मसऊद आलम फलाही (Masood Alam Falahi)
मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) पिछड़ी बिरादरियों को शिक्षा का अधिकार दिए जाने कि बात दूर की है. धार्मिक दृष्टिकोण से सभी मुसलमानों को बराबर नहीं समझा गया. इस का एक उदाहरण मौलाना अशरफ़ अली थानवी (र०अ०) की किताब ‘अशरफ़-उल-जवाब’ में मिलता है. उस के अन्दर है कि-
“एक अंग्रेज़ अलीगढ़ कॉलेज में गया तो वहां देखा कि रईसों (सेठ) के लड़के पढ़ते हैं मगर सेवा करने वाले नौकर दूर खड़े रहते हैं. मालिक के पास भी नहीं बैठ सकते लेकिन नमाज़ के समय मालिक के समीप जा कर बराबर खड़े हो जाते हैं. उस अंग्रेज़ ने उन अमीरों के लड़कों से पूछा कि क्या नमाज़ में बराबर खड़े होने से ये सेवक गुस्ताख़ (दुस्साहसी) नहीं हो जाते? उन लड़कों ने जवाब दिया कि मजाल है जो नमाज़ के बाद हमारी तनिक भी बराबरी कर सकें! नमाज़ के समय की माँग यही है कि सब बराबर हों परन्तु दूसरे समय का दूसरा हुक्म है.”1
वहाँ सिर्फ़ पिछड़ी बिरादरियों के साथ ही अमानवीय और ग़ैर इस्लामी व्यवहार नहीं किया जाता था बल्कि तथाकथित शरीफ़ वर्ग को भी उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार विभिन्न समूहों में विभाजित किया गया था. अलीगढ़ विश्वविद्यालय के पूर्व लेक्चरर अतीक़ सिद्दीक़ी साहब ने अपनी किताब ‘सर सय्यद अहमद खां : एक सियासी मुताला’ में इस के बारे में संक्षिप्त लेकिन बड़ा अच्छा लेख प्रस्तुत किया है. उचित प्रतीत होता है कि उसे यहाँ नक़ल किया जाये. वो लिखते हैं कि-
“सर सय्यद के विरोधी समाचार पत्रों के हंगामे ने सर सय्यद को बाध्य किया कि मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज को केवल उच्च वर्ग के मुसलमान बच्चों एवं नौजवानों की ही शिक्षा-दीक्षा का केंद्र न बनाया जाये बल्कि निम्न वर्ग के नहीं तो कम से कम मध्य वर्ग के मुसलमान युवकों की शिक्षा के लिए मदरसा-तुल-उलूम में गुंजाईश निकाली जाये. इस लिए छात्रावास को वर्गानुसार बाँटा गया और तीन वर्ग बनाये गए. निम्न वर्ग से सम्बन्ध रखने वालों में प्रारंभिक दौर के एक विद्यार्थी मीर विलायत हुसैन भी थे जिन्होंने शिक्षा की समाप्ति के पश्चात अपना सम्पूर्ण जीवन अलीगढ़ में ही व्यतीत किया. मदरसा-तुल-उलूम की आवासीय जीवन की झलकियाँ उन की ‘आप बीती’ (28-33) में मिलती हैं.”
मीर विलायत हुसैन ने दिसम्बर 1881 में इंटर की परीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थी.
इसी दौरान अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गज़ट में ऐलान हुआ कि जो मुसलमान कलकत्ता यूनिवर्सिटी से इंटर की परीक्षा में सेकंड डिवीज़न से पास होगा और मोहम्मडन कॉलेज में प्रथम वर्ष में प्रवेश लेगा उस को दस रुपये माहवार छात्रवृत्ति कॉलेज कि ओर से प्रदान की जाएगी. यह छात्रवृत्ति मीर विलायत हुसैन को भी मिल गयी. जनवरी 1882 के मध्य में वो अलीगढ़ पहुँच गए और कॉलेज के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया. प्रवेश प्राप्ति के पश्चात् बोर्डिंग हाउस के मेनेजर ने उन से पूछा :
“बोर्डिंग हाउस कि कौन सी क्लास में दाख़िल होगे?”
