लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

बात बहुत पुरानी नहीं है। हुआ यूँ कि मुझे सरकारी स्कूल में पहली बार बच्चों को सामाजिक विज्ञान पढ़ाने का मौका मिला था। शायद वह 8th-D की क्लास थी, और विषय था ‘हाशिये का समाज’। ब्लैकबोर्ड पर मैंने चॉक से एक शब्द लिखा ‘मुसलमान’ और बच्चों से कहा कि इस शब्द को सुनते या पढ़ते हुए जो भी दूसरा शब्द तुम्हारे दिमाग में आता हो, उसे बताओ। बच्चे पहले बोलने से कतरा रहे थे, फिर धीरे-धीरे उन्होंने बोलना शुरू किया: आतंकवादी, पाकिस्तानी, गद्दार, देशद्रोही, दाढ़ी, बुरका, मदरसा, मौलवी, कटुआ, न जाने क्या-क्या वह बोलते गए और मैं एक-एक शब्द को ब्लैकबोर्ड पर लिखता गया। फिर मैंने जानना चाहा कि क्लास में कितने मुस्लिम बच्चे हैं। 7-8 बच्चों ने हाथ उठाया। उन सभी बच्चों को मैंने क्लास के सामने खड़ा कर दिया। फिर मैं ब्लैकबोर्ड पर वापस गया और एक-एक शब्द के ऊपर उंगली रखकर क्लास से पूछा, “किस-किस को लगता है कि तुम्हारे सामने जो ये तुम्हारे 7-8 मुसलमान साथी खड़े हैं, वह सब आतंकवादी, गद्दार, देशद्रोही आदि हैं?” किसी बच्चे ने भी हाँ में जवाब नहीं दिया। फिर मैंने सवाल किया, “तब वह कौन से मुस्लिम हैं जिन्हें तुम आतंकवादी, गद्दार, देशद्रोही बता रहे थे?” बच्चों ने जवाब दिया कि उन्होंने टीवी और फ़िल्मों में देखा है, किसी से सुना है।

आपने देखा कि कैसे प्रोपेगंडा का विध्वंसकारी प्रभाव होता है! बच्चों के दिमाग में यह बात भर दी गई थी कि कोई एक काल्पनिक दुश्मन है जो उनसे, इस देश से नफ़रत करता है। यहाँ इस बात को समझते चलें कि यहूदियों के नरसंहार से पहले उनके खिलाफ ऐसे ही झूठे प्रोपेगंडा चलाया गया था। उनके खिलाफ तरह-तरह के मिथक गढ़े गए। मीडिया द्वारा आज भारत में मुसलमानों के खिलाफ क्या ऐसे ही मिथक नहीं गढ़े जा रहे हैं? क्या मुसलमानों के खिलाफ हो रही हिंसा को ‘किंतु’, ‘परंतु’, ‘पर’, ‘अगर’, ‘मगर’ और ‘लेकिन’ आदि शब्दों के साथ न्यायसंगत साबित करने की कोशिश नहीं की जा रही है!

यहूदियों के खिलाफ हिंसा को भी इस आधार पर सही ठहराया गया था कि यहूदी पैगंबर (ईसाई मान्यताओं के अनुसार ईसा यानी जीसस को यहूदियों ने सूली पर चढ़ाया था) के कातिल हैं। हिटलर जो उनके साथ कर रहा है वह उनके कर्मों का फल है। यहूदियों के खिलाफ ऐसे मिथक सिर्फ जर्मनी में नहीं बल्कि पूरे यूरोप में गढ़े जा रहे थे और 1870 से 1930 तक ऐसे ढेरों मिथक गढ़े गए। जिसका परिणाम होलोकास्ट (यहूदियों के नरसंहार) के रूप में दुनिया के सामने आया। अगर हिटलर किसी अन्य देश (फ्रांस, ब्रिटेन आदि) पर हमला नहीं करता और अपने देश के एक-एक यहूदियों को मार भी देता तो इससे दुनिया को कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला था।

