Category: Pasmanda Caste

Blasphemy Laws in Islam: Balancing Faith, Freedom, and Justice

Historically, the concept of blasphemy in Islam is linked to the consolidation of political power. Blasphemy, defined broadly as any action or speech that offends Islamic beliefs, was viewed as a serious offense because it was seen as a threat to the stability of the early Islamic empires. Instances of severe punishments were often tied to cases where political rebellion was involved, as in the Ridda Wars (Wars of Apostasy) following the Prophet Muhammad’s death. This association between blasphemy and rebellion is further supported by the writings of influential scholars like Ibn Taymiyya, who argued that insults against the Prophet Muhammad were destabilizing, warranting harsh penalties to preserve the unity of the Islamic state.

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वक़्फ़-बोर्ड का काला सच

वक्फ बोर्ड भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, जिसका अंदाजा इसके कुछ भयावह भूमि घोटालों से लगाया जा सकता है, जैसे कि महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड, जिसने मुकेश अंबानी को मुंबई में स्थित उनके 27 माला अपार्टमेंट ‘इंटालिया’ के लिए 4,535 वर्ग मीटर मुफ्त में प्रदान किया था जो मुम्बई के व्यस्त बाज़ार ‘अल्टा माउंट रोड’ पर स्थित है। इसी तरह बेंगलुरु में 600 करोड़ रुपये से ज्यादा मूल्य का ‘विंडसर होटल’ 12,000 रुपये प्रति माह पर लीज पर दिया गया है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि 600 करोड़ रुपये से ज्यादा की जमीन महज 12000 रुपये प्रति माह में लीज पर दे दी गई। 12000 तो सिर्फ कागजी कार्रवाई में है। जबकि वक्फ बोर्ड के सदस्यों को इसका कई गुना मासिक काला धन या रिश्वत के रूप में मिलता होगा और ये सभी भ्रष्टाचार अल्लाह के नाम पर किए जाते हैं।

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वक़्फ़ संशोधन बिल और हमारी ज़िम्मेदारी

वक़्फ़ की ज़मीन पर जो इक्का-दुक्का निर्माण कार्य किए भी गए हैं तो वह या तो मदरसे हैं या फिर मस्जिद, और वह भी सिर्फ़ पसमांदा (ओबीसी) मुसलमानों को भ्रमित करने के लिए। वास्तव में, यह आम मुसलमानों को भावनात्मक रूप से बेवकूफ़ बनाए रखने की पुरानी अशराफ़िया चाल के अलावा और कुछ नहीं है ताकि पसमांदा मुसलमान शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, समान प्रतिनिधित्व और असमानता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर उन से सवाल न कर सकें क्यों कि मुसलमानों के नाम पर जितने भी संगठन बने हैं, चाहे वह वक़्फ़ बोर्ड हो, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो, जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद हो या कोई अन्य संगठन हो, उन पर विदेशी मूल के अशराफ़ मुसलमानों का ही नियंत्रण है। यहां तक कि देश के 21 विश्वविद्यालयों के विभिन्न पदों पर 90% से अधिक इन्ही अशराफ़ मुसलमानों का ही क़ब्ज़ा है।

विदेशी मूल के यह अशराफ़ लोग पसमांदा मुसलमानों को फिर से मूर्ख बनाने के लिए वक़्फ़ की ज़मीन को अल्लाह की ज़मीन बतला रहे हैं ताकि वह अल्लाह के नाम पर अपनी दुकान चलाते रहें और आप सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक इन का बचाव करते रहें। भले ही आप उन अशराफ़ के इस दावे को मान भी लें कि वक़्फ़ की ज़मीन अल्लाह की ज़मीन है तो इस संदर्भ में यह भी देखें कि कुरान कहता है कि पूरी धरती ही अल्लाह ने बनाई है। इस नज़रिए के अनुसार, अशराफ़ वर्ग को पूरी पृथ्वी पर हीअपना दावा कर देना चाहिए, लेकिन नहीं…उन को दूसरों से संबंध भी तो निभाने हैं ताकि दोनों हाथों में लड्डू रहे।

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क्यों आवश्यक है वक़्फ़ बोर्ड में संशोधन ?