“बोर्डिंग हाउस में भी क्लासेज़ होती हैं?” मीर साहब ने घबरा कर प्रश्न किया.
“यहाँ बोर्डिंग हाउस में तीन दर्जे (वर्ग) हैं” मेनेजर ने उन्हें समझाया. “और हर वर्ग के भिन्न-भिन्न ख़र्चे हैं. फर्स्ट क्लास बोर्डिंग हाउस में बीस रुपये माहवार, सेकंड क्लास में पंद्रह रुपये तथा थर्ड क्लास में दस रुपये फ़ीस है.”
“मुझ को थर्ड क्लास बोर्डिंग हाउस में दाख़िल किया जाये.” मीर विलायत हुसैन ने जवाब दिया.
मेनेजर ने उन्हें एक कच्चे बंगले की कोठरी में भेज दिया. मग़रिब (सूर्यास्त) का समय हो गया था और कोठरी साफ़ नहीं हुयी थी. पड़ोसी छात्रों ने रात को उन्हें अपनी कोठरी में रखा और रात का खाना तृतीय श्रेणी के रसोईघर से मँगा कर खिलाया. मीर विलायत हुसैन का बयान है कि-
“प्रथम श्रेणी बोर्डिंग हाउस के छात्र पक्के पार्क में रहते थे. सुबह को चाय, तोस, मक्खन, 9 बजे सुबह का खाना, 1 बजे टिफ़िन, 4 बजे शाम की चाय और मग़रिब की नमाज़ के बाद रात का खाना मिलता था. प्रथम श्रेणी में छात्रों की संख्या 25 या 30 से अधिक नहीं थी.”
“द्वितीय श्रेणी बोर्डिंग हाउस के छात्रों को सुबह के समय चाय और 2 बिस्किट, 9 बजे सुबह का खाना जिस में दाल-गोश्त और रोटी होती थी, दोपहर को टिफ़िन जिस में एक प्लेट फ़ीरनी या पराठा या इसी प्रकार की कोई चीज़ होती थी, मग़रिब के बाद रात का खाना मिलता था जिस में दाल-गोश्त तथा सप्ताह में दो बार पुलाव और एक बार मीठे चावल एवं फ़ीरनी होती थी. इस बोर्डिंग हाउस में छात्रों कि संख्या 80 के आस पास थी.”
“तृतीय श्रेणी बोर्डिंग हाउस जिस में छात्रों की संख्या लगभग 50 थी उन्हें केवल दो वक़्त का खाना मिलता था. खाने में गोश्त और दाल होती थी. पुलाव, ज़र्दा, नाश्ता तथा टिफ़िन नहीं मिलता था. मेनेजर इस बोर्डिंग हाउस की ओर बहुत कम ध्यान देते थे.”
इस भेदभाव ने छात्रों में तीव्र वर्ग भिन्नता की भावना को जन्म दे दिया था-
“एक बार मैनेजर ने द्वितीय श्रेणी बोर्डिंग हाउस के छात्र को किसी ग़लती पर दंड दिया कि वो तृतीय श्रेणी के छात्रों के साथ खाना खाये. मोलवी खलील अहमद साहब जो द्वितीय श्रेणी के बोर्डिंग हाउस में रहते थे उस छात्र को तृतीय श्रेणी बोर्डिंग हाउस के डाइनिंग हॉल में खाना खिलाने लाये लेकिन तृतीय श्रेणी का कोई भी छात्र डाइनिंग हॉल में खाना खाने नहीं गया. मैनेजर साहब ने क्षमा माँगी और अपना आदेश वापस ले लिया.”