फ़िल्म ‘Jojo Rabbit’ और अंधभक्ति का निर्माण

फिल्म ‘Jojo Rabbit’ अंधभक्त बनाने की कहानी है। कैसे सरकार लोगों को अंधभक्त बनाती है! कैसे वह अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए काल्पनिक दुश्मन का निर्माण करती है! कैसे एक धर्म, एक समुदाय के खिलाफ झूठे मिथकों का निर्माण किया जाता है! लोगों की पूर्वभावनाओं को कैसे मजबूत किया जाता है, कैसे स्टीरियोटाइपिंग को बढ़ावा दिया जाता है! इस फिल्म को Taika Waititi ने डायरेक्ट किया है। इसे एंटी-हेट सटायर के रूप में बनाया गया है। मतलब नफरत और उससे उपजी हिंसा को व्यंग्य के ज़रिए कैसे समझाया जा सकता है! आज के वक्त में जहाँ असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, सरकारें अपने विरुद्ध उठ रही आवाज़ों का दमन कर रही हैं, जहाँ प्रचार माध्यमों के ज़रिए ज़हर घोला जा रहा है, वहाँ ऐसे वक्त में जोजो रैबिट जैसी फिल्मों की प्रासंगिकता बहुत बढ़ जाती है। आगे बढ़ने से पहले आप यह जान लें कि अब कई स्पॉइलर आएंगे।

जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है। जो शांति की जगह युद्ध को पसंद करता है पर जब उसे कैंप में एक रैबिट (खरगोश) मारने को दिया जाता है तो वह खरगोश को मारने की जगह उसे बचाने की कोशिश करता है। इसी वजह से बाकी के साथी उसे ‘जोजो रैबिट’ के नाम से चिढ़ाने लगते हैं। खरगोश को न मार पाना जोजो के अंदर की मासूमियत को दिखाता है जिसे जोजो ने नाज़ी प्रोपेगंडा द्वारा निर्मित संस्कृति में छुपा रखा है। जोजो को पता है कि रैबिट को बचाना सही था पर वह खुद को नाज़ी चश्मे से देखता है इसलिए वह बार-बार दुविधा में फंस जाता है।

एक अंधभक्त अपने निर्णयों को कैसे देखता होगा! कैसे तय करता होगा कि उसके द्वारा किया गया कार्य सही है! क्या वह अपने आराध्य को याद करता होगा और सोचता होगा कि मेरी जगह वह होते तो क्या करते या वह मुझसे क्या करने को कहते! जोजो भी इसी प्रकार एडोल्फ को हर कठिन परिस्थितियों में याद करता है ताकि एडोल्फ उसको राह दिखा सके। जोजो हिटलर से इतना प्रभावित है कि उसका काल्पनिक दोस्त भी एडोल्फ हिटलर ही है। 10 साल के बच्चे के दिमाग से जो हिटलर बनेगा वह वास्तविक हिटलर जैसा तो होगा नहीं। एडोल्फ दरअसल उस बच्चे के मन में बनी हिटलर की छवि है, नाज़ी विचारधारा है जो उस 10 साल के बच्चे के साथ-साथ रहती है। जोजो दुःखी है कि वह खरगोश को नहीं मार पाया और सभी उसे जोजो रैबिट के रूप में चिढ़ा रहे हैं। ऐसे में जोजो का काल्पनिक दोस्त एडोल्फ आता है।

एडोल्फ: क्या हुआ? तुम क्यों दुःखी हो?

जोजो: वह चाहते थे कि मैं रैबिट को मार दूँ। मुझे माफ कर दो, मैं यह न कर सका!

एडोल्फ: तुम दुःखी मत हो, मैं इसकी परवाह नहीं करता।

जोजो: पर वह सब मुझे रैबिट की तरह डरपोक बोलकर चिढ़ा रहे हैं।

एडोल्फ: जिसको जो कहना है वह कहेगा। मुझे देखो, मेरे बारे में लोग क्या-क्या बुरी बातें कहते हैं! मैं पागल हूँ, साइको हूँ, मैं सभी को मरवा दूंगा। लेकिन मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें लगता है कि रैबिट डरपोक है! मैं तुम्हें एक राज़ की बात बताता हूँ रैबिट डरपोक नहीं है। वह अपने परिवार के लिए, अपने देश के लिए रोज़ खतरे उठाता है ताकि वह कुछ गाजर ला सके।

