world is not only composed of different identities, but also of people who see others only through a singular identity.”

(दुनिया सिर्फ अलग-अलग पहचानों से नहीं बनी, बल्कि उन लोगों से भी बनी है जो दूसरों को केवल एक पहचान के चश्मे से देखते हैं।)

इस विचार को फिल्म बहुत प्रभावी तरीके से चित्रित करती है। रवांडा में तुत्सी और हुतू की पहचान एक औपनिवेशिक विरासत थी, जिसे बेल्जियम के उपनिवेशवाद ने गहराई से बोया और छोड़ दिया। फिल्म इस ऐतिहासिक सन्दर्भ को स्पष्ट रूप से नहीं बताती, लेकिन इसकी परछाई हर दृश्य में महसूस होती है। फिल्म का एक सबसे त्रासद दृश्य तब आता है जब संयुक्त राष्ट्र के शांति सैनिक होटल को छोड़कर चले जाते हैं, क्योंकि उन्हें केवल विदेशी नागरिकों की सुरक्षा का आदेश है। पॉल रोता है, गिड़गिड़ाता है, लेकिन दुनिया मूक बनी रहती है। यह वही मूकता है जिसे हम आज भी सीरिया, सूडान, या फिलिस्तीन में दोहराते देखते हैं। यह वही चुप्पी है जो भारतीय मीडिया में तब दिखाई देती है जब किसी दलित या आदिवासी की हत्या होती है, लेकिन ख़बर नहीं बनती क्योंकि वह ‘महत्वपूर्ण’ नहीं माने जाते। फिल्म में संयुक्त राष्ट्र की एक अधिकारी बताती है “जब मैं अनाथालय में पहुंची तो उससे पहले ही हुतू समुदाय के दंगाई वहाँ पहुंच चुके थे। वह दोनों बहनें बच्चियां थीं। उसकी छोटी बहन को वह लोग पहले ही मार चुके थे। बड़ी बहन दौड़ कर मेरे पास आई और मुझ से लिपट गयी। उसे लगा कि मैं उसे बचा लूंगी। वह ज़ोर-ज़ोर से कहने लगी कि मुझे बचा लो मैं वादा करती हूं, अब से मैं तुत्सी नही रहूंगी। लेकिन उन्होंने मेरे सामने उसे भी मार दिया और मुझे यह सब देखने को मजबूर किया।”

rrwanda genocide museum

रवांडा नरसंहार में मासूम बच्चों को यह कह कर मारा जा रहा था कि ‘हम तुत्सीयों की नस्ल खत्म करना चाहते हैं’  सोचिए इतनी नफ़रत उनके अंदर कहाँ से आई की एक मासूम बच्ची भी उन्हें सिर्फ तुत्सी नज़र आई ? कैसे आपकी एक पहचान इतनी प्रभावशाली हो जाती है की उसकी वजह से आप इतने हिंसक और क्रूर हो जाते हैं कि एक मासूम का कत्ल करने से भी नही झिझकते ? अमर्त्य सेन अपनी किताब”identity and violence” में लिखते हैं “सामान्य लोगों पर विशेष पहचान थोप दी जाती है ताकि दोस्त को दुश्मन बनाया जा सके। 1940 में हिन्दू और मुसलमान भारतीय नही रहे। उनकी भारतीय पहचान छोटी हो गई हिन्दू और मुसलमान से।” आप को हत्यारा बनाने के लिए आपकी कौन सी पहचान को ज़्यादा महत्व देना है ? इसका निर्धारण आप नही करते। ये धार्मिक,राजनीति, सामाजिक सत्ता में बैठे हुए लोग तैय करते हैं उदाहरण के रूप में समझें हिन्दू और मुसलमान के संघर्ष में मैं मुसलमान बन जाता हूं फिर मुसलमानों के अंदर सुन्नी जो शिया से अलग हैं, फिर सुन्नी के अंदर हनफ़ी जो अहले हदीस(वहाबियों) से अलग हैं, फिर हनफ़ी के अंदर अहले सुन्नत वल जमात(बरेलवी) जो देवबंदियों से अलग हैं। ये श्रेणियों का निर्माण संघर्ष से पहले होता है। आपको किसी खास सांचे में डाल दिया जाता है और बताया जाता है कि आप ही सही हैं दूसरा पूरी तरह गलत। जैसाकि ज्यां पाल सात्रे लिखते हैं ‘यहूदी आदमी होता है जिसे दूसरे लोग यहूदी के रूप में देखते हैं। यहूदी विरोधी लोग यहूदियों की पहचान आम मनुष्यों से अलग बनाते हैं।’ इसी तरह हम तुत्सी, रोहिंग्या, वीगर आदि के बारे में भी कह सकते हैं।