सर सय्यद साहब (र० अ०) की ज़ात-पात और ऊँच-नीच की सोच आज तक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पाई जाति है. मैं (लेखक) ने वहां अपनी 4 वर्ष (1999-2003, बी.ए. & बी.एड.) के छात्र जीवन में देखा कि यहाँ ज़ात-पात की जड़ें काफी गहरी हैं. चतुर्थ श्रेणी (क्लर्क, बैरा अर्थात खाना खिलाने वाला, कुक तथा माली आदि) के पेशे यहाँ के माहौल में रज़ील (नीच) समझे जाते हैं. किसी को बैरा या माली कह देना शरीफ़ाना गाली समझी जाती है, यहाँ तक कि प्रायः यह भी देखने में आता है कि बैरा एवं कुक तक स्वयं के इस पेशे के बारे में बताने में हिचकते हैं. प्रोवोस्ट, वार्डन तथा छात्रों से आये दिन उन का डांट-फटकार सुनना और यहाँ तक कि अक्सर छात्रों के हाथों पिट जाना भी साधारण सी बात है. परिचय (Introduction) के दौरान सीनियर छात्र जूनियर छात्रों को स्पष्ट रूप से आदेश देते थे कि “चतुर्थ श्रेणी तथा पंचम श्रेणी के कर्मचारियों को डांट-डपट कर रखना, उन को जब बुलाना तो उन के नाम के साथ ‘साहब’ कभी न लगाना बल्कि ‘मियाँ’ लगाना. यदि उन को साहब कह कार पुकारोगे तो सर पर चढ़ जायेगा.” यह बात स्वयं लेखक के साथ भी परिचय के समय कही गयी थी.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आज भी किसी महत्वपूर्ण प्रोफेशनल कोर्स जैसे मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में पिछड़ी जाति से सम्बन्ध रखने वाले छात्रों को आरक्षण नहीं दिया जाता [जबकि भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों तथा महत्वपूर्ण नागरिक सेवाओं में आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है] परन्तु खिलाड़ियों, यूनिवर्सिटी के पूर्व तथा वर्तमान सेवकों के बच्चों, डिग्री धारकों के बच्चों यहाँ तक कि अलीगढ़ में एक वर्ष से रहने वाले केन्द्रीय सरकार के सेवकों के बच्चों तक को नॉन-प्रोफेशनल कोर्स में आरक्षण दिया जाता है। और यूनिवर्सिटी के परीक्षा फॉर्म में ज़ात-पात का कॉलम अवश्य दिया जाता है कि आप किस जाति के हैं। यहाँ तक कि आवेदन फॉर्म में भी छात्रों की केटेगरी पूछी जाती है, अतएव-
M.B.B.S. आवेदन फॉर्म 2006-07 में है
12 B: Please Indicate SC [ ] ST [ ] BC [ ] OBC [ ] None of above [ ]
अलीगढ़ में मेरे (लेखक) कुछ शिक्षक जो ज़ात-पात के धुर विरोधी हैं, बताया करते थे कि यहाँ शिक्षकों के सिलेक्शन समय भी जाति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यहाँ के एक इस्लाम पसंद सीनियर प्रोफेसर जनाब सय्यद . . . . साहब जो ज़ात-पात के बहुत बड़े विरोधी हैं, एक इस्लामी कार्यक्रम में बता रहे थे कि मुसलमान किस प्रकार तथा किस लिए ज़ात-पात को समाप्त करेंगे. यूनिवर्सिटी जो मुसलमानों का शैक्षिक दुर्ग समझी जाती है, यहाँ के कुछ प्रोफ़ेसरों को मैं ने देखा कि नमाज़ पढने के बाद मस्जिद में ही एकत्र हो कर परस्पर बातें कर रहे थे कि फलाँ जुलाहा है, फलाँ कुंजड़ा तो फलाँ धुनिया है आदि-आदि. अब तो छोटी ज़ात के लोग सभी पद पर पहुँच गये हैं यहाँ तक कि मस्जिदों के इमाम भी हो गए हैं. फिर प्रोफ़ेसर