एडोल्फ जो भी अपने यानी हिटलर के बारे में बोलता है हम जानते हैं वह सच है पर एक अंधभक्त के लिए वह बस कुछ लोगों का विरोध/जलन है। जोजो एडोल्फ की बातों से संतुष्ट हो जाता है जैसे कोई भी अंधभक्त अपने नेता की बातें सुनकर संतुष्ट हो जाता है।

जोजो रैबिट: मासूमियत और अंधभक्ति की कहानी

जोजो की माँ Rosie (Scarlett Johansson) न तो हिटलर को पसंद करती है और न ही युद्ध को। उसे पता है कि हिटलर ने उसके देश को बर्बाद कर दिया है, पर उसका बेटा एक मासूम अंधभक्त है। ऐसे माहौल में वह अपने बेटे को खुल कर समझा नहीं सकती।

रोज़ी और जोजो के बीच संवाद:

रोज़ी: तुम खुश क्यों नहीं रह सकते?

जोजो: तुम अपने देश से नफरत करती हो।

रोज़ी: मैं अपने देश से प्यार करती हूं। वह युद्ध है जिससे मैं नफरत करती हूं। युद्ध बेवकूफी भरा एक बकवास विचार है। जल्द ही यहां शांति होगी!

जोजो गुस्से से भर जाता है और कहता है, “हम अपने दुश्मन को कुचल देंगे और उन्हें मिट्टी में मिला देंगे। जब वह बर्बाद हो जाएंगे, तो हम उनके दिमाग को टॉयलेट की तरह इस्तेमाल करेंगे।” इतना कह कर वह गुस्से में अपने छोटे से हाथ को जोर से खाने की मेज़ पर मारता है। जोजो को अपनी मां ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की सदस्य नजर आती है।

रोज़ी अपने बेटे को राजनीति से दूर रखना चाहती है। वह जोजो से कहती है, “तुम बहुत तेजी से बड़े हो रहे हो। 10 साल के बच्चों को युद्ध नहीं सेलिब्रेट करने चाहिए, राजनीति पर बातें नहीं करनी चाहिए। तुम्हें पेड़ों पर चढ़ना चाहिए और फिर उन पेड़ों से गिरना चाहिए। ज़िन्दगी एक तोहफा है और हमें इसे सेलिब्रेट करना चाहिए। हमें नाचना चाहिए ताकि ईश्वर को बता सकें कि हम जीवित हैं और उसके एहसानमंद हैं।” इतना कहते हुए वह नाचने लगती है। नाचते हुए हमें उसके जूते नजर आते हैं। हमें जूतों का महत्व थोड़ी देर बाद पता चलता है जब चौक पर कुछ लोगों को देशद्रोह के आरोप में लटका दिया जाता है। हमें उनके चेहरे नजर नहीं आते, नजर आते हैं तो बस उनके जूते। जूते दुर्घटनाओं, भगदड़ और त्रासदी की निशानी के रूप में शेष बच जाते हैं। जहाज़ डूब जाने के बाद यही जूते किनारे तक तैर के आते हैं और अपने मालिक के होने का सबूत देते हैं। गैस चैंबर में मारे गए यहूदियों की निशानी के रूप में उनके जूतों को संग्रहालयों में रखा गया। वियतनाम युद्ध के विरोध में भी यह जूते नजर आते हैं।

रोज़ी ने अपने घर में एक यहूदी लड़की एल्सा (Elsa) को छुपा रखा है, जिसके माता-पिता को हिटलर पहले ही मरवा चुका है। रोजी इस राज़ को अपने बेटे से छुपाती है क्योंकि अगर उसके बेटे को कुछ पता चला तो सभी को पता चल जाएगा। इससे उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। रोजी उस यहूदी लड़की को शांत रहने को कहती है ताकि उसकी मौजूदगी का पता उसके बेटे को न चल पाए।

रोज़ी: मैं पहले ही अपने पति और बेटी को खो चुकी हूँ। अब मैं और कुछ भी खोना नहीं चाहती।

