~ अब्दुल्लाह मंसूर
नेटफ्लिक्स की सीरीज़ ‘घोउल’ डरावनी कहानियों की दुनिया में एक अलग और गंभीर अनुभव है। यह कोई आम हॉरर ड्रामा नहीं, बल्कि एक ऐसा आईना है जिसमें हम अपने समाज की सच्चाई, सत्ता की सख़्ती और राष्ट्रवाद के नाम पर फैलाए गए डर को साफ़ देख सकते हैं। यह कहानी दिखाती है कि असली राक्षस कभी-कभी इंसान ही होते हैं—वे जो सच्चाई से डरते हैं, सवालों को कुचलते हैं और इंसानियत के नाम पर ज़ुल्म करते हैं। ‘घोउल’ सिर्फ भूतों से नहीं डराती, यह उस माहौल से डराती है जहाँ किताबें जुर्म हैं, सवाल गुनाह हैं, और चुप रहना सबसे बड़ा अपराध बन चुका है। यह समीक्षा उसी डर, अन्याय और चेतावनी को समझने की एक कोशिश है—आसान भाषा में, लेकिन गहरी बातों के साथ।
कहानी एक ऐसे समय में घटती है जो हमारा बहुत ही नज़दीकी भविष्य है, बल्कि यूँ कहें कि हमारा आज ही है। एक ऐसा समाज जहाँ किताबें पढ़ना, सवाल पूछना और इंसानियत की बात करना देश के खिलाफ माना जाता है। कैमरे हर जगह लगे हैं, लोगों की बातें रिकॉर्ड हो रही हैं, और सोचने तक की आज़ादी छीनी जा रही है। इसी दुनिया में हम मिलते हैं निदा रहीम से—एक मुस्लिम लड़की जो बहुत ही देशभक्त है और सेना में शामिल है। लेकिन वह इतना भरोसा करती है कि अपने अब्बू को सिर्फ इसलिए सेना को सौंप देती है क्योंकि वह कुछ अलग किताबें पढ़ रहे थे।

निदा की सोच उस आम सोच की मिसाल है जिसमें राष्ट्रवाद का मतलब होता है सिर्फ सरकार से सहमत रहना। जो सरकार से सवाल करता है, वो देशद्रोही कहलाता है। रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, “देशभक्ति मेरा आखिरी सहारा नहीं हो सकती, मेरा सहारा मानवता है।” यही बात ‘घोउल’ हमसे कहती है, लेकिन डर की भाषा में। यह सीरीज़ हमसे पूछती है—क्या हम सिर्फ आज्ञाकारी नागरिक हैं या सोचने वाले इंसान भी?
‘घोउल’ का नाम एक अरबी किस्से से लिया गया है, जहाँ एक जिन्न इंसानों से उनकी आत्मा लेकर उनके काम करता है। लेकिन इस कहानी में यह घोउल एक संकेत बन जाता है—उस राक्षसी सोच का जो सत्ता के नाम पर इंसानों को खा रही है। यह घोउल उन लोगों की सच्चाई उजागर करता है जो बाहर से अच्छे दिखते हैं लेकिन उनके अंदर पाप और हिंसा भरी है। जब वह किसी को खाता है, तो पहले उसका गुनाह सबके सामने लाता है।
कहानी का मुख्य हिस्सा ‘मेघदूत-31’ नाम की एक गुप्त जेल में घटता है जहाँ सेना संदिग्ध लोगों से पूछताछ करती है। यह जगह पहले परमाणु हमले से बचने के लिए बनी थी, अब लोगों की सोच को बदलने के लिए यातना केंद्र बन गई है। जब अली सईद नाम का एक कथित आतंकवादी वहाँ लाया जाता है, तो कुछ अजीब घटनाएँ शुरू होती हैं। धीरे-धीरे साफ़ होता है कि कोई भूत या आत्मा वहाँ मौजूद है। लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकती—यह आत्मा असल में उन पापों की सजा देने आई है जो इंसानों ने दूसरों पर किए हैं।
निदा को ट्रेनिंग के दौरान इसी सेंटर में बुलाया जाता है। वहाँ उसके धर्म को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। एक अफसर उससे पूछती है, “यहाँ आने वाले ज़्यादातर आतंकवादी तुम्हारे ही धर्म से हैं, तुम्हें कैसा लगता है?” यह सवाल असल में समाज में बैठे उस सोच को दिखाता है जिसमें धर्म के नाम पर भेदभाव किया जाता है। मुसलमान होना जैसे अपने आप में शक का कारण बन जाता है। यह बात सिर्फ एक संवाद में नहीं, पूरी कहानी में बार-बार सामने आती है।
यह सीरीज़ अपने दृश्यों और संवादों से दिखाती है कि कैसे सत्ता लोगों की सोच पर काबू पा लेती है। ‘मेघदूत-31’ एक ऐसी जगह है जहाँ इंसानों को इंसान नहीं समझा जाता। वहाँ सेना ही जज है, वही सज़ा देती है, और वही तय करती है कि कौन सही है और कौन ग़लत। यह बहुत खतरनाक बात है क्योंकि जब सेना या सरकार को कोई भी रोकने वाला न हो, तो वह कभी भी ज़ुल्म कर सकती है। दुनिया के कई हिस्सों में ऐसा हो चुका है—जर्मनी में हिटलर के समय, म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ, और अफगानिस्तान में आम लोगों के साथ।