साहब (मेरे गुरु) ने आगे कहा कि मैं ने उन प्रोफ़ेसरों को ख़ूब सुनाया कि आप लोगों के पास इस ग़ैर इस्लामी काम के सिवा कोई और विमर्श का मुद्दा नहीं है! तब जा कर सब के सब शांत हुए. स्वयं मैं ने यहाँ के बहुत से छात्रों यहाँ तक कि बैरे एवं कुक तक को ज़ात-पात की बातें करते तथा एक दूसरे को नीची ज़ात का कहते हुए पाया है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ज़ात-पात का अत्यधिक ज़ोर एवं चलन है, इस की रोकथाम के लिए आरम्भ से ले कर अब तक कोई क़दम नहीं उठाया गया है जब कि इस की तुलना में जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी, जो कम्युनिज्म (दहरियत) का गढ़ है, में ज़ात-पात के विरुद्ध SC/ST सेल है. यदि कोई किसी को कम ज़ात या उस की जाति के नाम को घटिया तरीक़े के साथ पुकारे तो शोषित व्यक्ति उस सेल में जा कर मुक़दमा दायर कर सकता है, आरोप सिद्ध होने पर आरोपित व्यक्ति का एडमिशन रद्द कर दिया जाता है.6 पाठकों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि SC/ST सेल के ऑफिस होल्डर कोई दलित या OBC नहीं बल्कि एक ब्राह्मण श्री सत्यभूषण जी हैं. मैं स्वयं ऐसे दो मुक़दमों से परिचित हूँ जो वर्ष 2004 में इस सेल में दायर किये गए थे. दोनों मुक़दमों में दलितों ने दो हिन्दू OBC पर आरोप लगाया था कि उन्होंने उनकी ज़ात को बुरा-भला कहा है.
नवम्बर 2004 में यूनिवर्सिटी के अंदर पायी जाने वाली राजनितिक छात्र संगठनों में से अधिकतर ने वाईस चांसलर ऑफिस के सामने कई सप्ताह तक भूक हड़ताल किया. उनकी मांग थी कि जिस प्रकार B.A./M.A. में SC/ST छात्रों के लिए सीटें निर्धारित हैं उसी प्रकार M.Phil./PhD. में भी उन के लिए सीटें अरक्षित की जायें. (सनद रहे कि यूनिवर्सिटी में OBC छात्रों को भी आरक्षण मिलता है.) अंततः वी.सी. साहब (प्रोफ़ेसर गोपाल कृष्ण चड्ढा जी) को उनकी माँग को मानना पड़ा. इस प्रकरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस भूक हड़ताल में हिन्दुओं का मक्का कहे जाने वाले शहर इलाहबाद के ब्राहमण जाति से सम्बन्ध रखने वाले अवधेश कुमार त्रिपाठी (जनरल सेक्रेटरी, आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन-AISA) तथा पश्चिम बंगाल की रहने वाली उड़िया ब्राह्मण जाति की एना पांडा (वाईस प्रेसिडेंट, स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया-SFI, जिन्होंने एक दलित से शादी की है) भी शामिल थीं.
भारत सरकार ने अप्रैल 2006 में घोषणा की थी कि सभी विश्वविद्यालयों में 27% आरक्षण लागू होगा और इसे लागू करने की तिथि 2007-08 के सत्र में निर्धारित की गयी थी लेकिन JNU के तत्कालीन वी.सी. प्रोफेसर बी.बी. भट्टाचार्य जी ने छात्रावास तथा कक्षाओं की कमी का हवाला दे कर उस वर्ष आरक्षण लागू न होने की बात कही. उन के इस बयान के विरुद्ध जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन (JNUSU) ने 18 जनवरी 2007 तथा 3 फ़रवरी 2007 वी.सी. ऑफिस के सामने धरना प्रदर्शन किया, तत्पश्चात वी.सी. साहब ने आरक्षण लागू करने के लिए एक समिति गठित की.
