भारतीय कानून में आरक्षण को लेकर हमेशा एक सीमित दृष्टिकोण रहा है। अक्सर आरक्षण के विशेष प्रावधानों को समानता के सिद्धांत (अनुच्छेद 14, 15(1), और 16(1)) के अपवाद या सिर्फ एक सुविधा के रूप में देखा गया है, जबकि इसे एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाना चाहिए। लोग सोचते हैं कि आरक्षण सिर्फ गरीबी दूर करने या कुछ लोगों को मदद देने के लिए है। वे यह नहीं समझते कि आरक्षण समाज में विविधता लाकर सबको फायदा पहुंचा सकता है।
1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह मामले में आए फैसले ने इसी सीमित सोच को उजागर किया। इस मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति श्रेणी के भीतर उप-वर्गीकरण पर ध्यान दिया गया था। फैसले में सही ढंग से इन समूहों के भीतर विविधता को स्वीकार किया गया और उप-वर्गीकरण की वैधता को मान्यता दी गई, लेकिन साथ ही इसमें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आरक्षण में क्रीमी लेयर सिद्धांत को लागू करने का सुझाव भी दिया गया, जो अब तक केवल ओबीसी आरक्षण तक सीमित था।
इस फैसले पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय में मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आई हैं, विशेषकर क्रीमी लेयर सिद्धांत के खिलाफ कड़ा विरोध देखने को मिला। उप-वर्गीकरण के संदर्भ में, यह फैसला राज्यों के लिए बाध्यकारी नहीं है, बल्कि यह एक सुविधा देता है, जिससे राज्य ठोस आंकड़ों के आधार पर उप-वर्गीकरण कर सकते हैं, जो न्यायिक समीक्षा के दायरे में होगा।
महार, चमार, जाटव, दुसाध जैसी प्रमुख अनुसूचित जातियों ने उप-वर्गीकरण का विरोध किया है। उनके विरोध के पीछे कुछ मुख्य कारण हैं:
- सामाजिक एकता की चिंता
- योग्यता का सवाल
- आंकड़ों की कमी
- उप-कोटा के बजाय कौशल विकास और आर्थिक पैकेज की मांग
- मौजूदा कोटा का सही क्रियान्वयन
- निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग
- राजनीतिक शक्ति की प्राथमिकता
वे इसे आरएसएस-बीजेपी की अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को बांटने की चाल के रूप में भी देखते हैं। इनमें से कुछ तर्क वही हैं जो उच्च जातियों द्वारा आरक्षण के खिलाफ दिए जाते रहे हैं।
उनका कहना है कि सरकारी नौकरियों और शिक्षा में प्रतिनिधित्व के आंकड़े पहले से उपलब्ध हैं, भले ही वे कच्चे रूप में हों, क्योंकि आरक्षण का लाभ लेने वालों को अपनी जाति का प्रमाणपत्र देना होता है। कई आयोगों ने उप-वर्गीकरण की मांग का अध्ययन और समर्थन किया है। इसकी मांग 1970 के दशक में पंजाब से शुरू हुई और 1990 के दशक में मादिगा रिजर्वेशन पोराता समिति जैसे संगठनों के माध्यम से गति पकड़ी। इसलिए इसे सिर्फ एक राजनीतिक चाल कहना उचित नहीं है।
इस फैसले का सबसे विवादास्पद पहलू क्रीमी लेयर सिद्धांत का विस्तार है। दिलचस्प बात यह है कि दविंदर सिंह मामले या इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में क्रीमी लेयर का मुद्दा नहीं था। उस समय नौ जजों की बेंच ने फैसला दिया था कि क्रीमी लेयर सिद्धांत केवल ओबीसी पर लागू होगा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति पर नहीं। फिर भी, सात जजों की बेंच ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आरक्षण पर क्रीमी लेयर सिद्धांत लागू करने की वकालत की है। इससे उन लोगों में चिंता है जो इसे आरक्षण के उद्देश्य को कमजोर करने वाला मानते हैं। कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने स्पष्ट किया है कि क्रीमी लेयर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कोटे पर लागू नहीं होता। लेकिन इस हालिया फैसले ने इसे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति श्रेणी पर लागू करने की संभावना बढ़ा दी है।
आरक्षण का मुख्य उद्देश्य हाशिए के समूहों को निर्णय लेने की जगहों पर प्रतिनिधित्व और आवाज देना है, न कि सिर्फ गरीबी दूर करना या रोजगार देना। क्रीमी लेयर सिद्धांत लागू करने से, विशेष रूप से क्लास ए की नौकरियों में, आरक्षण का उद्देश्य ही खत्म हो सकता है। इससे पीढ़ियों से विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जाति के अधिकारियों और पहली पीढ़ी के ओबीसी अधिकारियों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है, जिसमें अक्सर ओबीसी प्रभावशाली पदों से बाहर हो जाते हैं। इससे नीति निर्माण में उनकी ‘आवाज’ कम हो जाती है।
प्रमुख जातियों को सबूतों के आधार पर उप-वर्गीकरण को स्वीकार करना चाहिए। साथ ही जाति जनगणना, कोटे की 50% सीमा हटाने, क्रीमी लेयर प्रावधान, और निजी क्षेत्र में विविधता बढ़ाने जैसे मुद्दों पर व्यापक बहुजन एकजुटता बनानी चाहिए। लेकिन अगर वे विरोध जारी रखते हैं, तो उनकी वैधता कम हो सकती है। क्योंकि जदयू और टीडीपी जैसे सहयोगी दल उप-वर्गीकरण का समर्थन करते हैं, इसलिए संविधान संशोधन की संभावना कम है।
(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार है)
अनुवाद: अब्दुल्लाह मंसूर