एल्सा: मेरे पास तो खोने के लिए कुछ बचा ही नहीं है।

रोज़ी: लेकिन तुम्हें जीना होगा। वह नहीं चाहते तुम ज़िंदा रहो, पर तुम्हारा ज़िंदा रहना उनकी हार होगी। और तुम ज़िंदा रहोगी। तुमने अगर ज़िंदा रहने की तमन्ना छोड़ दी, तो वह जीत जाएंगे।

रोज़ी और उसका पति जर्मनी के अंदर बची हुई मानवता के प्रतीक हैं, जो अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाकर भी इंसानियत को बचाना चाहते हैं।

जोजो नाजी के युवा कैम्प में जर्मन सर्वोच्चता और आर्य नस्ल की शुद्धता की ट्रेनिंग ले रहा होता है। उसे सिखाया जाता है कि उसकी जिंदगी का मकसद ही आर्य नस्ल और हिटलर की सेवा करना है। लड़के युद्ध में हिस्सा लेकर सेवा करेंगे और लड़कियां बच्चे पैदा करके, घर का कामकाज सीखकर, ज़ख्मी सिपाहियों की देखभाल करते हुए देश की सेवा करेंगी। दोनों जेंडर का काम बंटा हुआ है। नाजियों के इस युवा कैम्प को Captain Klenzendorf चलाता है। वह समलैंगिक है पर समलैंगिकता तो अपराध है। ऐसा अपराध जिसकी सज़ा मौत है। इसलिए वह अपनी पहचान छुपाकर रखता है। वह अपनी इच्छा से नाजी नहीं बना है, बल्कि नाजी बनना उसकी मजबूरी है ताकि वह देश के लिए अपनी वफादारी साबित कर सके। दरअसल यह यूथ कैम्प अंधभक्त बनाने की एक फैक्ट्री है। यहाँ बच्चों को किताबों को पढ़ाना नहीं बल्कि जलाना सिखाया जाता है। हम जानते हैं कि नाजी-फासीवादियों ने किताबों को सार्वजनिक रूप से जलाने का चलन शुरू किया था। इसके ऊपर एक कालजयी फिल्म Fahrenheit 451 (1966) बनी है। आखिर क्यों कोई भी तानाशाह सरकार किताबों पर प्रतिबंध लगाती है? किताबें क्यों जलाई जाती हैं? इसे समझने के लिए खुद से पूछिए कि किताबों से हमें क्या मिलता है! ज्ञान, तर्क करने की क्षमता, इतिहास और भविष्य को देखने की क्षमता। फिर किताब जलाने का अर्थ यह हुआ कि नफरत ने आपके अंदर की तर्क क्षमता को खत्म कर दिया है। अब आपसे कुछ भी कराया जा सकता है। मशहूर जर्मन कवि और लेखक Johann Heinrich लिखते हैं,

“जहाँ किताबों को जलाया जाता है, वहाँ अंत में मनुष्यों को भी जलाया जाएगा।”

इस कैम्प में यहूदियों के बारे में मिथक गढ़े जाते हैं और स्टीरियोटाइप को मजबूत किया जाता है। बच्चों को समझाया जाता है कि देश में जो भी गलत हो रहा है उसके पीछे यहूदी हैं। जैसे भारतीय मीडिया भारत में हो रही हर समस्या को मुसलमानों से जोड़ देती है। उनको बताया जाता है कि यहूदी लोग बच्चों और सैनिकों को खा जाते हैं। न सिर्फ यहूदियों के लिए अमानवीय उपमाओं का प्रयोग किया जाता है, बल्कि उनके दिमाग में यह भी भर दिया जाता है कि यहूदी इंसान होते ही नहीं हैं, बल्कि कोई राक्षस या पिशाच होते हैं। जोजो का मासूम मन कैप्टन से एक सवाल करता है कि वह आखिर यहूदियों को पहचानेगा कैसे? यहूदी तो उन्ही की तरह दिखते हैं। कैप्टन कहता है कि अगर यहूदी अपने सर पर छोटी वाली टोपी न रखें तो उनको पहचानना मुश्किल है। यह सीन देखते हुए क्रांतिवीर फिल्म का नाना पाटेकर वाला डायलॉग याद आ जाता है, “यह ले मुसलमान का ख़ून, यह हिन्दू का ख़ून…. अब बता इसमें मुसलमान का खून कौन सा है? और हिन्दू का खून कौन सा? जब ऊपर वाले ने बनाने में फर्क नहीं किया, तो तू कौन होता है फर्क करने वाला!”