इस समीक्षा को केवल एक सिनेमाई विश्लेषण के रूप में देखना शायद गलत होगा। ‘Hotel Rwanda’ को समझना, उसे महसूस करना एक नैतिक और मानवीय जिम्मेदारी है। फिल्म कई कठिन सवाल उठाती है – क्या अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं केवल पश्चिमी हितों के लिए काम करती हैं? क्या मीडिया की भूमिका केवल वही है जिसे बड़े राष्ट्र तय करें? क्या हम केवल दर्शक हैं या हम किसी की जान बचाने के लिए अपनी भूमिका निभा सकते हैं?

Don Cheadle stars in Hotel Rwanda.

रवांडा में ये काम पत्र-पत्रिका (‘कंगूरा’)के साथ विशेष तौर से रवांडा रिडियो ने किया जिसका नाम , ‘आरटीएलएम’ था। इसने लोगों से आह्वान किया कि, ‘तिलचट्टों को साफ़ करो’ मतलब तुत्सी लोगों को मारो। लोगों को बार-बार इस बात के लिए प्रेरित किया गया कि वह अपने पड़ोसियों की हत्या करें। ‘होटल रवांडा’ फ़िल्म इसी रेडियों की आवाज़ से शुरू होती है। रिडियो हुतू समुदाय की भावनाओं को भड़काने के लिए झूठा प्रोपोगेंडा चलाते हैं। उनसे कहा जाता है कि तुत्सी राजतन्त्र कायम करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें हुतू लोगों को गुलाम बनाकर रखा जाएगा। इन रेडियो स्टेशनों ने हुतू और तुत्सी समुदाय के बीच किसी भी बातचीत या शांति समझौते का खुलकर विरोध किया, शांति के प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया, हुतू मिलिशिया समूहों का समर्थन किया। इस सन्दर्भ में एलिन थॉम्पसन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘द मीडिया एंड रवांडा जेनोसाइड’ एक उपयोगी दस्तावेज़ है। इसमे बताया गया है कि कैसे धीरे-धीरे बहुसंख्यकों(हुतू) के दिल में अल्पसंख्यक (तुत्सीयों) के लिए नफ़रत भरी गई। ये एक दिन में नही हुआ।

मीडिया ने बहुसंख्यकों की पूर्वाग्रहों को बल दिया जो तुत्सीयों के ख़िलाफ़ थी। इतिहास में इन दोनों समुदायों के बीच पहले भी संघर्ष हुए थे। उन संघर्षो को आधार बनाया गया। तुत्सीयों को शैतान बताया गया। तुत्सी औरतों को हुतू मर्दों को प्रेम जाल में फंसाने वाली औरतों के रूप में प्रचारित किया गया। उसके बाद जो हुतू तुत्सीयों के पक्ष में थे उनके ख़िलाफ़ भी इसी तरह का प्रोपोगेंडा चलाया गया। उनको गद्दार, देशद्रोही बोला गया। कोशिश की गई कि कैसे भी इन सेक्यूलर हुतुओं की बातों का असर हुतू समाज पर न पड़े। अंत मे इस प्रोपोगेंडा का असर हुआ। हूतू समुदाय से जुड़े लोगों ने अपने तुत्सी समुदाय के पड़ोसियों और रिश्तेदारों को मार डाला।यही नहीं, कुछ हूतू युवाओं ने अपनी पत्नियों को सिर्फ़ इसलिए मार डाला क्योंकि अगर वो ऐसा न करते तो उन्हें जान से मार दिया जाता। उन्होंने तुत्सीयों की औरतों को सेक्स स्लेव बना दिया। तुत्सीयों के महिलाओं को मारने से पहले उनके साथ सामुहिक बलात्कार किए गए।  मीडिया ने देखते ही देखते पूरे हुतू समुदाय को हत्यारा-बलात्कारी बना दिया। रिडियो से लगातार लोगों को मारने की लिस्ट जारी की जाती और लोग उन्हें मार देते। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने पहले इसे आंतरिक मामला बताया फिर नस्लीय संघर्ष बोला। जब मामला हाथ से निकल गया तब जा कर इसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसे जन-संहार की उपमा दी।

