लेखिका : पायल
एक भारतीय लड़की होने के नाते, मैंने शायद ही कभी घरेलू हिंसा को भारतीय समाज से इतर, किसी विदेशी लड़की के दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की हो। संभवतः इसलिए कि भारतीय समाज में लड़कियों की परवरिश इस तरह होती है कि वे किसी न किसी पुरुष पर आश्रित रहना सीखती हैं, और घरेलू हिंसा से बचने के नाम पर उन्हें इसे सहन करना सिखाया जाता है। वहीं, अमेरिका—जो दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है—की एक लड़की जब घरेलू हिंसा की शिकार होती है, तो दिमाग़ में कई सवाल उठते हैं।
एक आत्मनिर्भर श्वेत लड़की, जिसने अपनी मर्ज़ी से अपने पसंद के व्यक्ति से शादी की हो, जिस पर समाज की तरफ़ से रिश्ते को निभाने का कोई दबाव नहीं हो, और जो अपने अधिकारों के प्रति सजग हो—क्या ऐसी लड़कियां भी घरेलू हिंसा और भावनात्मक शोषण का शिकार हो सकती हैं? क्या इसका मतलब यह है कि घरेलू हिंसा में आपका लड़की होना ही काफ़ी है?
प्रेम कहानी या घरेलू हिंसा और भावनात्मक शोषण की आत्मकथा
कॉलिन हूवर, एक अमेरिकी लेखिका, ने अपनी किताब इट एंड्स विद अस के माध्यम से एक ऐसी प्रेम कहानी रची है, जिसमें घरेलू हिंसा को उसकी भावनात्मक जटिलताओं के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहानी का अंत आते-आते आप यह भी सवाल करने लगते हैं कि यह वास्तव में एक प्रेम कहानी है या नारीवाद पर लिखी गई एक रोमांटिक आत्मकथा। यह किताब एक बेस्टसेलर रही है, और आप नेटफ्लिक्स पर इसका फिल्म रूपांतरण भी देख सकते हैं।
शुरुआत और अंत
कहानी लिली ब्लूम नाम की एक लड़की की है, जिसने बचपन में अपनी मां पर घरेलू हिंसा होते देखा है, और इस वजह से वह अपने पिता से नफ़रत करने लगती है। यहां तक कि जब उसके पिता उसकी मां के साथ बलात्कार करने का प्रयास करते हैं, तब भी उसकी मां आवाज़ नहीं उठातीं और इस रिश्ते को जैसे चल रहा है, वैसे ही चलने देती हैं। इसी दौरान लिली की मुलाक़ात एटलस नाम के एक लड़के से होती है, जो पास के एक घर में छुपकर रह रहा होता है। लिली कई मौकों पर उसकी मदद करती है, और दोनों एक-दूसरे के क़रीब आ जाते हैं। लेकिन जल्दी ही एटलस अपने अंकल के पास बॉस्टन चला जाता है। लिली ने अपने बचपन से जुड़े ये सभी अनुभव अपनी चिट्ठियों में लिख रखे हैं।
कहानी की शुरुआत 23 साल की लिली के पिता की मौत से होती है। शोक सभा में लिली कुछ भी व्यक्त करने के बजाय वहाँ से चली आती है और एक अपार्टमेंट की छत पर खड़ी होकर अपने पिता के बारे में सोचने लगती है। वहीं उसकी मुलाक़ात एक आकर्षक युवक, राइल किनकेड, से होती है, जो पेशे से एक न्यूरोसर्जन है और अपने काम को ही अपनी ज़िंदगी की प्राथमिकता मानता है। लिली और राइल एक-दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और अपनी कुछ सच्चाइयां एक-दूसरे को बताते हैं।
आगे चलकर लिली अपना व्यवसाय शुरू करती है और राइल के साथ एक रेस्तरां में जाती है, जहां उसकी मुलाक़ात एटलस से हो जाती है। एटलस को वह अपनी पिछली ज़िंदगी का हिस्सा मानकर, वर्तमान में उससे आगे बढ़ने का निर्णय करती है और राइल से शादी कर लेती है।