जोजो कैम्प से घर आता है और घर में उसका सामना यहूदी लड़की एल्सा से होता है। जोजो घबरा जाता है। पहले वह इसकी सूचना नाजी सैनिकों को देना चाहता है, फिर वह सोचता है कि उसने अगर बता दिया, तो उसकी माँ को सजा हो जाएगी। पहले तो जोजो और उसका दोस्त एडोल्फ सोचते हैं कि घर को आग लगा देता हूँ और आरोप विंस्टन चर्चिल पर लगा देंगे, फिर जोजो दूसरा तरीका सोचता है ‘Reverse psychology’ का। यहूदी लड़की उसके दिमाग पर नियंत्रण कर रही है, तो उसे उसके दिमाग पर नियंत्रण करके यहूदियों की सारी जानकारी इकट्ठा करके उस पर किताब लिख देनी चाहिए, ताकि उसकी किताब से यहूदियों को पहचानना आसान हो जाए। जोजो जिस नफरत से “Jew” बोलता है, वह भारतीय संदर्भ में ‘मियां’, ‘कटुआ’, ‘मलेक्ष’ के रूप में सुनाई देता है। अब यहाँ से जोजो के अंधभक्त वाले सवाल शुरू होते हैं और एल्सा का जवाब जो इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण और मजबूत पक्ष है…

जोजो: यहूदियों के बारे में सब कुछ जानना है जैसे वह कहाँ रहते हैं? क्या खाते हैं? कैसे सोते हैं? यहूदियों की रानी अंडे कहाँ देती है?

एल्सा: यहूदी भी तुम्हारी तरह इंसान होते हैं।

जोजो: यह मज़ाक का वक्त नहीं है। मुझे चित्र बनाकर दिखाओ कि यहूदी कहाँ रहते हैं!

एल्सा: (जोजो के दिमाग का चित्र बनाती है) यहूदी नाजियों के दिमाग में रहते हैं।

जोजो का ‘विश्वास तंत्र’ इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि यहूदी इंसान हो सकते हैं। फिर भी वह कुछ और सवाल पूछता है।

जोजो: अगर तुम यहूदी हो तो बताओ कि तुम्हारे सींग कहाँ हैं?

एल्सा: यहूदियों के सींग नहीं होते। सींग तो उन लोगों के होते हैं, जिनकी बातें तुम सुनते हो।

जोजो: यहूदियों को कैसे पहचानते हैं?

एल्सा: यहूदियों को तुम नहीं पहचान सकते। तुम उनका दिल पहचान सकते हो।

यह सब सुनते ही जोजो कहता है कि तुम मुझसे झूठ बोल रही हो क्योंकि तुम्हारे लोग झूठ बोलने में माहिर होते हैं। वह अपने अजीज मित्र एडोल्फ से मिलता है और कहता है कि यहूदी लड़की झूठ बोल रही है। एडोल्फ कहता है कि हमें उसके खिलाफ सबूत जुटाने चाहिए। जोजो की जिज्ञासा बढ़ती जाती है और वह और सवाल पूछता है।

जोजो: यहूदियों को खाना क्या पसंद है?

एल्सा: यहूदियों को हर वह चीज़ पसंद है जो उनके हाथ लग जाए, जैसे तुम्हें पसंद है।

जोजो: यहूदी के साथ शादी करने से क्या होता है?

एल्सा: यहूदियों से शादी करने पर ‘Jew babies’ पैदा होते हैं और वह यहूदी ही होते हैं।

जोजो: यहूदियों के सर छोटे क्यों होते हैं?

