~अब्दुल्लाह मंसूर

दिसंबर 1999 में जब भारतीय विमान IC-814 का अपहरण कर कंधार ले जाया गया, तब भारत को मजबूरी में तालिबान से बातचीत करनी पड़ी थी। लगभग ढाई दशक बाद, वही तालिबान सरकार का एक मंत्री नई दिल्ली का दौरा करता है और भारतीय अधिकारियों से मिलता है। यह तस्वीर भारत की विदेश नीति में एक बहुत बड़े और व्यावहारिक बदलाव को दिखाती है, जो आदर्शों से ज़्यादा ज़मीनी हकीकत और राष्ट्रीय हितों पर आधारित है।

2021 में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद, भारत के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई। तालिबान की सत्ता में वापसी ने भारत को अपनी रणनीति पर फिर से सोचने के लिए मजबूर किया। भारत ने तालिबान को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी है, लेकिन उसने बातचीत के दरवाज़े बंद भी नहीं किए। यह एक सतर्क और सधा हुआ कदम है, जो पाकिस्तान की दोहरी नीति से बिल्कुल अलग है। भारत का यह नज़रिया किसी को “अच्छा” या “बुरा” कहने के बजाय इस बात पर केंद्रित है कि अफगानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ न हो और वहां हमारे हित सुरक्षित रहें।

भारत के लिए तालिबान से संवाद करना एक रणनीतिक ज़रूरत है, जिसके पीछे कई ठोस कारण हैं। सबसे पहली और बड़ी चिंता सुरक्षा है। भारत यह सुनिश्चित करना चाहता है कि अफगानिस्तान फिर से लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे भारत-विरोधी आतंकवादी संगठनों का अड्डा न बन जाए। तालिबान से सीधे बात करके भारत अपनी इस चिंता को सीधे उन तक पहुँचा सकता है। तालिबान ने भी कई बार आश्वासन दिया है कि वह अपनी धरती का इस्तेमाल किसी देश के खिलाफ नहीं होने देगा, लेकिन भारत इस पर आँख मूंदकर भरोसा करने के बजाय निरंतर संपर्क बनाए रखना चाहता है।

दूसरी बड़ी वजह आर्थिक है। भारत ने पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान में अरबों डॉलर का निवेश किया है—सलमा बांध, संसद भवन, सड़कें और कई अन्य विकास परियोजनाएँ इसमें शामिल हैं। तालिबान के आने के बाद इन सभी परियोजनाओं का भविष्य खतरे में पड़ गया था। अपने इस निवेश को बचाने और अफगान लोगों तक इसका लाभ पहुँचाने के लिए मौजूदा सरकार से बात करना भारत की मजबूरी है। इसके अलावा, अफगानिस्तान में मौजूद प्राकृतिक संसाधन, जैसे लिथियम और तांबा, भविष्य में आर्थिक साझेदारी के अवसर पैदा कर सकते हैं, जिसमें भारत चीन को संतुलित करने की कोशिश करेगा।

इस पूरी तस्वीर में पाकिस्तान एक महत्वपूर्ण कड़ी है। तालिबान और पाकिस्तान के रिश्ते अब पहले जैसे मधुर नहीं रहे। डूरंड रेखा और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) जैसे मुद्दों पर दोनों के बीच गहरा तनाव है। ऐसे में, भारत के साथ तालिबान का संपर्क पाकिस्तान पर एक रणनीतिक दबाव बनाता है और इस क्षेत्र में भारत को अपनी भूमिका बनाए रखने में मदद करता है।

लेकिन इस यथार्थवादी नीति के साथ एक बड़ी वैचारिक दुविधा भी जुड़ी है। तालिबान की कट्टर सोच, महिलाओं के अधिकारों का दमन, और मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के बिल्कुल खिलाफ है। तालिबान का शासन आज भी उतना ही क्रूर है, जहाँ लड़कियों की शिक्षा पर पाबंदी है और महिलाओं को सार्वजनिक जीवन से बाहर कर दिया गया है। जब तालिबान का मंत्री दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस करता है और महिला पत्रकारों को उसमें शामिल होने से रोक दिया जाता है, तो यह भारत के लिए एक असहज स्थिति पैदा करता है।

इसलिए, भारत का रास्ता बेहद नाज़ुक संतुलन साधने वाला है। भारत एक ऐसे शासन से संवाद कर रहा है जिसकी विचारधारा का वह पूरी तरह से विरोध करता है। यह कोई वैचारिक सहमति नहीं, बल्कि एक रणनीतिक ज़रूरत है। भारत तालिबान को मान्यता दिए बिना, केवल काम के मुद्दों पर संवाद कर रहा है ताकि अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सके, अफगान लोगों तक मानवीय सहायता पहुँचा सके और इस अस्थिर क्षेत्र में अपने लिए एक जगह बनाए रख सके। यह नीति दिखाती है कि आज की दुनिया में विदेश नीति केवल दोस्ती या दुश्मनी पर नहीं, बल्कि अपने देश के हितों को सबसे ऊपर रखकर चलाई जाती है।

लेखक पसमांदा चिंतक हैं और यूट्यूब चैनल पसमांदा डेमोक्रेसी के संचालक हैं