राइल लिली से बेहद प्यार करता है, लेकिन कुछ मौकों पर वह अपने ग़ुस्से पर काबू खो देता है। नतीजतन, लिली खुद को अपनी मां की तरह घरेलू और यौन हिंसा की उन्हीं परिस्थितियों में पाती है, जिनसे वह बचपन में जूझ चुकी है। जैसा कि कहानी के शीर्षक से जाहिर होता है, लिली खुद को इस रिश्ते से अलग कर लेती है और इस तरह घरेलू हिंसा की उस पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आ रही कड़ी को तोड़ देती है।
भारतीय सिनेमा में घरेलू हिंसा
भारतीय सिनेमा में भी घरेलू हिंसा पर कई फ़िल्में बनी हैं, जैसे प्रोवोक्ड, पार्च्ड, थप्पड़, डार्लिंग्स, आकाश वानी, दरार आदि। ये सभी अपने-अपने तरीक़े से बेहतरीन फ़िल्में हैं, लेकिन इनमें एक बात समान है—इनमें शोषक की भूमिका में जो पुरुष दिखाए गए हैं, वे मूलतः नकारात्मक किरदार हैं।
इसके अलावा, जो महिलाएं शोषण का शिकार हैं, वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं। ऐसे रिश्तों में प्रेम की गुंजाइश नहीं है, लेकिन समाज द्वारा बनाए गए नियमों के कारण महिलाएं बिना भावनात्मक जुड़ाव के भी इन रिश्तों को निभाती रहती हैं। वे हिंसा को भी सहन करती हैं, यह सोचकर कि उनका पति कभी न कभी सुधर जाएगा।
डार्लिंग्स
“(मैं) प्यार नहीं करता तो मारता क्यों? तुम प्यार नहीं करती, तो सहती क्यों?”
डार्लिंग्स ऐसी ही कहानी है, जिसमें पति नशे की हालत में अपनी पत्नी पर हिंसा करता है और होश में आने पर माफी मांगता है और प्रेम जताता है। पत्नी इसी उलझन में उसे माफ करती रहती है कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा।
डार्लिंग्स ऐसी कहानी है, जिसमें पति अक्सर नशे की हालत में अपनी पत्नी के साथ मारपीट करता है और होश में आने पर उससे माफी मांगता है और प्रेम भी जताता है। पत्नी इस भ्रम में उसे बार-बार माफ करती रहती है कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा और उसका भविष्य उसके सपनों के अनुसार साकार हो सकेगा। लेकिन इस कहानी में पति एक विलेन की भूमिका में है, जिसके प्रति दर्शकों को कोई सहानुभूति नहीं होती।
ऐसे पुरुष पात्र हमारे समाज में भी आसानी से देखने को मिलते हैं, जिनके लिए नशे की हालत में महिलाओं पर हाथ उठाना एक सामान्य बात है। हालांकि, भारतीय परिदृश्य में, फिल्मों की तरह वास्तविक जीवन में ऐसे पुरुष से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं होता।
समाज, शादी और व्यक्तिगत अधिकार लेकिन भारतीय परिदृश्य में वैवाहिक संस्था को एक आदमी या औरत की निजी ज़रूरतों से ज़्यादा वरीयता दिया जाता है, इसलिए यहाँ एक औरत के लिए डाइवोर्स लेने का फ़ैसला बहुत कठिन होता है तो फिर चाहे उसके पास कितने भी संसाधन या क़ानूनी सुरक्षा हो। फ़िल्म में लिली अपने रिश्ते को लेकर जब असमंजस में होती है तो उसकी माँ समझाती है कि हम अपनी बर्दाश्त करने की लिमिट की समझ को खो देते हैं। सरल शब्दों में यह कि हम जब किसी के साथ अच्छे पल बिताते हैं तो उसके वास्ते हम उन पलों को माफ़ कर देते हैं जब वो इंसान हमारे साथ बदसलूकी करता है। हम इस चाह को छोड़ नहीं पाते कि कभी कभी मार पिटाई बर्दाश्त करने के बाद भी उस इंसान का साथ मिल रहा है जिसके साथ बाकी वक़्त अच्छा ही है। इन सबमें हम अपने ऊपर हिंसा होना स्वीकार करते जाते हैं और धीरे धीरे सालों गुज़र जाते हैं जब ये समझ आती है कि अब हम अपने बर्दाश्त के दायरे से इतने आगे जा चुके है कि ख़ुद के आत्मसम्मान को ही भूल चुके हैं। और अब पीछे लौटना भी नामुमकिन सा होता है। लेकिन ये सलाह भारतीय समाज में एक विदेशी सोच की तरह ही है क्योंकि हमारे यहाँ औरत का मतलब ही है बर्दाश्त करना, सहनशील होना।
