Author: Abdullah Mansoor

राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों की भूमिका: चुनौतियाँ और समाधान

भारत में प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिक पहुंच के बावजूद, शैक्षणिक गुणवत्ता और बच्चों की सीखने की क्षमता में कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं। मुख्य समस्या यह है कि बच्चे अपेक्षित स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, भारतीय स्कूलों की कठोर संरचना बच्चों के पिछड़ने का कारण बनती है। शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे प्रत्येक कक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का कड़ाई से पालन करें। इस कठोर संरचना के कारण, शिक्षक उन बच्चों पर पर्याप्त समय नहीं दे पाते जो कक्षा के स्तर से पीछे हैं। हाल तक, प्रारंभिक कक्षाओं में छात्रों के मूल्यांकन की कोई व्यवस्थित प्रणाली नहीं थी जो पिछड़े हुए बच्चों की पहचान कर सके। स्कूल प्रणाली (सरकारी या निजी) में पिछड़े हुए बच्चों की मदद के लिए कोई संगठित या व्यवस्थित उपचारात्मक प्रयास नहीं किए जाते। यदि कोई बच्चा शुरुआती वर्षों में बुनियादी कौशल नहीं सीखता है, तो बाद के स्कूली वर्षों में उनके इन कौशलों को प्राप्त करने की संभावना कम होती है। इस कठोर संरचना के परिणामस्वरूप, कई बच्चे पाठ्यक्रम के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते और धीरे-धीरे पीछे रह जाते हैं। यह स्थिति विशेष रूप से उन बच्चों के लिए चुनौतीपूर्ण है जिनके माता-पिता कम शिक्षित हैं और घर पर पर्याप्त शैक्षणिक सहायता प्रदान नहीं कर सकते।

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क्यों आवश्यक है वक़्फ़ बोर्ड में संशोधन ?

वक़्फ़ बोर्ड धार्मिक और चैरिटेबल संपत्तियों के प्रबंधन के लिए स्थापित किए गए हैं, जिनका उद्देश्य मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय की भलाई करना है। वक़्फ़ संपत्तियाँ धार्मिक उद्देश्यों के लिए दान की जाती हैं, और उनका सही प्रबंधन सुनिश्चित करना आवश्यक है। लेकिन समय के साथ वक़्फ़ बोर्डों के कामकाज में कई समस्याएँ उभर कर सामने आई हैं, जिनमें वक़्फ़ संपत्तियों का दुरुपयोग और पारदर्शिता की कमी प्रमुख हैं। वक़्फ़ बोर्ड संशोधन अधिनियम का प्रस्ताव इन समस्याओं को हल करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जो न केवल संपत्तियों के दुरुपयोग को रोकने में मदद करेगा, बल्कि सामाजिक न्याय को भी सुनिश्चित करेगा। इस संदर्भ में, वक़्फ़ बोर्डों का लोकतांत्रिकरण पसमांदा समाज के लिए भी फायदेमंद साबित हो सकता है।

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सामाजिक न्याय में उप-वर्गीकरण की भूमिका और विवाद

21 अगस्त के भारत बंद को उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और राजस्थान के बुद्धिजीवियों, राजनितिक दलों और संगठनों का समर्थन मिला, जहां प्रमुख अनुसूचित जातियों का प्रभाव है। मायावती, चंद्रशेखर आजाद, चिराग पासवान, प्रकाश अंबेडकर, और रामदास अठावले जैसे नेताओं ने इस बंद का जोरदार समर्थन किया। इसके विपरीत, वाल्मीकि, मादिगा, अरुंथतियार, मान, मुसहर, हेला, बंसफोर, धानुक, डोम जैसी पिछड़ी अनुसूचित जातियां इस बंद से दूर रहीं, खासकर दक्षिण भारत (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना) में, जहां उप-वर्गीकरण पर बहस अधिक उन्नत है। इन समूहों ने एकीकृत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति श्रेणी की अवधारणा को आंतरिक न्याय के बिना पर चुनौती दी है। वे जाति जनगणना की मांग और अन्य तर्कों को यथास्थिति बनाए रखने की रणनीति के रूप में देखते हैं।

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बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपंथ का प्रभाव और भारत की सुरक्षा चिंताएं

बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक ध्रुवीकरण ने भी इस्लामी आतंकवादी समूहों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया है। सरकार की ओर से आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपनाई गई है, लेकिन राजनीतिक संघर्ष और सत्ता की होड़ के कारण इन प्रयासों को पूरी तरह से सफल नहीं माना जा सकता। इस्लामी चरमपंथ की वापसी न केवल बांग्लादेश के लिए बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। बांग्लादेश को अपनी सुरक्षा नीतियों को मजबूत करने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि इस खतरे को प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सके।

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उर्दू ज़ुबान में पसमांदा अदब क्यों नहीं है ?

उर्दू साहित्य में ऐतिहासिक रूप से अशराफ (उच्च वर्ग) का प्रभुत्व रहा है। अशराफ वर्ग ने पसमांदा समाज को मुख्यधारा में शामिल नहीं किया, जिससे उर्दू अदब में पसमांदा समुदाय की आवाज़ें कमज़ोर रही हैं। उर्दू साहित्य में पसमांदा समुदाय की समस्याओं और उनके जीवन के पहलुओं को अक्सर नजरअंदाज किया गया है। उदाहरण के लिए, उर्दू गज़लों में दलित मुस्लिम समाज की महिलाओं को शायद ही कभी चित्रित किया गया है, जो समाज में व्याप्त रंगभेद को दर्शाता है। आज भी उर्दू साहित्य में पसमांदा समुदाय की समस्याओं को प्रमुखता नहीं मिलती। हालांकि, कुछ लेखकों और कवियों ने इस दिशा में काम किया है, लेकिन उन्हें व्यापक पहचान नहीं मिली है। इसके अलावा, पसमांदा समुदाय की ओर से भी साहित्यिक योगदान की कमी रही है, जिससे उनकी आवाज़ें साहित्यिक मंच पर कम सुनाई देती हैं।

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