इन प्रदर्शनों में जहाँ दूसरे लोगों ने भाग लिया वहीँ JNUSU के अध्यक्ष तथा SFI के सदस्य धनञ्जय त्रिपाठी जी (इलाहबाद के ब्राह्मण), JNUSU के संयुक्त सचिव तथा AISA के सदस्य संदीप सिंह जी (प्रतापगढ़, यूपी के ठाकुर), मोना दास जी (बिहार की कायस्थ) तथा अवधेश कुमार त्रिपाठी (दोनों AISA के सदस्य) भी थे. यहाँ तक कि RSS के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP) ने भी प्रदर्शन में भाग लिया और उस के सेक्रेटरी अमित सिंह (ठाकुर) भी प्रदर्शन में थे. 3 फ़रवरी 2007 के प्रदर्शन में एक माँग यह भी थी आवेदन प्रक्रिया में प्रवेश परीक्षा में जब साक्षात्कार (Viva) हो तो फॉर्म पर से आरक्षण का कॉलम समाप्त किया जाए ताकि कोई जातिवादी मानसिकता का शिक्षक किसी छात्र को उस की जाति के कारण नंबर कम न दे. जब जून 2006 में आरक्षण के विरोध में यूथ फॉर इक्वलिटी (YFE) ने JNU के अंदर एक महीने तक भूक हड़ताल की थी तो जवाब में आरक्षण के समर्थन में SFI, AISA तथा AISF (आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन) ने भी एक महीने तक भूक हड़ताल की थी जिस में SFI-AISA के उपर्युक्त सदस्य भी थे.
JNU परिसर में बहुत सारी दुकानें हैं. इस विश्वविद्यालय के क़ानून में है कि उन दुकानों को अलाट करने में SC/ST, OBC तथा विकलांग वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले बेरोज़गार लोगों को वरीयता दी जायेगी.
दिल्ली यूनिवर्सिटी जो हिंदुत्व का गढ़ है, के प्रॉस्पेक्टस में Prohibition and Punishment for Ragging के अंतर्गत धारा XV-C के अनुसार रैगिंग में जो बातें सम्मिलित हैं उस का उल्लेख किया गया है. उन में से एक यह है-
“Violate the status, dignity, and honour of the students belonging to the SC/ST.”
“SC/ST वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले छात्र/छात्राओं की हैसियत, गौरव एवं सम्मान का अनादर करना [भी रैगिंग में शामिल है.]”
आगे इस परिस्थिति से निपटने के लिए कॉलेज प्रधानाचार्य को तुरंत इस के विरुद्ध क़दम उठाने का अधिकार दिया गया है.7
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि शुरू से ले कर आज तक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में (तथाकथित) नीची जाति से सम्बन्ध रखने वाला कोई भी व्यक्ति उप-कुलपति (Vice chancellor) न बन सका. सर सय्यद साहब (र०अ०) छोटी बिरादरियों को ‘अदना क़ौम’, ‘रज़ील बिरादरी’ और ‘बद ज़ात’ ही कहने, दबा कर रखने तथा विकास एवं शिक्षा न प्राप्त करने देने की हद तक ही नहीं जाते बल्कि उन के एक लेख से पता चलता है वह ‘इन लोगों’ को मुसलमान ही नहीं मानते. उन के निकट मुसलमान केवल शरीफ़ (ऊँची बिरादरी) लोग हैं. अपनी किताब ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द’ में बग़ावत (विद्रोह) के कारणों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं-
