WHO के एक अनुमान के मुताबिक, भारत में लगभग 5.6 करोड़ लोग डिप्रेशन अर्थात अवसाद के शिकार हैं तथा 3.8 करोड़ लोग एंग्जाइटी डिसऑर्डर या चिंता विकार से ग्रसित हैं। मानसिक स्वास्थ्य विकारों में ये दोनों प्रकार सबसे मुख्य रूप से सामने आते हैं। ग्लोबल माइंड प्रोजेक्ट के चौथे विश्व सर्वेक्षण के अनुसार, कोरोना महामारी के दौरान लोगों के वैश्विक और निजी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य में काफी गिरावट देखी गई है, जो आज भी कोविड पूर्व स्तर तक नहीं पहुंच पाई है। इस विषय पर न केवल हमें जागरूक होने की जरूरत है, बल्कि इस पर संवेदनशील होने की भी आवश्यकता है ताकि इससे जूझ रहे लोगों को ऐसा वातावरण मिल सके जिसमें वे इस तरह की समस्याओं से बेहतर तरीके से निकल सकें।
भ्रम या सत्य
हमारे समाज में जब से एक बच्चा स्कूल में दाखिल होता है, वह लगातार जिंदगी के हर क्षेत्र में प्रतियोगिता के दबाव में रहता है और अच्छा प्रदर्शन करने की यह कभी न खत्म होने वाली होड़ हमें ठहर कर खुद के बारे में सोचने का भी समय नहीं देती है। ऐसे में हम अपने ही भावनाओं व संवेदनाओं को टालते रहते हैं। हम शारीरिक चोट पर तो मलहम पट्टी कर लेते हैं, लेकिन मानसिक आघात या समस्या को यह कह कर दरकिनार कर देते हैं कि कोई क्या सोचेगा।
जिन लोगों ने घबराहट (anxiety), अवसाद (depression) या पैनिक अटैक को महसूस किया है, उनके लिए सबसे बड़ी दिक्कत है कि वे खुद नहीं समझ पाते कि उनके साथ क्या हो रहा है। यह सिर्फ उनकी कल्पना है या वाकई उनके शरीर या दिमाग के साथ कुछ ऐसा हो रहा जिसे इलाज की जरूरत है। जैसे कि आमतौर पर पैनिक अटैक में दिल की धड़कन बढ़ जाती है और ऐसा लगता है कि दिल का दौरा आ रहा है, जबकि ऐसा कुछ नहीं होता है। ठीक ऐसे ही घबराहट में उल्टे-सीधे विचार आने लगते हैं और ऐसा लगता है कि कभी भी कुछ भी हो जाएगा, जबकि असलियत इससे कोसों दूर होती है।
यह मात्र कल्पना हो तो और भी भयावह लगता है कि कैसे हम वास्तविक दुनिया से अलग अपने दिमाग की दुनिया को सच मान बैठते हैं और कभी-कभी जिंदगी जीने की चाह भी खो देते हैं। डर इस तरह हावी रहता है कि आप दिनचर्या के काम भी ठीक से करने में असमर्थता महसूस करते हैं। निराशा किसी भी प्रोत्साहित करने वाली वीडियो से दूर नहीं होती है। अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से महसूस करते हैं और उनका सच वही होता है। इसलिए अगर यह कल्पना भी है तो भी हम इसे उस व्यक्ति की कमजोर आत्मशक्ति पर डालकर बात खत्म नहीं कर सकते।
बहुजन समाज और मानसिक स्वास्थ्य
जरा सोचें कि हमारा दलित बहुजन पसमांदा समाज बिना किसी सामाजिक आर्थिक पूंजी के किस तरह मानसिक दबाव को झेल रहा होता है। शोषक वर्ग कभी भी शोषित समाज के लिए करुणा का भाव नहीं रखता। इसलिए हमारी लड़ाई दो अलग-अलग मोर्चों पर जारी है। एक तो हम समाज में अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ हम खुद के प्रति शोषण, अपमान, निरादर से हुए मानसिक आघात से लड़ रहे हैं। भारत के परिप्रेक्ष्य में, जहां जातिगत भेदभाव से जुड़ी मनोधारणा पूरे समाज में ज़हर की तरह फैली हुई है, यह और भी ज्यादा जरूरी है कि दलित बहुजन पसमांदा अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति पहले से सजग रहे। इस मानसिक संघर्ष में हम अकेले न पड़ें, इसलिए हमें आपस में आंदोलन के साथ-साथ इस विषय पर भी बात करने की जरूरत है।
क्या यह बुरा है?