वक़्फ़ बोर्ड धार्मिक और चैरिटेबल संपत्तियों के प्रबंधन के लिए स्थापित किए गए हैं, जिनका उद्देश्य मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय की भलाई करना है। वक़्फ़ संपत्तियाँ धार्मिक उद्देश्यों के लिए दान की जाती हैं, और उनका सही प्रबंधन सुनिश्चित करना आवश्यक है। लेकिन समय के साथ वक़्फ़ बोर्डों के कामकाज में कई समस्याएँ उभर कर सामने आई हैं, जिनमें वक़्फ़ संपत्तियों का दुरुपयोग और पारदर्शिता की कमी प्रमुख हैं। वक़्फ़ बोर्ड संशोधन अधिनियम का प्रस्ताव इन समस्याओं को हल करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जो न केवल संपत्तियों के दुरुपयोग को रोकने में मदद करेगा, बल्कि सामाजिक न्याय को भी सुनिश्चित करेगा। इस संदर्भ में, वक़्फ़ बोर्डों का लोकतांत्रिकरण पसमांदा समाज के लिए भी फायदेमंद साबित हो सकता है।

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बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपंथ का प्रभाव और भारत की सुरक्षा चिंताएं

बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक ध्रुवीकरण ने भी इस्लामी आतंकवादी समूहों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया है। सरकार की ओर से आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपनाई गई है, लेकिन राजनीतिक संघर्ष और सत्ता की होड़ के कारण इन प्रयासों को पूरी तरह से सफल नहीं माना जा सकता। इस्लामी चरमपंथ की वापसी न केवल बांग्लादेश के लिए बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। बांग्लादेश को अपनी सुरक्षा नीतियों को मजबूत करने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि इस खतरे को प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सके।

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इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद: फिलिस्तीन के खिलाफ नरसंहार का आरोप

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अध्यक्ष जोन ई. डोनॉग्यू ने कहा, “अदालत इस क्षेत्र में सामने आ रही मानवीय त्रासदी की सीमा से भली-भांति परिचित है और जीवन की निरंतर हानि और मानवीय पीड़ा के बारे में गहराई से चिंतित है।” दक्षिण अफ्रीका ने अदालत से कहा था कि वह इज़राइल से “गाजा में और उसके खिलाफ अपने सैन्य अभियानों को तुरंत निलंबित करने के लिए कहे।” हालांकि, अदालत ने दक्षिण अफ्रीका की याचिका को अस्वीकार कर दिया और युद्धविराम को लेकर कोई आदेश नहीं दिया। दक्षिण अफ्रीका ने ICJ से मांगा है कि ‘अनंतिम उपायों’ (provisional measures) का इस्तेमाल करके इज़राइल को गाज़ा पट्टी में अपराध से रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाएं। उनका तर्क है कि ‘जेनोसाइड कन्वेंशन’ के तहत फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनंतिम उपाय आवश्यक है।

यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि यहूदी विशेषकर इज़रायल राष्ट्र खुद को जनसंहार का विक्टिम बताते आया है, लेकिन अब उस पर जनसंहार करने का आरोप लगा है। भले ही इज़रायल अमेरिकी और अन्य यूरोपीय दोस्तों द्वारा बचा लिया जाए, फिर भी यह उसकी विक्टिमहुड की छवि को पूरी तरह बदल देगा।

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सामाजिक  अस्पृश्यता और बहिष्करण से लड़ती मुस्लिम हलालखोर जाति