एक बहुत ही भावुक दृश्य में अहमद नाम के एक बंदी को अपने परिवार के सामने गोली मारी जाती है, सिर्फ इसलिए कि वह सच नहीं बता रहा था। ये दृश्य दिखाया नहीं गया, लेकिन उसका असर बहुत गहरा होता है। यह दर्शाता है कि जब सत्ता अपनी हदें पार कर जाती है, तो वह किसी की ज़िंदगी की परवाह नहीं करती। इंसान की जान वहाँ कोई मायने नहीं रखती।
धीरे-धीरे निदा को समझ आने लगता है कि असली राक्षस बाहर नहीं, अंदर हैं—वो लोग जो दूसरों को यातना देते हैं, मारते हैं, और फिर उसे देशभक्ति का नाम देते हैं। एक सीन में जब निदा बंदूक तानती है, तो सामने वाला कहता है, “मैं इंसान हूँ, राक्षस नहीं।” निदा जवाब देती है, “नहीं, तुम राक्षस ही हो।” यही पल वह है जब निदा की सोच बदल जाती है। वह अब सरकार या सेना की आँखों से नहीं, अपने ज़मीर की आँखों से देखने लगती है।
अब निदा समझ चुकी होती है कि जिसे वह देशभक्ति समझ रही थी, वह दरअसल अंधराष्ट्रवाद था। अब वह सवाल पूछती है, विरोध करती है। लेकिन जैसे ही वह ‘मेघदूत-31’ की सच्चाई उजागर करती है, उसे ही ग़लत ठहराया जाता है। उससे पूछा जाता है, “अब क्या करोगी? पूरे देश से लड़ोगी?” यह सवाल सिर्फ निदा से नहीं, हम सबसे है। क्या हम चुप रहेंगे या कुछ बोलेंगे?
‘घोउल’ की सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि वह डर दिखा कर सोचने पर मजबूर करती है। इसमें कोई भाषण नहीं, लेकिन हर सीन एक बड़ा सवाल बन कर सामने आता है। निर्देशक पैट्रिक ग्राहम ने डर को सस्ते दिखावे की जगह एक गंभीर संदेश देने के लिए इस्तेमाल किया है। कैमरा, रोशनी और संगीत का इस्तेमाल बहुत सोच-समझ कर किया गया है, जिससे डर हमारे मन में धीरे-धीरे उतरता है।
अभिनय की बात करें तो सभी कलाकारों ने बहुत ही सच्चाई से अपने किरदार निभाए हैं। राधिका आप्टे ने निदा का किरदार गहराई से निभाया है। मानव कौल, रत्नावली भट्टाचार्जी और महेश बलराज भी अपने-अपने रोल में बिल्कुल फिट हैं। इस सीरीज़ की एक और बड़ी बात है कि इसमें डराने के लिए कोई अश्लीलता या फूहड़ जोक नहीं हैं। यह सीरीज़ पूरी तरह गम्भीर है और इसलिए और असरदार बन जाती है।
हालाँकि कुछ बातें अधूरी लगती हैं—जैसे अहमद के परिवार का मारा जाना, निदा के अब्बू को क्या-क्या यातना दी गई, ये सब खुलकर नहीं दिखाया गया। लेकिन शायद यह निर्देशक की सोच का हिस्सा था, ताकि दर्शक खुद अपने मन में इन बातों की कल्पना करें। ये अधूरे हिस्से ही कहानी को और गहरा बना देते हैं।

‘घोउल’ हमें डराकर सवाल उठाने की ताकत देता है। वह बताता है कि अगर हम चुप रहेंगे तो सच मर जाएगा, और अगर हम बोलेंगे तो हमारी आवाज़ को दबा दिया जाएगा। यही वजह है कि टैगोर कहते थे—”राष्ट्रवाद समाज के खिलाफ है, क्योंकि यह सरकार की ताकत को अंधा बना देता है।” यह सीरीज़ भी यही बात कहती है, लेकिन डर और भावनाओं की भाषा में।
आख़िर में जब निदा से पूछा जाता है, “अब क्या करोगी? पूरे राज्य से लड़ोगी?” तो यह सवाल आपके मन में भी गूंजता है। इसका जवाब एक कविता में मिलता है, जो राजेश जोशी ने लिखी थी:
“जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे कठघरे में खड़े कर दिये जाएँगे जो विरोध में बोलेंगे… सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराधी होना जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएँगे।”
‘घोउल’ सिर्फ एक डरावनी सीरीज़ नहीं है, यह आज के दौर की एक ज़रूरी कहानी है। यह हमें दिखाती है कि सच्चा डर भूतों से नहीं, इंसानों से होता है। और जब इंसान सोचने से मना कर दे, तब वह सबसे बड़ा राक्षस बन जाता है। यह सीरीज़ हर उस इंसान के लिए है जो सोचता है, सवाल करता है और इंसानियत को सबसे ऊपर मानता है।
समीक्षा अब आसान हिंदी-उर्दू शब्दों में, साफ़ और बहावदार शैली में तैयार कर दी गई है। मूल भावना बरकरार रखते हुए, भाषा को ऐसा बनाया गया है कि नया पाठक भी आसानी से समझ सके और उसमें फिल्म देखने की दिलचस्पी पैदा हो।
अगर आप इसे किसी मैगज़ीन या यूट्यूब ऑडियो स्क्रिप्ट के रूप में इस्तेमाल करना चाहें, तो मैं उस दिशा में भी संपादन कर सकता हूँ।