घबराहट (Anxiety), तनाव (Stress) या थोड़ा बहुत पैनिक होना आमतौर की बात है, ये सबको होता है। हम सब इससे गुजरते भी हैं और इस पर काबू भी पा लेते हैं। असल में यह दिमाग की कार्यप्रणाली का हिस्सा है और यह सतर्कता और सुरक्षा के लिए बना है। कह सकते हैं कि हमारा दिमाग इस तरह ही विकसित (evolve) हुआ है। पर जब घबराहट (Anxiety) या तनाव (Stress) को हम नियंत्रित नहीं कर पाते हैं, तो यह डिसऑर्डर या विकार में तब्दील हो जाता है। लेकिन Anxiety की वजह से घबराने की जरूरत नहीं है। यह बिल्कुल भी बुरा नहीं है। गहरी सांस लें, कुछ पल रुकें, धीरे-धीरे सांस छोड़ दें।
क्या करें, क्या न करें
पहली बात समझनी है कि यह नकारात्मक भावनाओं या विचारों की वजह से नहीं है। इसमें आपकी कोई कमजोर मानसिकता नहीं छुपी है। यह आपको असुविधाजनक जरूर लगते हैं, पर आपको इन्हें संसाधित (process) करना है न कि इनसे भागना है। यह मेडिटेशन की तरह है कि जो भी आपका दिमाग और शरीर महसूस कर रहा है, उस पर ध्यान देना है पर उस पर सोचना नहीं है। खुद को सही या गलत नहीं कहते रहना है।
दूसरी बात कि जब भी आप मानसिक तनाव से गुजरते हैं, तो आपको सुकून एकदम से शायद न मिले पर जब आप प्रकृति की तरफ ध्यान ले जाते हैं, तो आप वर्तमान में जीने लगते हैं और दिमाग को यह सूचना देते हैं कि आप सुरक्षित हैं और दिमाग खुद ऐसे हार्मोन रिलीज करना बंद कर देता है और आप शांत होते चले जाते हैं। इसे ग्राउंडिंग तकनीक भी बोल सकते हैं। इसे एक्सरसाइज करने के लिए आप क्या करें?
अपने आस-पास पांच अलग-अलग चीजों को स्पर्श करें और महसूस करें वह स्पर्श आपको कैसा लग रहा है। इसमें भी निगेटिव या पॉजिटिव नहीं सोचना है। तापमान, टैक्सचर इत्यादि विस्तृत जानकारी महसूस करनी है। इसी तरह आप कानों से पांच अलग-अलग तरह की आवाज़ सुनने की कोशिश करें जैसे कि गाड़ियों की, संगीत की, चिड़ियों की, मंदिर या मस्जिद की, पत्तियों की, या फिर अपनी सांस की। इंद्रियां वर्तमान में उपस्थित होकर जो भी चेतना महसूस करती हैं वही यथार्थ है। बाकी जब भी हमारा मन सुख, दुख, भय आदि को लेकर चिंतित रहता है, वह या तो भूतकाल की व्यथा है या भविष्य को लेकर अनुमान। अच्छी सलाह यह भी है कि अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के लिए अपने सोने का समय ठीक करें।
तीसरी बात, अक्सर होता है कि हम मदद नहीं मांग पाते ऐसी स्थिति में। कई बार तो यही लगता है कि खुद को बंद कर लें, सबसे खुद को दूर कर लें, किसी की भी बात न सुनाई देती है न सुकून देती है। ऐसी स्थिति में हमें मदद लेनी चाहिए। अगर सुसाइडल विचार आ रहे हों, तो आपको हर हालत में मदद लेनी चाहिए। किसी विशेषज्ञ के पास जाने में भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। और यह भी समझना चाहिए कि हम जिससे प्यार की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे लोग भी अपनी जिंदगी की उधेड़बुन में व्यस्त होते हैं, तो वे आपकी मानसिक स्थिति को कितने बेहतर तरीके से समझ सकेंगे, यह कहा नहीं जा सकता। हालांकि आपके अपने जिस तरह से आपको प्यार करते हैं, वह आपको सुरक्षित वातावरण मुहैया कराता है और यह कारगर भी है। इसलिए, अगर आपके अपने तनाव में हों, तो उनके लिए समय जरूर निकालें, उनके साथ हंसने-बोलने के लिए। ऐसे वक्त में दलित बहुजन पसमांदा समुदाय के लोग आपस में जुड़कर और एक-दूसरे के अनुभवों व समस्याओं पर खुलकर बात करके भी एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं। तनावग्रस्त व्यक्ति खुद को ऐसे जागरूक और संवेदनशील माहौल में सुरक्षित महसूस करता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात, ब्रीदिंग तकनीक। Anxiety के समय ऐसा लगता है कि सांस खो रही है और हम उसे पकड़ ही नहीं पा रहे। पर आप गहरी सांस लें और थोड़ी देर रुकने के बाद सांस छोड़ दें धीरे-धीरे। आप काउंटिंग कर सकते हैं या किसी कंफर्टेबल पोजीशन में बैठ सकते हैं। पर यह सबसे ज्यादा कारगर तरीका है दिमाग को शांत करने का। विस्तार में पढ़ने के लिए आप कोई भी किताब इस विषय पर पढ़ सकते हैं या किसी एक्सपर्ट से राय ले सकते हैं। पर याद रखें, सांस यहीं है बस आपको ध्यान केंद्रित करना है। Breath in and breath out.