“मुफ़लिसी और तंगी-ए-मआश हिंदुस्तान की रिआया को हमारी गवर्नमेंट की हुकूमत में क्यों न होती. सब से बड़ी मआश रिआया-ए-हिंदुस्तान की नौकरी थी और यह एक पेशा गिना जाता था. अगरचा हर एक क़ौम के लोग रोज़गार न होने के शाकी थे मगर यह शिकायत सब से ज़यादा मुसलमानों को थी. ग़ौर करना चाहिए कि हिन्दू जो असली बाशिन्दे इस मुल्क के हैं, ज़माना-ए-सल्फ़ में उन में से कोई शख्स रोज़गार पेशा न था बल्कि सब लोग मुल्की कारोबार में मसरूफ़ थे. बिरहमन को रोज़गार से कोई इलाक़ा न था, बेश बरन जो कहलाते थे वो हमेशा व्यापार और महाजनी में मसरूफ थे, क्षत्रिय जो इस मुल्क में किसी ज़माने में हाकिम थे, पुरानी तारीख़ों से साबित है कि वो भी रोज़गार पेशा न थे बल्कि ज़मीन से और टुकड़ा-ए-ज़मीन की हुकूमत से बतौर भाईचारा मतलब रखते थे, सिपाह उन की मुलाज़िम न थी बल्कि बतौर भाई बंदी के वक़्त पर जमा हो कर लश्कर आरास्ता होता था जैसा कि कुछ थोड़ा सा नमूना रूस की ममलिकत में पाया जाता है. अलबत्ता क़ौम कायत (कायस्थ) इस मुल्क में क़दीम रोज़गार पेशा दिखलाई देते हैं. मुसलमान इस मुल्क के रहने वाले नहीं हैं, अगले बादशाहों के साथ बवसीला-ए-रोज़गार के हिंदुस्तान में आये और यहाँ वतन अख्तियार किया. इस लिए सब के सब रोज़गार पेशा थे और कमी-ए-रोज़गार से उन को ज़्यादातर शिकायत बनिस्बत-ए-असली बाशिंदों इस मुल्क के थी. इज्ज़तदार सिपाह का रोज़गार जो यहाँ की जाहिल रिआया के मिज़ाज से ज़्यादातर तनासुब रखता है, हमारी गवर्नमेंट में बहुत कम थी. सरकारी फ़ौज जो ग़ालिबन मरकब थी तलंगों से उस में अशराफ़ लोग नौकरी करनी मायूब समझते थे, सवारों में अलबत्ता अशराफों की नौकरी बाक़ी थी मगर वह तादाद में इस क़दर क़लील थी कि अगली सिपाह सवार से उस को कुछ निस्बत न थी. अलावह सरकारी नौकरी के अगले अहद के सूबेदारों और अमीरों के निज के नौकर होते थे कि उन की तादाद भी कम ख़याल नहीं करनी चाहिए”
यहाँ किसी प्रकार टिप्पणी की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है कि सर सय्यद साहब के निकट उन के इस लेख के अनुसार कौन लोग मुसलमान हैं? अधिक स्पष्टीकरण के लिए उन के भाषण के उस भाग पर ग़ौर करना चाहिए जिस में उन्होंने कहा था-
हमारे भाई पठान, सादात, हाशमी और कुरैशी जिन के खून में इब्राहीम के खून की गंध आती है.”
उपर्युक्त लेख से किसी को किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए, यदि फिर भी किसी को संदेह है तो उस का शक सर सय्यद साहब के एक दूसरे लेख से दूर हो जाना चाहिए. उन्होंने दिलेरी से इज़हार करते हुए ‘असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द’ में उल्लेखित उपर्युक्त लेख लिखने के बाद उस का स्पष्टीकरण तक कर डाला. इस लेख के लिखने के तुरंत बाद दूसरे पृष्ठ पर हुनर एवं कारीगरी से जुड़ी हुयी मुस्लिम बिरादरियों की बग़ावत के कारणों का वर्णन किया है परन्तु उन्हें मुसलमान कहने के स्थान पर ‘अहल-ए-हिरफ़ा’, ‘जुलाहा’ और ‘बदज़ात’ के शब्दों का प्रयोग किया है. वह लिखते हैं-
