लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुआ आतंकी हमला पूरे देश को झकझोर देने वाला था। इस घटना में 26 निर्दोष नागरिकों की जान चली गई और दर्जनों लोग घायल हुए। आतंकियों ने बेखौफ होकर पर्यटकों को निशाना बनाया, जिससे देशभर में दुख और आक्रोश की लहर दौड़ गई। सरकार ने सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं और सुरक्षाबलों ने इलाके में सघन तलाशी अभियान शुरू कर दिया है। यह घटना केवल एक हादसा नहीं, बल्कि हमें फिर से यह सोचने को मजबूर करती है कि आतंकवाद आज भी हमारे समाज के लिए कितना बड़ा खतरा बना हुआ है।

आतंकवाद की जड़ें गहरी और बहुत पुरानी हैं। इतिहास बताता है कि भय और आतंक का प्रयोग इंसान ने अक्सर अपनी सत्ता, विचारधारा या धर्म को स्थापित करने के लिए किया है। चाहे वह धर्म का डर हो, परिवार में पितृसत्ता का दबाव या राज्य की दमनकारी व्यवस्था—डर हमेशा एक औज़ार रहा है। आज के दौर में आतंकवाद एक संगठित और खतरनाक रूप में हमारे सामने आता है। इसका मकसद सिर्फ जान लेना नहीं होता, बल्कि समाज को डराना, सरकार को कमज़ोर करना और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करना होता है।

आतंकवाद और धर्म के संबंध को समझना आसान नहीं है। आमतौर पर कहा जाता है कि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता” ताकि किसी विशेष धर्म को कलंकित न किया जाए, लेकिन वास्तविकता यह है कि कई बार आतंकवाद को धार्मिक रंग दिया गया है। भारत में जब हम खालिस्तान आंदोलन, उल्फा, बोडो विद्रोह या गोरखा आंदोलन की बात करते हैं, तो वह क्षेत्रीय पहचान या जातीय अस्मिता से जुड़े हिंसक संघर्ष हैं। लेकिन जब कश्मीर की बात आती है, तो उसे खासतौर पर ‘इस्लामी आतंकवाद’ की श्रेणी में रख दिया जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समाज में जातीय और सांप्रदायिक आतंकवाद पर खुलकर बात नहीं होती, क्योंकि कई बार इसके पीछे समाज के ताकतवर और प्रभुत्वशाली वर्ग होते हैं।

हर बार किसी आतंकवादी हमले के बाद मीडिया और समाज का एक तबका सीधे इस्लाम को कटघरे में खड़ा कर देता है। “मुसलमान मतलब आतंकवादी” जैसी धारणा फैलाई जाती है। लेकिन यह बेहद सतही और खतरनाक सोच है। इस्लाम का पहला शब्द “इक़रा” यानी “पढ़ो” है, न कि “लड़ो” या “मारो”। इस्लाम एक शांति, न्याय और करुणा का धर्म है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने हमेशा अमन और इंसाफ़ की बात की। उन्होंने कहा, “अगर तुमने एक इंसान को नाहक़ मारा, तो जैसे पूरी इंसानियत को मारा। और अगर एक जान बचाई, तो जैसे पूरी इंसानियत को बचाया।” (सूरा अल-मायदा, 5:32)। यह क़ुरआन की सीधी तालीम है, जो हर हिंसा और आतंकवाद की खुलकर मुख़ालिफ़त करती है।

धर्म के नाम पर आतंक फैलाने वाले संगठनों को अक्सर राजनीतिक और विदेशी ताकतों से समर्थन मिलता है। यह सिर्फ विचारधारा की लड़ाई नहीं होती, बल्कि इसमें आर्थिक स्वार्थ और सत्ता का खेल भी शामिल होता है। मध्य पूर्व में अमेरिका ने सोवियत संघ के प्रभाव को रोकने के लिए कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों का समर्थन किया। पाकिस्तान और सऊदी अरब ने अपने-अपने राजनीतिक हितों के लिए मदरसों के ज़रिये कट्टर धार्मिक शिक्षा को फैलाया।