फिल्म में पॉल की बेटी पूछती है – “क्या हम मरने वाले हैं?” और पॉल का जवाब होता है – “नहीं, क्योंकि मैं तुम्हें बचाऊंगा।” यह एक पिता का उत्तर भर नहीं है, यह हर उस इंसान की जवाबदेही है जो किसी के लिए कुछ कर सकता है और करता है। फिल्म का निर्देशन टेरी जॉर्ज ने किया है और वह नायक की कहानी को किसी महापुरुष की तरह नहीं, बल्कि एक सामान्य व्यक्ति की तरह दिखाते हैं जो अपनी मानवीयता से असाधारण बन जाता है। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है – यह हमें बताती है कि नायक बनने के लिए बंदूक नहीं, बल्कि नैतिक साहस चाहिए।

डॉन चीडल का अभिनय इतना स्वाभाविक है कि कई बार लगता है वह अभिनय नहीं कर रहे, बल्कि सचमुच किसी को बचा रहे हैं। सोफी ओकोनेडो ने उनकी पत्नी की भूमिका में डर, हिम्मत और प्रेम को बखूबी निभाया है। उनके बीच का रिश्ता हमें याद दिलाता है कि प्रेम और परिवार ऐसे समय में भी जीने की वजह बनते हैं जब दुनिया मौत की फैक्ट्री बन चुकी होती है।

फिल्म में अंतरराष्ट्रीय पत्रकार जब नरसंहार की फुटेज शूट करता है, तो पॉल उम्मीद करता है कि यह देखकर दुनिया जागेगी। लेकिन पत्रकार कहता है, “लोग टीवी देखेंगे, दुखी होंगे और खाना खा लेंगे।” यही आज की मीडिया की सच्चाई है – संवेदना को कुछ मिनटों की हेडलाइन बना देना और फिर भूल जाना। यह दृश्य हमें भारतीय मीडिया की भी याद दिलाता है जो अधिकतर समय सनसनी पर टिक जाती है और असली मुद्दों से आंख मूंद लेती है। जैसे अमर्त्य सेन कहते हैं: “Violence is fomented by the imposition of a singular identity on people who have multiple affiliations.” (हिंसा तब पैदा होती है जब लोगों पर उनकी अनेक पहचानों के बावजूद केवल एक पहचान थोप दी जाती है।)

आज भारत में कुछ मीडिया चैनल उसी खतरनाक रास्ते पर चलते दिख रहे हैं। पहलगाम जैसे आतंकी हमलों के बाद मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खबरों को हिंदू-मुसलमान के चश्मे से दिखाता है, जिससे समाज में शक, डर और नफरत बढ़ती है। टीवी पर चीखते एंकर, सनसनीखेज सुर्खियाँ और बार-बार मुसलमानों को शक के घेरे में डालना – ये सब मिलकर हमारी सोचने-समझने की ताकत को खत्म कर रहे हैं। लोग बिना तर्क किए, बिना सवाल पूछे, एक ही दिशा में सोचने लगते हैं। ऐल्डस हक्स्ले ने ठीक ही कहा है कि सभी प्रोपेगेंडा फैलाने वालों का यही उद्देश्य रहता है कि एक वर्ग के लोगों को इतना हिंसक बना दिया जाए कि वे यह भूल जाएं कि दूसरे वर्ग के लोग भी इंसान हैं। ‘Hotel Rwanda’ इसी थोपने की प्रक्रिया को उजागर करती है – जब तुत्सियों को केवल तुत्सी के रूप में देखा गया, इंसान के रूप में नहीं। यही हमारे समाजों की सबसे बड़ी त्रासदी है।

भारत में मीडिया का परिदृश्य विशाल है, जिसमें लगभग 21,000 समाचार पत्र और 393 निजी सैटेलाइट न्यूज़ चैनल शामिल हैं।  इसके बावजूद, प्रेस स्वतंत्रता की वैश्विक रैंकिंग में भारत 159वें स्थान पर है, जो दर्शाता है कि संख्या के बावजूद गुणवत्ता और स्वतंत्रता में गिरावट आई है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अब सत्ता के साथ खड़ा दिखाई देता है, और कई बार समाचारों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि वे समाज में विभाजन और नफ़रत को बढ़ावा देते हैं।  उदाहरण के लिए, कुछ चैनल किसी भी मुद्दे को मुस्लिम विरोधी रंग देने का प्रयास करते हैं, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है। टीवी डिबेट्स में अक्सर ऐसे लोगों को बुलाया जाता है जो पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते, लेकिन उन्हें उस समुदाय की आवाज़ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।  एंकरों द्वारा उन पर चिल्लाना और उन्हें नीचा दिखाना आम हो गया है, जिससे दर्शकों की कुंठा को संतुष्टि मिलती है और टीआरपी बढ़ती है। कुछ पत्रकार जो सच बोलने का प्रयास करते हैं, उन्हें या तो चैनलों से हटा दिया जाता है या उन्हें ‘देशद्रोही’ करार दिया जाता है।  इससे स्वतंत्र पत्रकारिता पर खतरा मंडराता है और मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगता है।