एल्सा: ऐसा नहीं है, यहूदियों के सर छोटे नहीं होते। उनके कान तुम्हारे कानों से अलग होते हैं। हमें उड़ने के लिए बड़े कानों की ज़रूरत होती है।

जोजो का मासूम दिमाग यह सब सुनकर थोड़ी उलझन में है। उसको पता चलने लगता है कि जो बातें उसको सिखाई गई थीं, वह सब झूठ हो सकती हैं। जोजो का नफरत भरा झूठ धीरे-धीरे सचाई का सामना करता है। यही बात हिंदुस्तान के मासूम बच्चों को सिखाई जाती है कि मुसलमान खाते क्या हैं? नमाज में कौन सी प्रार्थना पढ़ते हैं? जब आप मिल बैठकर खाने लगते हैं, तो यह सारे सवाल ही बेमानी हो जाते हैं।

नाज़ी सैनिक अचानक से जोजो के घर आते हैं और एक बार फिर किताबें चेक करते हैं। जोजो घर में बैठी यहूदी लड़की को छुपा देता है, पर तभी वह अपने आप को जोजो की मृत बहन बताकर सामने आती है। नाज़ी सैनिक उसकी परीक्षा लेते हैं और उससे उसकी बहन के नाम पर दस्तखत करवाते हैं। उसको चेक करने के बाद वह यहूदियों को नष्ट करने वाली किताब मांगते हैं और जोजो से हस्ताक्षर करवाते हैं। सब कुछ ठीक-ठाक गुजर जाता है, पर जब सैनिक चले जाते हैं तो लड़की कहती है कि मेरी पोल खुल जाती अगर यह जान जाते कि मैंने उसकी बहन के नाम की गलत स्पेलिंग लिखी है।

जोजो और एल्सा की बातों का दौर जारी रहता है। जोजो का अगला सवाल होता है कि जब युद्ध खत्म हो जाएगा तो क्या करोगी? जवाब में एल्सा कहती है कि सबसे पहले मैं नाचूंगी, फिर वह दिन आता है, जब युद्ध खत्म हो जाता है और अमेरिका युद्ध जीत जाता है। लड़ाई खत्म होने के बाद जोजो आता है और कहता है कि तुम आजाद हो, तुम घर जा सकती हो।जोजो अब तक यह समझ चुका है कि उसने अब तक जो भी सीखा था वह सब झूठ था। आखिरकार जोजो और एल्सा घर से बाहर आते हैं और दोनों नाचने लगते हैं, क्योंकि रोजी की अंतिम इच्छा यही थी।

इस फिल्म का अंत ‘David Bowie’s’ के ‘Heroes’ गाने के साथ होता है। हिटलर मर जाता है, नाजियों की हार हो जाती है। जोजो को नफरत के पर्दे के पीछे छुपा सच नजर आ जाता है। हम इस युद्ध को दूसरे दृष्टिकोण से भी देख सकते हैं। 1936 में बर्लिन में हिटलर ने ओलंपिक का आयोजन कराया और पूरी दुनिया में अपने देश की शक्ति का प्रदर्शन किया। दुनिया को दिखाया कि कैसे हिटलर ने अपने देश को मजबूत बना दिया। ऐसा ही शक्ति प्रदर्शन भारत में कॉमनवेल्थ गेम्स के जरिए कराया गया था, जहाँ भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड तोड़े गए थे। हिटलर ने युद्ध की शुरुआत की और करोड़ों लोग मारे गए। पर इतिहास ने देखा कि वह अपने अंत के समय में एक कुत्ते से भी बदतर स्थिति में मारा गया। खुद को गोली मार ली, पर यह इतिहास का दस्तावेज है। फिर भी कुछ लोग हैं जो 2023 में भी हिटलर का गुणगान करते नहीं थकते। यकीन मानिए, वह लोग नाजियों की तरह ही हैं। समय इतिहास तय करेगा।

जो लोग जोजो जैसी फिल्म बनाने की हिम्मत रखते हैं, वह लोग वही हैं जिनके कारण यह दुनिया खूबसूरत है। रोजी और उसके पति की तरह जो खुद को दांव पर लगाकर इंसानियत की लड़ाई लड़ रहे हैं। हिटलर और रोजी के बेटे जोजो की नफरत का सच समझ कर नाचने लगते हैं।

अब्दुल्लाह मंसूर लेखक, पसमांदा एक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।
अब्दुल्लाह मंसूर लेखक, पसमांदा एक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।