शोषक और शोषित के बीच जब भी कोई कहानी सुनाई या दिखाई जाती है तो ज़्यादातर उसे आक्रामक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक शोषित को इस तरह पेश किया जाता है कि उसकी ज़िंदगी में एक ही मक़सद है- क्रांति है, लेकिन इंसानी जज़्बात हर एक एहसास का मिश्रण होता है, ना तो आप हर पल क्रांति कर सकते हैं ना हर एक व्यक्ति से क्रांति की उम्मीद की जा सकती है। लापता लेडीज़ किसी क्रांतिकारी पृष्ठभूमि पर नहीं बनाई गई है वरन् समाज के ढाँचे पर चलते चलते जब हम और आप किसी पेंच में फँस जाते हैं जहां आपको ढाँचे की ख़ामियाँ साफ़ दिखने लग जाये तो आपको समझ आता है कि समाज की सारी रीत उतनी भी सही नहीं की ऑंख बंद कर उन पर चल दिया जाए। ज़िंदगी के इस पेंच में हास्य निकल कर हमें गुदगुदाता है और दिमाग़ को थोड़ा सा खुजाता है, ये क्रांति तो नहीं करता है लेकिन उसी दिशा की तरफ़ एक समझ विकसित करता है।
क्रांति से पहले किसी विचार की तरफ़ जागरूकता की ज़रूरत है और ये जागरूक होने की कहानी सबकी अलग अलग होती है और हर कहानी की अपनी समस्या और विशेषता है। लापता लेडीज़ में सारे किरदार अपने अपने तरह से कुछ सीखते हैं और सिखाते हैं, लेकिन हम यहाँ बात करेंगे तीन किरदारों की- फूल, जया और मंजु माई। ऐसा नहीं है कि मर्द का किरदार सिर्फ़ शोषक ही हो या उनकी कोई समस्या नहीं हो लेकिन उनकी कहानियाँ लापता नहीं हैं, तो अगर इस लेख में सिर्फ़ औरत ही कहती सुनती और समझती नज़र आ रही हो तो वो इसलिए क्यूँकि हम टटोल रहें हैं ख़ुद को, ख़ुद की आवाज़ को क्यूँकि आज तक हम तो अपनी समस्या भी ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की भाषा और आवाज़ में समझते रहे हैं।
फूल का किरदार सबसे सरल है, उसको पता है कि एक अच्छे घर कि लड़कियाँ घर और पति का ख़याल रखती हैं। उसको समाज द्वारा बनाये गये रीति रिवाजों से कोई परेशानी नहीं, उसके लिए उसका पति ही सब कुछ है। उसे पहचान की कोई लड़ाई नहीं लड़नी लेकिन वो जिस पति के भरोसे एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करने वाली है, उस पति के बिछड़ने पर उसकी ज़िंदगी में एक सवाल आता है। सवाल सीधा सा ही होता है लेकिन जवाब उसकी ख़ुद की पहचान से जुड़ा होता है। सवाल है, पति का पता मतलब गाँव का नाम क्या है। मंजु माई उसे ताने मारती है कि जिस घर में उसे पूरी जिंदगी बितानी है उसका पता नहीं मालूम और इस बात पर अफ़सोस करने की जगह फूल को गर्व है कि उसे घर चलाने की अच्छी शिक्षा दी गई है।
फूल को अपने पहचान की तलाश करने की राह मंजु माई से मिलती है। समाज द्वारा बनाई गई बेड़ियों पर फूल की नज़र पहली बार जाती है कि लड़कियों को लोग काबिल क्यूँ नहीं बनाते हैं। लोग पति का नाम लेने से मना करते हैं, घूँघट लेने को हिदायत देते हैं लेकिन ज़िंदगी में जब मुश्किल पड़ती है तो ये सब सीख की पोल खुलने लग जाती है। और आप एक एक कर के इन बातों पर सवाल करने लगते हो और हर बंदिश ख़ुद तोड़ने लगते हो। जैसे कि फूल करती है, वो अनजान स्टेशन पर दोस्ती का नया रिश्ता बनाती है, पहली बार अपनी मेहनत की कमाई के पैसों को अपनी हथेली में देख खुश होती है और उन कुछ दिनों में यह बात सीख जाती है कि अपने साथ अब और फ्रॉड नहीं होने देगी अर्थात् अपने दम पर कुछ ना कुछ ज़रूर करेगी। अंततः वो अपने प्यार को खोजने अकेले ट्रेन से निकल पड़ती है और भीड़ में अपने पति को उसके नाम से पुकार कर ख़ुद को लापता होने से बचा लेती है। यह किरदार नारी के सशक्तिकरण का पहला चरण है जहाँ नारी पहली बार आज़ादी का स्वाद चखती है लेकिन आज़ादी के मायने को पितृसत्ता से पृथक नहीं कर पाती।
