Author: Abdullah Mansoor

प्रेम की आड़ में छिपी घरेलू हिंसा: ‘डार्लिंग्स’ से ‘इट एंड्स विद अस’ तक का सफर

भारतीय समाज में, लड़कियों को अक्सर किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रहने और घरेलू हिंसा को सहन करने की शिक्षा दी जाती है.भारतीय फिल्मों में घरेलू हिंसा का चित्रण अक्सर एकतरफा होता है, जहां शोषक पुरुष को मुख्य रूप से नकारात्मक किरदार के रूप में दिखाया जाता है.इसके विपरीत, ‘इट एंड्स विद अस’ पुरुष पात्र के प्रति अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाती है, उसकी अच्छाइयों और कमजोरियों दोनों को दिखाती है.

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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सामाजिक न्याय की खोज

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का 8 नवंबर 2024 का फैसला एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। सात न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से 1967 के एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में दिए गए फैसले को पलट दिया। इस पुराने फैसले में कहा गया था कि AMU को अल्पसंख्यक संस्था नहीं माना जा सकता। नए फैसले में स्पष्ट किया गया कि किसी संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा उसकी स्थापना के आधार पर निर्धारित होता है। यदि किसी अल्पसंख्यक समुदाय ने संस्थान की स्थापना की है, तो वह संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है। इस निर्णय से AMU को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है, लेकिन यह मामला अब तीन न्यायाधीशों की नियमित पीठ को सौंपा गया है, जो इस नए फैसले में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करेगी।पसमांदा आंदोलन का आरोप है कि अल्पसंख्यक संस्थान जैसे AMU केवल अशरफ वर्ग के हितों की पूर्ति करते हैं और पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते। यह लेख इस मुद्दे का विश्लेषण करेगा और देखेगा कि कैसे AMU अपने जन्म से ही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के खिलाफ खड़ा रहा है।

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पुस्तक समीक्षा: “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष”

यह पुस्तक पसमांदा समाज के लिए न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने में सक्षम है। इसे पढ़कर पसमांदा समाज में जागरूकता बढ़ेगी, और यह उन्हें अपने संघर्षों को दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। पुस्तक की स्पष्टता, तर्कसंगतता, और सामाजिक संदेश इसे पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन बनाते हैं। इसलिए, यह उम्मीद की जा सकती है कि पसमांदा समाज इस पुस्तक को व्यापक रूप से अपनाएगा और इसे अपने संघर्ष के दस्तावेजीकरण के रूप में देखेगा, जिससे आने वाले समय में और अधिक पसमांदा लेखन एवं विचारधारा विकसित हो सकेगी।

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Blasphemy Laws in Islam: Balancing Faith, Freedom, and Justice

Historically, the concept of blasphemy in Islam is linked to the consolidation of political power. Blasphemy, defined broadly as any action or speech that offends Islamic beliefs, was viewed as a serious offense because it was seen as a threat to the stability of the early Islamic empires. Instances of severe punishments were often tied to cases where political rebellion was involved, as in the Ridda Wars (Wars of Apostasy) following the Prophet Muhammad’s death. This association between blasphemy and rebellion is further supported by the writings of influential scholars like Ibn Taymiyya, who argued that insults against the Prophet Muhammad were destabilizing, warranting harsh penalties to preserve the unity of the Islamic state.

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ज़ाकिर नाइक के औरतों के बारे में विचारों की एक नारीवादी तनकीद

नाइक के बयान एक तंग, मर्दवादी नज़रिए को दर्शाते हैं जो मुस्लिम औरतों के मुख्तलिफ तजुर्बों और जिन्सी इंसाफ के कुरआनी पैगाम को नज़रअंदाज़ करता है। खुली बहस और बातचीत को हौसला देकर, इस्लामी नारीवादी इस्लाम के बराबरी के जज़्बे को दोबारा हासिल करने और यह यकीनी बनाने की कोशिश करते हैं कि औरतों के हुकूक कुरआन के इंसाफ के उसूलों के मुताबिक बरकरार रहें।

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