कारण: क्या ये जानना जरूरी है?
अंत में, anxiety disorder या अवसाद (depression) के बहुत से कारण हो सकते हैं या कह सकते हैं कि ये बहुत से कारणों का परिणाम होते हैं। ये जटिल शारीरिक-मानसिक-सामाजिक (bio-psycho-social) स्थिति और वातावरण की वजह से होता है। लेकिन इस क्षेत्र के विशेषज्ञों के अनुसार, ज़्यादातर मामलों में इन विकारों के पीछे किसी कारण को जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि इसके उपचार के ऊपर ही ध्यान देना चाहिए। इसके लिए दवाइयों के जरिए हार्मोन को संतुलित करने की कितनी जरूरत है, ये तो डॉक्टर ही बता सकता है, पर सिर्फ दवाइयों पर निर्भर हो जाना शायद उतना प्रभावशाली नहीं हो।
हमारा दिमाग न्यूरॉन के स्तर पर बहुत लचीला होता है। जिन बातों से एंग्जाइटी ट्रिगर होती है, उसके प्रभाव को बदल भी सकते हैं और धीरे-धीरे ये ट्रिगर करना बंद भी हो जाता है। इसके लिए हमें अपने साथ हुई किसी भी घटना पर अलग दृष्टिकोण से वापिस निरीक्षण करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के तौर पर, यदि आपका रिश्ता किसी व्यक्ति के साथ अच्छा नहीं चलता है, तो इसके लिए खुद को जिम्मेदार मानने से बेहतर है कि हम उससे खुल कर बात करें और कैसे रिश्ते पर काम किया जा सकता है, इस पर ध्यान दें। या फिर अगर किसी परीक्षा से आपको डर लगता है, तो आप कैसे योजनाबद्ध तरीके से खुद को उसके लिए तैयार कर सकते हैं, इस पर ध्यान दें। और फिर भी अगर आप सफलता नहीं पाते, तो यह समझें कि आप सिर्फ एक परीक्षा में असफल हुए हैं, आप असफल व्यक्ति नहीं हैं और न ही आपकी जिंदगी ही असफल हुई है। अगर आपको सबके सामने बोलने से डर लगता है, तो आप हिम्मत करिए और बोलिए। इन तीनों उदाहरणों में आपके दिमाग को एक नई सूचना मिलती है, वह अपने आपको बदलने लगता है और धीरे-धीरे आपका डर खत्म हो जाता है।
मानसिक स्वास्थ्य अच्छा कैसे रखें
अब हम मानसिक स्वास्थ्य को कैसे अच्छा रखें इसके लिए कुछ बातें जानते हैं:
- मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए हमारा शारीरिक रूप से स्वस्थ और सक्रिय रहना आवश्यक है।
- पर्याप्त नींद लें।
- नकारात्मक वातावरण से दूर रहें।
- पौष्टिक आहार लें।
- नए-नए कौशल सीखें और दूसरों को भी सिखाएं।
- रोज मेडिटेशन करें।
- शराब, धूम्रपान और अन्य नशे से बचें।
- सोशल मीडिया का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने से बचें और अपना समय परिवार व दोस्तों के साथ मिलकर बिताएं।
खुद को हमें विराम और आराम देना चाहिए ताकि हम समझ सकें खुद को, अपनी भावनाओं को। जो भी हो, मौत का दिन तो एक न एक दिन तय होना ही है। हम अपनी जिंदगी का जो भी उद्देश्य निर्धारित करते हैं, उसकी अहमियत इस डर से ज्यादा है कि हम कुछ भी करेंगे तो कहीं घबराहट न होने लगे। हमें जोखिम तो लेना ही पड़ेगा हर डर के बावजूद, क्योंकि जिंदगी जब तक है, मनुष्य अपनी पहचान की संकल्पना में निरंतर बदलाव लाता रहेगा और पहचान की लड़ाई भी करता रहेगा। और दिमाग ही वो पहली और आखिरी जगह है जहां हम स्वतंत्रता, समानता, इंसानियत, न्याय को गढ़ते हैं और संस्थानिक रूप में साकार भी करते हैं। आशा यही है कि सामाजिक रूप से प्रताड़ित दलित बहुजन पसमांदा अपने सामुदायिक अभिघात (trauma) के आधार पर अपने मानसिक विकास को समझेगा और मानसिक रूप से खुद की देखभाल भी करेगा।
यह हम सभी के लिए एक मौका है कि हम मिलजुल कर प्रयास करें और ज्यादा से ज्यादा दलित बहुजन पसमांदा को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूक करें, साथ ही मानसिक स्वास्थ्य को सभी के लिए वैश्विक प्राथमिकता बनाएं ताकि सही समय पर सही मदद मिल सके।