मानसिक ग़ुलामी की स्थिति में स्वयं ग़ुलाम शोषक की भूमिका में आ जाते हैं और पितृसत्ता को क़ायम रखने में औरत भी शोषक की भूमिका में जाने अनजाने आ जाती है। जया के लिए यह काम उसकी माँ करती है लेकिन जया नारीवाद का दूसरा चरण है जहाँ वह आज़ादी का मूल्य भी समझती है और अपनी पहचान के लिये कदम उठाना भी जानती है। कहानी में जया कभी भी भोली या मासूम नहीं लगती है, वो बोलना भी जानती है, सवाल करना भी जानती है और सबसे जरुरी – ख़ुद के दम पर सपने देखना जानती है।
जया घूँघट तो करती है लेकिन घूँघट कब करना है और कब नहीं ये उसका ख़ुद का फ़ैसला है। फूल को जागरूक करने का काम मंजु माई करती है और जया को जागरूक करने का काम उसकी किताबें करती है। उसका शिक्षित होना उसे आत्म-विश्वास देता है और लड़ने की ताक़त भी। लेकिन ग़ौर से सोचा जाये तो जया जैसी लड़कियों को पंख देने और उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने का श्रेय हमारे संविधान को जाता है, ज्योतिबा, सावित्री माई जैसे अध्यापकों को जाता है जिन्होंने महिलाओं को पढ़ाने के लिए संघर्ष किए और बाबा साहेब जैसे बुद्धिजीवी को जाता है जिन्होंने हम महिलाओं के लिए कानून बनाये। जया के पति को इसी क़ानून का डर होता है और उसे मजबूरन जया को छोड़ कर जाना पड़ता है।
कहानी की ख़ूबी है कि जया ख़ुद को लापता रखना चाहती है लेकिन उसके सपने को लापता होने से बचाने में पुरुष पात्रों और महिला पात्रों दोनों का हाथ होता है। जया दूसरी महिला पात्रों में एक उम्मीद जगाती है कि वो आपस में दोस्त हो सकती हैं और उनके अंदर भी कुछ ना कुछ ख़ास है जिसे ज़िंदा रखना चाहिये, जब आपका दुख और दर्द एक सा होता है तो आप एक दूसरे को ज़्यादा बेहतर समझते हैं।
यह किरदार शायद हमारे किरदारों के सबसे ज़्यादा क़रीब है क्यूँकि हम आज पढ़ाई का महत्त्व जानते हैं, लड़कियाँ हर परीक्षा में टॉप करती हैं लेकिन जब नौकरी करने वालों का डाटा उठाओ तो जया उस डाटा में नहीं नज़र आती। आज भी औरतें किसी ना किसी वजह से देश के रोज़गार संबंधित क्षेत्र में अपेक्षित योगदान नहीं कर पाती हैं और पढ़ाई व कौशल में आगे होने के बावजूद वित्तीय रूप से कमजोर रहती हैं जबकि वित्तीय स्वतंत्रता नारी सशक्तिकरण की धुरी है। उम्मीद है जया जैसी लड़कियाँ अपनी पढ़ाई पूरी भी करें और उनके लिए रोज़गार के अवसर भी उपलब्ध हों, इसके लिए हमें पूरे समाज के सहयोग की ज़रूरत है।
मंजु माई का किरदार सबसे जटिल है, वह पितृसत्ता के जंजीरों को तोड़ चुकी हैं। वो घूँघट रखने की प्रथा के पीछे की नारीविरोधी सोच को भलीभाँति जानते हुए भले घर की लड़की वाले फ्रॉड को समझ चुकी हैं। वो सशक्त नारीवाद का प्रतीक हैं और ये सीख उन्हें ना किसी व्यक्ति ने दी ना किताबों ने, ये ज़िंदगी की दी हुई सीख थी। इस सीख में दर्द था और दर्द ने उन्हें थोड़ा कड़क मिजाज बना दिया था। ऐसा होना तय भी है क्यूँकि वो ख़ुद किसी भी तरह अपने पति या बेटे पर निर्भर ना होने के बावजूद भी उनके द्वारा हिंसा की शिकार थीं। उनके ही कमाये पैसों पर उनके पति और बेटे द्वारा हक़ जताया जाना और उन पर हाथ उठाना उनके स्वाभिमान को मारता रहा और जब वही हक़ उन्होंने आज़माया तो उन्हें पुरुष का खोखला प्यार समझ आया। शायद उन्होंने तभी तय किया कि इस झूठे रिश्ते की ग़ुलामी से बेहतर है अकेले स्वाभिमान की ज़िंदगी। हम हिंसा को अक्सर चुपचाप इसलिए सहते हैं ताकि शांति बनी रहे, घर चलता रहे लेकिन इस शांति की क़ीमत घर की औरतें ही क्यूँ चुकाती हैं? मंजु माई की तरह इस शारीरिक-मानसिक-आर्थिक हिंसा का प्रतिरोध करने की हिम्मत कितनी ही औरतें दिखा पाती होंगी?