फ़िल्म में पॉल रूसेसाबगीना यह मानने को तैयार ही नही होता है कि मीडिया द्वारा फैलाई जा रही हिंसा कभी इतनी भयानक होगी। जब उसके दोस्त और ड्राइवर उससे पूछता है कि ‘क्या उन्हें रवांडा छोड़ देना चाहिए ?’ तो पॉल रूसेसाबगीना जवाब देता है कि –“मैं मानता हूं कि तुत्सीयों पर अत्याचार हो रहा है पर हालात इतने भी खराब नही हैं” उसे लगता है कि वह बड़े-बड़े लोगों से मिल रहा है। अगर कोई मुसीबत आती है तो वे लोग उसे बचा लेंगे। पर जब जन-संहार शुरू होता है तब वह अपने को असहाय महसूस करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बिलकलिंटन अपने 257 नागरिकों को निकालने के लिए सेना भेजते हैं। उन नागरिकों के साथ आए कुत्तों को भी बचा लिया जाता है पर रवांडा के तुत्सीयों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। UN ने अपने सैनिकों को गोली न चलाने के आदेश दिए थे । बेल्जियम की सेना भी मूक दर्शक बनी खड़ी रही। फ़िल्म में UN शांति सेना के जनरल डलायर पॉल रूसेसाबगीना से कहते हैं कि –”तुम लोग इन गोरों के लिए कुछ नहीं हो, एक वोट भी नहीं। तुम्हारी जान की परवाह वह सब क्यों करें? तुम उनके लिए बस एक गन्दे काले इंसान हो!”

‘Hotel Rwanda’ हमें बताती है कि कभी-कभी एक व्यक्ति की नैतिकता, पूरी दुनिया की अमानवीयता पर भारी पड़ सकती है। यही इसका असल संदेश है – चुप मत रहो। मीडिया के जहर से अगर हम समय रहते नहीं जागे, तो वही अंजाम हमारा भी हो सकता है, जैसा रवांडा में हुआ था – धर्म के नाम पर इंसानियत का कत्ल। हमें हर खबर को तर्क और सवालों के साथ देखना होगा, और हर इंसान को उसके मजहब से नहीं, इंसानियत से पहचानना होगा। यही हमारे समाज और देश की असली ताकत है। ही अंजाम हमारा भी हो सकता है, जैसा रवांडा में हुआ था – धर्म के नाम पर इंसानियत का कत्ल। हमें हर खबर को तर्क और सवालों के साथ देखना होगा, और हर इंसान को उसके मजहब से नहीं, इंसानियत से पहचानना होगा। यही हमारे समाज और देश की असली ताकत है।

फिल्म का अंत उम्मीद से भरा है लेकिन वह उम्मीद भी संघर्ष और आंसुओं से होकर आती है। पॉल अपने परिवार और शरणार्थियों को बचाकर सीमा पार कर लेता है। लेकिन जिन हजारों लोगों को वह नहीं बचा पाया, उनकी चीखें फिल्म के हर दृश्य में गूंजती रहती हैं। यह फिल्म देखने के बाद दर्शक सिर्फ सिनेमाघर से नहीं निकलता, वह एक बोझ के साथ निकलता है – कि हम सब इस हत्या के गवाह हैं। Hotel Rwanda सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना की डॉक्यूमेंट्री नहीं, बल्कि एक चेतावनी है — कि अगर हम इंसान को सिर्फ उसकी जाति, धर्म या नस्ल के आधार पर पहचानेंगे, तो हम भी किसी दिन ऐसे ही नरसंहार का हिस्सा बन सकते हैं, चाहें चाहकर या अनजाने में। फिल्म का अंत आपको रुला सकता है, लेकिन उससे भी ज़्यादा जरूरी है कि वह आपको सोचने पर मजबूर करे। आज जब भारत समेत पूरी दुनिया में पहचान की राजनीति और नफ़रत का ज़हर फैलता जा रहा है, इस फिल्म को देखना सिर्फ ज़रूरी नहीं, बल्कि नैतिक ज़िम्मेदारी है। यह समीक्षा न केवल फिल्म की सराहना है, बल्कि एक आग्रह भी — आइए हम अपने अंदर झांकें, और सोचें कि हम किस तरफ खड़े हैं — उस आदमी के साथ जो होटल खोलकर जान बचा रहा है, या उस भीड़ के साथ जो रेडियो सुनकर दरांती उठा रही है।

abdullah