“अहल-ए-हिरफ़ा (हुनर वाले/कारीगर) का रोज़गार ब-सबब जारी और रायज होने अश्या-ए-तिजारत-ए-विलायत के बिलकुल जाता रहा यहाँ तक कि हिंदुस्तान में कोई सुई बनाने वाले और दिया सलाई बनाने वाले को भी नहीं पूछता था. जुलाहों का तार तो बिलकुल टूट गया था जो बदज़ात सब से ज़्यादा इस हंगामे में गर्मजोश थे.”11
सर सय्यद साहब ने न केवल (कथित) रज़ील क़ौम के साथ घृणात्मक व्यवहार अपनाया और उन को बुरे नामों से पुकारा बल्कि अपनी ज़ात-पात की सोच के कारण उन्होंने उन सहाबा-ए-कराम (र०अ०) तक को न छोड़ा जो पैग़म्बर मोहम्मद (स०अ०) के साथी थे जिन्हें जन्नत (में जाने) की ख़ुशख़बरी दुनिया में ही सुना दी गयी थी. जब अल्लामा शिब्ली नोमानी (र०अ०) ने ‘अल फ़ारूक़’ लिखना प्रारंभ किया तो बहुत से लोगों ने उन को इस से रोकना चाहा. ख़ुद सर सय्यद साहब को सब से अधिक मतभेद था. मुस्लिम ओरिएण्टल कॉलेज (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) के एक शिया हमदर्द नवाब इमाद-उल-मुल्क सय्यद हुसैन बिलग्रामी साहब को उन्होंने इस बारे में 20 मार्च 1889 को एक पत्र लिखा. अल्लामा सय्यद सुलेमान नदवी साहब ने ‘हयात-ए-शिब्ली’ के पृष्ठ 232-233 पर उन का ख़त नक़ल किया है, इस ख़त के आख़िर में है कि-
“मैं तो उन सिफ़ात को जो ज़ात-ए-नबवी में जमा थीं, दो हिस्सों पर तक़सीम करता हूँ, एक सल्तनत और एक क़ुद्दुसियत, अव्वल की ख़िलाफ़त हज़रत उमर (र०अ०) को मिली, दूसरी की ख़िलाफ़त हज़रत अली (र०अ०) अइम्मा-ए-अहल-ए-बैत [सादात] को. यह कह देना तो आसान है मगर किस की हिम्मत है कि इस को लिखे [कि] हज़रत उस्मान (र०अ०) ने सब चीज़ों को ग़ारत कर दिया, हज़रत अबू बकर (र०अ०) तो सिर्फ़ बराये नाम बुज़ुर्ग आदमी थे. पस मेरी राय में उन की निस्बत कुछ लिखना और उमूर-ए-ख़ाना-ए-तहरीरात का ज़ेर-ए-मश्क बनाना निहायत नामुनासिब है. जो हुआ, सो हुआ, जो गुज़रा सो गुज़रा.”
पिछड़ी जाति तथा (कथित) नीची बिरादरियों के ख़िलाफ़ सर सय्यद साहब के इस प्रकार के विचार एवं दृष्टिकोण को देखने के पश्चात् हिन्दुओं में सबसे ऊँची जाति होने का दावा करने वाली ‘ब्राह्मण’ जाति से सम्बन्ध रखने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरु जी को भी ये कहना पड़ा कि-
“सर सय्यद एवं अन्य दूसरे धार्मिक नेता हज़रात वास्तव में (सामान्य) जनता के राजनैतिक एवं सामाजिक उद्धार के विरुद्ध थे, उन की माँगों का सामान्य जनता से कोई सम्बन्ध नहीं था. उन की माँग केवल समाज के ऊँचे वर्ग के के छोटे से समूह तक सीमित थी.”