पुरुष क्या सिर्फ़ पुरुष होने की वजह से बेहतर है और इस वर्चस्व में स्त्री के साथ अमानवीय बर्ताव करने के अधिकार पा लेता है? ऐसे ग़ैरबराबरी के रिश्तों को छोड़ कर अकेले दम पर जीने वाली मंजु माई किसी के आसरे पर नहीं हैं बल्कि दूसरों का आसरा हैं। लेकिन नारीवाद के इस रूप में समाज और पुरुष की तरफ घोर निराशा है, वो यक़ीन ही नहीं कर पाती हैं कि फूल का पति उसे ढूँढने आएगा। यक़ीन हो भी कैसे जब हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम तक ने अपनी पत्नी को अपनाने से मना कर दिया तो साधारण पुरुष की क्या ही बात की जाए। लेकिन फूल का दीपक अपनी फूल से प्यार करता है और शायद वो प्यार में हाथ उठाने वाला मर्द नहीं है, उसे तो अंग्रेज़ी में आई लव यू कहने में गर्व महसूस होता है। लापता फूल के पोस्टर को देख कर वो खुश हो जाती हैं, कठोर नारीवाद इंसानी रिश्ते के आगे पिघल जाता है और अरसे बाद अपना मुँह मीठा करता है। क्या मंजु माई लापता ना होकर भी लापता हैं? जो भी हो वो लापता फूल का पता बनने के बाद हमारे दिलों में मौजूद हैं।
नारीवाद की विचारधारा पश्चिम में ज़्यादा प्रबल रही और आधुनिक युग ने उन्हें इस संघर्ष में कई तरह से मदद किया लेकिन भारत में जाति व्यवस्था ने ऐसे समाज का निर्माण किया है जहां सवाल करने की प्रथा ही नहीं है, पहचान जाति की पहचान के इर्द गिर्द ही घूमती है और नारीवाद का एक छिछला स्वरूप पूरी विचारधारा को नियंत्रित करता है।
पूंजीवाद कुछ उच्च जाति तक सीमित है और सवर्ण महिलाओं का नारीवाद बहुजन महिलाओं की मुश्किलों को और भी बढ़ा देता है। ऐसे में फूल, जया और मंजु माई का नारीवाद ज़्यादा सार्थक दिखाई देता है जो एक दूसरे की मदद करता है। हो सकता है फूल और मंजु माई की जाति भी एक वजह हो कि उनके सपने में कोई बड़ा सपना जगह नहीं बनाता कि वह पढ़ाई करें, सरकारी पद हासिल करें और पुरुष की तरह सत्ता में आयें। हो सकता है जया के पास अपना कल्चरल कैपिटल हो जिससे वह बाक़ी लड़कियों से प्रतिस्पर्धा में आगे रहे। जो भी हो किसी भी इंसानी विचारधारा का अंतिम पायदान उस विचारधारा का मज़बूत होना नहीं हो सकता बल्कि इस विचार में मिल जाना होता है कि हम इंसान है और सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसान होने की वजह से हमारे पास बराबरी के अधिकार होते हैं, और जब तक एक इंसान का दूसरे इंसान से जाति, लिंग या किसी और आधार पर फर्क किया जाएगा तो कोई ना कोई विचारधारा आकार लेगी और हमसे हमारी लापता कहानियों का पता ज़रूर पूछेगी।
- पायल श्रीवास्तव एक स्वतंत्र लेखिका हैं, इंस्टाग्राम चैनल Graphite_Voice के माध्यम से सामाजिक पृष्ठभूमि के कार्टून बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं।
- यह लेखिका का निजी विचार है