लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

पश्चिम एशिया का भू-राजनीतिक परिदृश्य सदैव ही अस्थिरता और संवेदनशीलता का केंद्र रहा है। विगत दशक में, इस क्षेत्र की राजनीति का केंद्रीय तनाव ईरान और अरब राष्ट्रों के मध्य टकराव को माना जाता रहा है, जिसके कारण सऊदी अरब तथा अन्य खाड़ी देशों ने अपनी सुरक्षा नीतियाँ पूर्णतः ईरान को ध्यान में रखकर तैयार की थीं। किंतु, वर्तमान परिस्थितियाँ एक निर्णायक मोड़ ले रही हैं। इज़राइल की हालिया आक्रामक सैन्य कार्रवाइयों और गाज़ा में जारी संघर्ष ने अरब जगत की प्राथमिकताओं को बदल दिया है। जो ध्यान पहले ईरान पर केंद्रित था, अब वही आशंका और चिंता का केंद्र इज़राइल बन गया है। यह एक ऐसा बड़ा परिवर्तन है, जिसने सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सामरिक रक्षा समझौते (SMDA) की नींव रखी है। इस समझौते ने न केवल क्षेत्रीय राजनीति को एक नवीन दिशा प्रदान की बल्कि भारत के सामरिक हितों के लिए भी कई गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं।

​इस वैचारिक परिवर्तन का मुख्य उत्प्रेरक इज़राइल की बढ़ती आक्रामकता है। पिछले एक दशक में यह प्रतीत हो रहा था कि अधिकांश अरब देश इज़राइल के साथ अपने संबंध सामान्य करने की दिशा में अग्रसर थे। संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने ‘अब्राहम समझौते’ के अंतर्गत इज़राइल से औपचारिक संबंध स्थापित किए, और सऊदी अरब भी इसी मार्ग पर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। तुर्की, मिस्र और क़तर जैसे देश भी तनाव कम करने हेतु विभिन्न स्तरों पर इज़राइल से संपर्क में थे, जिससे इज़राइल को पश्चिम एशिया में एक स्थायी और मान्यता प्राप्त शक्ति के रूप में देखा जाने लगा था। ​किंतु, 9 सितंबर 2025 को क़तर की राजधानी दोहा में हमास के नेतृत्व को लक्ष्य बनाकर किए गए इज़राइली हवाई हमले ने संपूर्ण क्षेत्रीय सुरक्षा ढाँचे को झकझोर कर रख दिया। यह सैन्य कार्रवाई इसलिए भी असाधारण थी क्योंकि दोहा में अमेरिका का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा ‘अल-उदीद’ स्थित है, जहाँ की वायु रक्षा प्रणाली पूर्णतः अमेरिकी निगरानी में है। इसके बावजूद, पंद्रह इज़राइली लड़ाकू विमानों का क़तर के हवाई क्षेत्र में प्रवेश करना, हमला करना और सुरक्षित वापस लौट जाना एक गंभीर घटना थी। इस दौरान अमेरिका द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न किया जाना, अरब जगत में अमेरिकी सुरक्षा गारंटी की विश्वसनीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न लगा गया।

इस घटना ने उस धारणा को खंडित कर दिया कि अमेरिका खाड़ी देशों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। इससे पूर्व गाज़ा में इज़राइली बमबारी और मानवाधिकारों के हनन के आरोपों ने स्थिति को पहले ही जटिल बना दिया था, जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों और अमेरिकी सीनेटरों तक ने इसे “जातीय सफ़ाए” की नीति की संज्ञा दी थी। इन समस्त घटनाक्रमों ने खाड़ी देशों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि उनकी सुरक्षा के लिए तात्कालिक और बड़ा संकट ईरान नहीं, बल्कि इज़राइल है। ​अरब देशों की इस बेचैनी और आक्रोश के मूल में अमेरिकी प्रशासन की নিষ্ক্রিয়ता एक प्रमुख कारण रही।

15 सितंबर 2025 को इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) और अरब लीग की आपातकालीन शिखर बैठक में यह स्पष्ट रूप से दिखाई दिया, जहाँ तुर्की ने इज़राइल पर आर्थिक प्रतिबंधों का, मिस्र ने शांति समझौते रद्द करने का और पाकिस्तान ने इज़राइल को संयुक्त राष्ट्र से निलंबित करने का आह्वान किया। यह माहौल स्पष्ट दर्शाता है कि क्षेत्रीय सुरक्षा के समीकरण पूर्णतः परिवर्तित हो चुके हैं।