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी लिखते हैं कि “सर सय्यद साहब के आलोचकों में अकबर इलाहाबादी साहब बहुत बड़े व्यक्ति रहे हैं. वो सर सय्यद की अंग्रेज़ भक्ति ही के विरुद्ध नहीं बल्कि उन के सामाजिक सुधारों के भी कटु आलोचक थे. उन के कितने ही शेर सर सय्यद (र०अ०) को निशाना बना कर लिखे हुए दिखते हैं. उदाहरण के लिए-
ईमान बेचने पर हैं अब सब तुले हुए लेकिन ख़रीद हो जो अलीगढ़ के भाव से
मुस्लिम बुद्धिजीवियों की तुलना में हिन्दू नेताओं की दूर दर्शिता, बुद्धिमत्ता तथा समझदारी की एक ओर दाद देनी पड़ती है वहीँ दूसरी ओर मुस्लिम क़ौम के नेताओं तथा बुद्धिजीवियों की नासमझी एवं जातिवादी सोच पर अत्यंत दुःख भी होता है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सय्यद अहमद खां साहब (र०अ०) ने मुस्लिम पसमांदा बिरादरियों के साथ ऐसा भेदभाव वाला व्यवहार किया परन्तु बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने हिन्दू अछूत एवं नीची जातियों की भलाई के लिए बहुत कुछ किया, उन्हें हिन्दू स्वीकार कराने के लिए आन्दोलन चलाये. (इस की चर्चा आरएसएस एवं गांधीवाद शीर्षक में आएगी)
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References (1) मौलाना अशरफ़ अली थानवी : अशरफ़-उल-जवाब, 386/4, प्रकाशक – मक्तबा थानवी, देवबंद. बहवाला : पसमांदा आवाज़ (मासिक), पटना, जून 2005, वर्ष 2, अंक 6, बिंदु : अलीगढ़ में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण क्यों नहीं? (2) सर सय्यद अहमद खां : एक सियासी मुताला, अध्याय : 10, मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज, शीर्षक : मदरसा-तुल-उलूम में तबक़ा वाराना कशमकश, पृष्ठ : 176-178. (3) निजी अनुभव (4) Guide to admission (prospectus) 2005-06, Aligarh Muslim University, Topic : Table III, Special categories and certificates/documents required in support of claim. (5) Exam forms of Aligarh Muslim University, Aligarh. (मैं ने 1999-2001 फॉर्म का हवाला दिया है) (6) SC/ST सेल के ऑफिस होल्डर सत्यभूषण जी ने 25 अप्रैल 2005 को 10:45 बजे सुबह 3:30 बजे दोपहर को मुझे ये मालूमात मुहय्या कीं. वह कहते हैं कि भारत के संविधान में छुआछूत विरोधी जो कानून है उसी के अनुसार फ़ैसले होते हैं. यहाँ यह भी वाज़ेह रहे कि यह सेल सिर्फ़ SC/ST से तअल्लुक़ रखने वाले लोगों के लिए ख़ास है. SC/ST के अलावा किसी और बिरादरी के लोगों के साथ ज़ात-बिरादरी की बुनियाद पर किसी तरह शोषण किया जाये तो उस का मुक़दमा प्रॉक्टर साहब के सामने पेश होगा और वही एक्शन लेंगे. (7) Handbook of information 2004, Acharya Narendra Dev College, University of Delhi, Page : 34. (8) Economic and Political Weekly – Mumbai, November 15-21, 2003, Topic : Democratization of Indian Muslims some reflection by Anwar Alam, Page : 4883. (9) असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द, उद्धृत : वही, शीर्षक : हुक्काम अज़ला-ए-हालात-ए-रिआया से बिलकुल वाकिफ़ न थे, पृष्ठ :59. (10) ख़ुतबात-ए-सर सय्यद, उद्धृत : वही, 24/2 (11) असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द, उद्धृत : वही, शीर्षक : खैराती पेंशन और इनाम बंद होने से हिंदुस्तान का ज़्यादा मोहताज होना, पृष्ठ : 60. (12) मॉडर्न इस्लाम Modern Islam “To make the Musalmans of India worthy and useful subjects of British crown” (मॉडर्न इस्लाम में उदधतृ), उद्धृत : मसावात की जंग, पृष्ठ : 103. (13) Raziuddin Ahmad : The Bengal Muslims 1871-1906 A Quest for identity, Delhi 1981, Page : 144-146, उद्धृत : वही, पृष्ठ : 104
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यह लेख मसऊद आलम फलाही की चर्चित किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात पात और मुसलमान’ का का एक अंश है, यह पुस्तक 2006 में प्रकाशित हुई थी
प्रो. फलाही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय एवं इस्लामिक अध्ययन के गंभीर अध्येता एवं लेखक हैं। लखनऊ स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फरसी यूनिवर्सिटी के अरबी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति विभाग में प्रो. एवं ह्यूमैनिटी तथा लॉ के डीन हैं। वे राज्यपाल द्वारा नियुक्त एक्टिंग वाइसचांसलर भी रह चुके हैं।
मोहम्मद अल्तमश इस आलेख के अनुवादक हैं. आप जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी, दिल्ली से स्नातक हैं और दिल्ली में ही रहते हैं.