जावेद अहमद ग़ामदी साहब इस बारे में लिखते हैं कि पाकिस्तान ने अमेरिका और सऊदी की मदद से जो मदरसे खड़े किए, उन मदरसों ने आम मुसलमानों के मन में यह बात बैठा दी कि हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है कि वह जहाँ भी रहता हो, वहाँ इस्लामी रियासत (राष्ट्र) कायम करे और इस्लामी शरीअत लागू करे। ग़ामदी साहब बताते हैं कि इन लोगों ने रसूल अल्लाह (सल्ल.) की मिसाल देकर यह बात फैलाई कि जैसे उन्होंने अरब में इस्लामी रियासत कायम की थी, वैसे ही अब हर मुसलमान को जहाँ वह रहता है, वहाँ वैसी ही इस्लामी हुकूमत कायम करनी चाहिए।

ग़ामदी साहब आगे लिखते हैं कि दुनियां में जहाँ भी “शिर्क” (यानी एक से ज़्यादा खुदा को मानने वाले) है, उसे खत्म करना मुसलमानों की ज़िम्मेदारी बताई गई। उन्हें यह सिखाया गया कि सिर्फ मुसलमान ही सबसे बेहतरीन हैं और उन्हें ही राज करने का हक़ है। जो मुसलमान नहीं हैं, वे सिर्फ महकूम यानी अधीन होंगे। गैर-मुस्लिम सरकारों को “नाजायज़” कहा गया। और अंत में उन्हें यह सिखाया गया कि आधुनिक संस्कृति, ज्ञान और सभ्यता सब “जहालत” (अज्ञानता) है और मुसलमानों को 1400 साल पुरानी इस्लामी व्यवस्था ही कायम करनी चाहिए।

तालिबान जैसी विचारधाराएं इस सोच का चरम रूप हैं, जो तर्क, ज्ञान और आधुनिकता के विरुद्ध हैं। वे मशीनगन इस्तेमाल करेंगे, लेकिन विज्ञान की पढ़ाई को “कुफ्र” मानेंगे। उनके लिए राष्ट्र की धारणा भी नकारात्मक है, उन्हें केवल एक इस्लामी राष्ट्र चाहिए। जेहाद का अंतरराष्ट्रीयकरण करना उनके एजेंडे का हिस्सा है, जैसे साम्यवादियों ने समाजवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण चाहा था। अगर यह सब किसी युवा को सिखा दिया जाए, तो वह भटका हुआ नहीं, एक प्रशिक्षित आतंकवादी बन जाएगा।

फिल्मों और मीडिया ने भी आतंकवाद की छवि को विकृत किया है। 80 के दशक तक फिल्मों में आतंकवाद को एक अमूर्त और धर्मनिरपेक्ष समस्या की तरह दिखाया जाता था। लेकिन 90 के दशक के बाद से, खासकर बॉम्बे ब्लास्ट और 9/11 के बाद, इसे इस्लाम से जोड़कर दिखाया जाने लगा। इससे समाज में एक ख़तरनाक धारणा बनी कि हर आतंकवादी मुसलमान होता है, जबकि हकीकत यह है कि आतंकवाद जाति, क्षेत्र और सत्ता से जुड़ा एक जटिल मुद्दा है।

इस संदर्भ में कश्मीर का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। वहाँ सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि गहरा जातीय भेदभाव भी मौजूद है। इस बात को बेहतरीन तरीके से एम.एच.ए. सिकंदर, जो कश्मीर के एक रिसर्च स्कॉलर और एक्टिविस्ट हैं, ने 10 मई 2017 को डेली ओपिनियन में लिखे अपने लेख ‘The Brahmins among Muslims We Don’t Talk About’ (मुसलमानों के बीच ब्राह्मण, जिनके बारे में हम बात नहीं करते) में उजागर किया। {https://www.google.com/amp/s/www.dailyo.in/amp/politics/casteism-indian-muslims-history-of-islam-prophet-muhammad-ummah-17122} वे लिखते हैं, “To this day the Syeds dominate the bureaucracy and the invisible apartheid continues. The Islamic revivalist movements that spread their network in Kashmir, including Jamaat-e-Islami, too were dominated by the Syeds.”(आज भी प्रशासन में सय्यदों का दबदबा है और एक अदृश्य जातीय भेदभाव जारी है। इस्लामी पुनरुद्धार आंदोलन, जिनमें जमात-ए-इस्लामी भी शामिल है, वे भी सय्यदों के वर्चस्व में हैं।)