​इसी बढ़ती असुरक्षा और रणनीतिक अनिश्चितता की पृष्ठभूमि में सऊदी अरब और पाकिस्तान ने सामरिक रक्षा समझौते (SMDA) पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अनुसार, किसी एक राष्ट्र पर हुआ हमला दोनों पर हमला माना जाएगा और इसके तहत एक संयुक्त सैन्य समिति, खुफिया सहयोग, प्रशिक्षण एवं सैन्य ढाँचे की स्थापना की जाएगी। यद्यपि पाकिस्तान दशकों से खाड़ी देशों की सुरक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है—जिसका प्रमाण 1979 से 1989 के मध्य सऊदी अरब में लगभग 20,000 पाकिस्तानी सैनिकों की तैनाती है—यह पहली बार है जब इस सहयोग को एक औपचारिक और बाध्यकारी संधि का रूप दिया गया है। सऊदी अरब के लिए यह समझौता एक रणनीतिक ‘बीमा पॉलिसी’ के समान है, जो अमेरिका की घटती भूमिका के बीच उसे एक विश्वसनीय सुरक्षा विकल्प प्रदान करता है। वहीं, पाकिस्तान के लिए यह समझौता उसकी संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को बचाने और वित्तीय सहायता प्राप्त करने का एक माध्यम है।

​भारत के लिए इस समझौते के निहितार्थ विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, विशेषकर “ऑपरेशन सिंदूर” के बाद पाकिस्तान की सैन्य क्षमता पर उठे सवालों के परिप्रेक्ष्य में। SMDA पाकिस्तान को एक नया जीवनदान दे सकता है। सऊदी अरब से प्राप्त होने वाली वित्तीय सहायता का उपयोग पाकिस्तान अमेरिकी और अन्य आधुनिक हथियार खरीदने के लिए कर सकता है। यह स्थिति भारत के लिए सामरिक चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकती है, क्योंकि पाकिस्तान अपनी इस बढ़ी हुई सैन्य क्षमता का केंद्र बिंदु भारत की सीमाओं पर केंद्रित कर सकता है, जिससे क्षेत्रीय शक्ति संतुलन प्रभावित हो सकता है।

​हालांकि, भारत और सऊदी अरब के संबंध विगत दशक में अत्यंत प्रगाढ़ हुए हैं। भारत, सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, और लगभग 26 लाख भारतीय प्रवासी खाड़ी क्षेत्र में कार्यरत हैं। भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए काफी हद तक सऊदी तेल पर निर्भर है, और दोनों देशों के बीच सुरक्षा एवं आतंकवाद-निरोधक सहयोग भी सुदृढ़ है। सऊदी अरब ने यह स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान के साथ उसका समझौता भारत को लक्षित नहीं करता, बल्कि यह खाड़ी की जटिल सुरक्षा स्थिति में अपने विकल्पों को खुला रखने की एक रणनीति है। आर्थिक और रणनीतिक दृष्टिकोण से भारत की उपेक्षा करना सऊदी अरब के लिए संभव नहीं है। इतिहास भी साक्षी है कि इस प्रकार के सैन्य गठबंधन अक्सर अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रहते हैं, जैसा कि 1955 के बगदाद पैक्ट के समय हुआ था, जब भारत-पाक युद्ध के दौरान कोई भी सदस्य देश पाकिस्तान की सहायता के लिए आगे नहीं आया।

​भारत ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल की आलोचना करते हुए फिलिस्तीन के पक्ष में वोट दिया। यह केवल प्रतीकात्मक कदम नहीं था बल्कि एक गहरी रणनीति का हिस्सा था। अरब देशों, जो आज अमेरिका और इज़राइल को लेकर संदेह से भरे हुए हैं, भारत को अपने साथ खड़ा देखकर संतुलन महसूस करते हैं। यह वोट भारत की छवि को इस्लामी दुनिया में मज़बूत करता है और यह संदेश देता है कि नई दिल्ली केवल गठबंधनों पर नहीं बल्कि न्याय और शांति आधारित नीति पर खड़ी है।रणनीतिक दृष्टि से देखें तो भारत की यह स्थिति उसे खाड़ी देशों के बीच और भी सम्मान दिला सकती है। एक तरफ भारत इज़राइल से अपने टेक्नोलॉजी और सामरिक रिश्ते बनाए रख सकता है, वहीं दूसरी ओर फिलिस्तीन और अरब देशों को यह भरोसा दिला सकता है कि उनकी राजनीतिक चिंताओं को वह नज़रअंदाज़ नहीं करेगा। यही संतुलन किसी भी उभरती शक्ति के लिए सबसे अहम है।अमेरिका का भरोसा डगमगाने और इज़राइल के अलग-थलग पड़ने के दौर में भारत के पास सुनहरा अवसर है कि वह संतुलनकारी शक्ति बनकर उभरे। यह संतुलन ही उसे पश्चिम एशिया की राजनीति में दीर्घकालिक आधार देगा।भारत के लिए निष्कर्ष साफ है—SMDA जैसे समझौतों से परेशान होने की जगह उसे अपनी बहुआयामी नीति पर भरोसा रखना चाहिए। अरब देशों के बीच भारत की स्वीकार्यता बढ़ रही है, उसके आर्थिक-रणनीतिक रिश्ते लगातार गहरे हो रहे हैं और फिलिस्तीन पर उसका रुख उसे नैतिक बढ़त दे रहा है। बदलते हालात में भारत केवल एक दर्शक नहीं रहेगा बल्कि वह एक सकारात्मक और संतुलनकारी भूमिका निभा सकता है। यही भविष्य भारत के लिए सबसे बड़ी ताक़त है।

लेखक पसमांदा चिंतक हैं