‘हलालखोर’ यानी हलाल का खाने वाला, यह सिर्फ एक अलंकार नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज में मौजूद एक जाति का नाम है। जिनका पेशा नालों, सड़कों की सफाई करना, मल-मूत्र की सफाई करना, बाजा बजाना, और सूप बनाना है। हलालखोर जाति के अधिकतर व्यक्ति मुस्लिम समाज के सुन्नी संप्रदाय के मानने वाले हैं। यह लोग अपनी मेहनत द्वारा कमाई गई रोटी के कारण हलालखोर कहलाए होंगे। वहीं, कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि धर्म परिवर्तन के बाद जब इस जाति ने सूअर का गोश्त खाना छोड़ दिया तो इस जाति को हलालखोर के नाम से जाना जाने लगा।

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लोकसभा चुनाव 2024 का सबसे चर्चित मुद्दा मुस्लिम आरक्षण: तथ्य और मिथ्य

लोकसभा 2024 के चुनाव ने इस बार बहुचर्चित मुद्दा मुस्लिम आरक्षण था। कोई सारे मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कर रहा था तो कोई सारे मुसलमानों के आरक्षण को खत्म करने की बात कर रहा था। मुस्लिम आरक्षण सदैव से एक अबूझ पहेली रही है। समाज से लेकर न्यायालायों तक में इस पर बहसें होती रहीं हैं।
सबसे पहले यह तथ्य समझ लेना चाहिए कि EWS (आर्थिक रूप से कमज़ोर) आरक्षण लागू होने के बाद ऐसा कोई मुस्लिम तबका नहीं है जो आरक्षण की परिधि से बाहर हो अर्थात लगभग सारे मुसलमान पहले से ही आरक्षण का लाभ लें रहें हैं। विदित रहे कि मज़हबी पहचान के नाम पर आरक्षण संविधान के मूल भावना के विरुद्ध है कोई भी मज़हब पिछड़ा या दलित नहीं होता है बल्कि उसके मानने वालो में गरीब, पिछड़े और दलित हो सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए आरक्षण की EWS, ओबीसी और एसटी कैटेगरी में अन्य धर्मों के मानने वालों के साथ-साथ सारे मुसलमानों को भी समाहित किया गया।

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पसमांदा विमर्श के मायने

यह मात्र हाजी नेसार अंसारी की कहानी नहीं है। मुस्लिम समाज के अंदर का पच्चासी फिसदी हिस्सा रखने वाला ‘पसमांदा’ तबकें की मुसलमानों की कहानी है। जो मुस्लिम समाज में संख्या बल हाने के बावजूद इस्तेमाल किया जाता है।

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दलित-दलित एक समान हिन्दू हो या मुसलमान

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 341 वर्तमान में दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति (SC) के लाभ प्राप्त करने की अनुमति नहीं देता है। इसमें केवल हिंदू, सिख और बौद्ध दलित शामिल हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि अस्पृश्यता केवल हिंदू धर्म में ही मौजूद है। हालाँकि, साक्ष्य बताते हैं कि दलित मुसलमानों और ईसाइयों को भी इसी तरह के भेदभाव और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें एससी श्रेणी में शामिल करने से उन्हें महत्वपूर्ण सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक सहायता मिलेगी। अनुच्छेद 341 में संशोधन का उद्देश्य सभी दलितों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करना है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, उनके संघर्षों को मान्यता देकर और उन्हें समान कानूनी अधिकार देकर।

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डॉक्टर अंबेडकर नहीं बल्कि कुछ बहुजन बुद्धिजीवी दलित मुस्लिमों के आरक्षण के खिलाफ हैं

यदि संविधान कहता है कि अगर संविधान के हिसाब से सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, तो सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण से बाहर भी नहीं किया जा सकता। लेकिन 1950 का राष्ट्रपति आदेश बिल्कुल यही करता है, जिसमें दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को केवल उनके धर्म के कारण एससी श्रेणी से बाहर रखा गया है। यह उनके मूल अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 14 (समानता), बल्कि अनुच्छेद 15 (कोई भेदभाव नहीं), 16 (नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं), और 25 (विवेक की स्वतंत्रता) के भी खिलाफ है।

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