सिकंदर आगे लिखते हैं, “Few Syeds and Khojas lost their lives or took part in the insurgency.”

(कश्मीर के विद्रोह में बहुत ही कम सय्यद और खोजा समुदाय के लोगों ने हिस्सा लिया या जान गंवाई।) “But both United Jihad Council and Hurriyat Conference was dominated by Syeds, who want the sacrifices from the non-Syeds and luxurious lives for their wards and extended family.” (यूनाइटेड जिहाद काउंसिल और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस दोनों सय्यदों के नियंत्रण में हैं, जो कि बलिदान तो पसमांदा से चाहते हैं लेकिन अपने और अपने परिवार के लिए ऐशो-आराम की ज़िंदगी चाहते हैं।) “They have used every mechanism to keep the masses occupied with the conflict so that they don’t engage with the larger questions associated with it, including caste and privileges.” (उन्होंने हर तरीका अपनाया ताकि आम लोग संघर्ष में उलझे रहें और जाति और सुविधाओं जैसे असली सवालों की तरफ ध्यान ही न दें।) यह पहला लेख था जिसने कश्मीरी मुस्लिम समाज में जातीय भेदभाव और सत्ता-साझेदारी की असमानता को बेनकाब किया। यह दिखाता है कि आतंकवाद का भी जातीय चेहरा होता है, जो हमेशा दिखाया नहीं जाता।

आतंकवाद के पीछे केवल धार्मिक कारण नहीं होते। गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, सामाजिक असमानता और राजनीतिक शोषण जैसे कारक भी युवाओं को चरमपंथ की ओर धकेलते हैं। जो युवा सिस्टम से उम्मीद छोड़ देता है, वह आतंकवाद के दलदल में फंस सकता है। आतंकवाद केवल जान-माल का नुकसान नहीं करता, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी तोड़ देता है। इससे समाज में अविश्वास, भय और असुरक्षा फैलती है और देश की अर्थव्यवस्था, पर्यटन, व्यापार और सामाजिक सौहार्द सब प्रभावित होते हैं। इस गंभीर समस्या का हल केवल सैन्य कार्रवाई या कानूनों की सख्ती से नहीं निकल सकता। इसके लिए शिक्षा, रोज़गार, न्याय और सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना होगा। हमें युवाओं को सही दिशा, अवसर और प्रेरणा देनी होगी ताकि वे कट्टरपंथ की राह पर न जाएं। धार्मिक शिक्षकों, समाज सुधारकों और मीडिया को ज़िम्मेदारी से अपनी भूमिका निभानी होगी।

पहलगाम की घटना एक चेतावनी है कि आतंकवाद एक बहुपरतीय और जटिल समस्या है, जिसमें धर्म, जाति, राजनीति और समाज सभी उलझे हुए हैं। इसे केवल एक धर्म से जोड़ना न केवल गलत है बल्कि समाधान से ध्यान हटाने जैसा है। जब तक हम इसके मूल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारणों को नहीं समझेंगे और उन्हें दूर करने के उपाय नहीं करेंगे, तब तक आतंकवाद हमारे समाज के लिए ख़तरा बना रहेगा। यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि हम मिलकर आतंकवाद की मानसिकता, उसके पोषण के स्रोतों और उसके जातीय-धार्मिक पक्षपातों को बेनकाब करें और एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ भय नहीं, विश्वास और न्याय का राज़ हो।

लेखक पसमांदा डेमोक्रेसी के यूट्यूब चैनल के संचालक हैं