~अब्दुल्लाह मंसूर

हम अक्सर अपने आसपास या कभी-कभी खुद को भी यह कहते हुए सुनते हैं कि, “मैं उसको कभी माफ नहीं करूंगा” या “मैं वह बात कभी भूल नहीं पाऊंगी।” यह एक बहुत ही स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया है। यह सच भी है कि कई बार माफ करना आसान नहीं होता। खास तौर से तब, जब आपको लगता है कि आपके साथ बहुत नाइंसाफी हुई है या आपको गहरा दर्द मिला है। ऐसे में, हम उस गुस्से और कड़वाहट को अपने अंदर पालते रहते हैं। हमें लगता है कि हम उस इंसान को सजा दे रहे हैं, लेकिन असल में वह गुस्सा एक भारी बोझ की तरह हमें ही अंदर ही अंदर खाता रहता है। यह हमारी आज की खुशी और कल के सुकून, दोनों को चुरा लेता है।

यह समझना जरूरी है कि जब हम माफ करना सीखते हैं, तो हम असल में खुद को आजाद करते हैं। दूसरों से नहीं, बल्कि अपने आप से। हम उस बोझ को अपनी पीठ से उतार फेंकने का फैसला करते हैं। माफ करने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि जो हुआ, वह सही था, या आप सब कुछ भूल गए हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि आपने उस घटना को और उस इंसान को यह इजाजत देना बंद कर दिया है कि वह आपके आज के सुकून को कंट्रोल कर सके।

हाँ, यह सवाल भी मन में आता है कि क्या किसी को तब भी माफ़ कर दें, जब उसे अपनी गलती का एहसास ही न हो? आप कह सकते हैं, और यह आपका हक भी है, कि “जब तक तुम मेरी भावनाओं को नहीं समझते, मैं तुम्हें माफ नहीं करूंगा।” यह सोचना एक स्वाभाविक भावना है, लेकिन इस भावना को अपनी आज़ादी के रास्ते में मत आने दीजिये। क्योंकि आपकी शांति किसी और के एहसास या उसकी माफ़ी पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। सच तो यह है कि कई बार सामने वाला आपकी भावनाओं को कभी नहीं समझेगा। ऐसे में इंतज़ार करना खुद को सज़ा देना है।

तो सवाल उठता है, माफ करें कैसे? यह एक दिन में नहीं होता; यह एक प्रक्रिया है, एक यात्रा है। इसकी शुरुआत एक निर्णय से होती है। आपको खुद के लिए यह फैसला करना होगा कि “मैं अब इस दर्द का बोझ और नहीं ढोना चाहता।” भले ही आपके मन में गुस्सा बाकी हो, लेकिन यह फैसला पहला कदम है। इसके बाद, उस दर्द को स्वीकार कीजिये। उसे दबाइए मत। महसूस कीजिये कि आपको तकलीफ हुई है। जब आप दर्द को स्वीकार करते हैं, तभी आप उसे जाने दे सकते हैं। अगला कदम है, उस घटना को एक सबक की तरह देखना। खुद से पूछिए: “मैंने इस बुरे अनुभव से क्या सीखा?” जैसे ही आप उसे एक सीख में बदल देते हैं, उसका डंक कम हो जाता है। याद रखिये, माफ़ करना एक घटना नहीं, एक अभ्यास है।

माफ़ी के इस सफर का एक सबसे अहम पड़ाव है खुद को माफ़ करना। कई बार हम दूसरों को तो माफ़ कर देते हैं, लेकिन अपनी गलतियों के लिए खुद को कोसते रहते हैं। हम सोचते रहते हैं कि “काश मैंने ऐसा न किया होता” या “मुझसे यह गलती कैसे हो गई।” यह मानना जरूरी है कि हर इंसान अपनी जिंदगी में गलत फैसले लेता है। हमें यह समझना चाहिए कि हमने उस वक्त, अपनी उस समय की समझ और जानकारी के हिसाब से, जो हो सकता था, शायद वही किया। खुद को अपनी गलतियों के लिए कोसते रहना भी अतीत के पिंजरे में बंद रहने जैसा ही है। खुद के प्रति भी वही नरमी दिखाइए, जो आप किसी करीबी दोस्त को दिखाते।

पुराने वक्त की इन दर्द भरी यादों से आजाद होना हमारी जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए बहुत जरूरी है। जब तक हम इन यादों को नहीं छोड़ते, हम भविष्य की तरफ कदम नहीं बढ़ा सकते। अतीत में फंसे रहना हमें न वर्तमान जीने देता है और न भविष्य बनाने देता है। खुद को और दूसरों को माफ करना ही इस ‘बंधन’ से छुटकारा पाने का तरीका है। पुराने वक्त से सीखना अच्छा है, लेकिन उसमें अटके रहना नुकसानदेह है। हमें अपने तजुर्बों का इस्तेमाल आज को बेहतर बनाने और एक अच्छे कल की तरफ बढ़ने के लिए करना चाहिए। यह आत्म-स्वीकृति और माफ़ी की प्रक्रिया न केवल व्यक्तिगत विकास में सहायक होती है, बल्कि हमारे आसपास के लोगों के साथ हमारे रिश्तों को भी सुधारती है। आखिर में, यह हमें एक ज्यादा संतुष्ट और सार्थक जिंदगी जीने में मदद करता है।

abdullah