थप्पड़: “बस एक थप्पड़… पर मार नहीं सकता।”
थप्पड़ की कहानी इसी हिम्मत को बयान करती है। हालाँकि, एक दर्शक के तौर पर इसकी आलोचना की जा सकती है। यह कहानी आज की पढ़ी-लिखी लड़की की है, जो अपनी इच्छा से गृहिणी बनना स्वीकार करती है। यह उसके प्रिविलेज और सवर्ण होने की ओर भी इशारा करता है। फिल्म में एक जगह वह कहती है कि उसका पति उसे थप्पड़ मार सका क्योंकि उसे लगा कि उसे ऐसा करने का अधिकार है। लेकिन शुरुआती दृश्यों में, जब उसके घर पर काम करने वाली एक महिला के साथ घरेलू हिंसा रोज़ होती है, तो वह सवर्ण लड़की इस पर कोई गुस्सा जाहिर नहीं करती। शायद इसलिए, क्योंकि वह महिला निचली जाति से है और बाहर काम कर अपने परिवार का भरण-पोषण करती है।
अगर इस फिल्म को इट एंड्स विद अस के समानांतर रखकर देखें, तो कई बिंदु स्पष्ट होते हैं। इट एंड्स विद अस में पुरुष भावनात्मक रूप से अपनी पार्टनर से जुड़ा है और उससे अलग नहीं होना चाहता। वह रोता है, माफी माँगता है और प्रेम करते हुए भी अलग होना जानता है। कहानी पुरुष के प्रति भी संवेदनशील दिखती है। उसकी अच्छाइयों और कमजोरियों को दिखाया जाता है। वहीं, भारतीय सिनेमा पुरुष पात्र को अक्सर ऐसा गढ़ता है कि वे हृदयहीन प्रतीत होते हैं।
थप्पड़ में भी पति पूरी तरह नकारात्मक पात्र नहीं है। वह प्रेम करता है, लेकिन यह समझ नहीं पाता कि स्त्री की भी अपनी पहचान और इज्जत होती है। पितृसत्ता की वजह से पुरुष कभी ऐसा नजरिया विकसित ही नहीं कर पाते, जहाँ स्त्री को एक इंसान के रूप में देखा जाए। यही वजह है कि कई महिलाएँ भी भेदभाव की उपस्थिति को अनदेखा करके एक अन्यायपूर्ण जीवन को खुशी-खुशी अपना लेती हैं।
एक दृश्य में अमृता (तापसी पन्नू) कहती है:
“पता है, उस थप्पड़ से क्या हुआ? उस एक थप्पड़ से मुझे वो सारी अनफेयर चीजें साफ-साफ दिखने लग गईं, जिन्हें मैं अनदेखा करके मूव ऑन करती जा रही थी।”
वास्तविक जीवन की जटिलताएँ
हमारे आसपास ऐसी कई लड़कियों की कहानियाँ हैं, जो प्रेम में थीं। उनके साथी उनका खयाल रखते थे, लेकिन एक दिन शारीरिक हिंसा हुई। उन्होंने इसे नजरअंदाज किया, सोचकर कि यह दोबारा नहीं होगा। लेकिन ऐसी घटनाएँ बार-बार घटती रहीं। अंत में, उन्होंने कानूनी तौर पर रिश्ते को खत्म किया।
इट एंड्स विद अस ऐसे रोमांटिक रिश्तों की गहराई में जाकर समझाता है कि क्यों हम ऐसे रिश्तों को बार-बार मौके देते हैं।
समाज, शादी और व्यक्तिगत अधिकार
भारतीय परिदृश्य में वैवाहिक संस्था को व्यक्ति की निजी जरूरतों से अधिक महत्व दिया जाता है। यही वजह है कि यहाँ तलाक लेना एक महिला के लिए बेहद कठिन फैसला होता है, चाहे उसके पास कितने भी संसाधन या कानूनी सुरक्षा क्यों न हो।
डाइवोर्स के बाद के सवाल
लिली की ज़िंदगी इस फ़ैसले के बाद बेहतर हो जाती है, और कहानी एक सकारात्मक संदेश के साथ समाप्त होती है। लेकिन वास्तविक जीवन में, घर के भीतर की लड़ाई ख़त्म करने के बाद, महिलाओं को समाज के विरोध में एक नई लड़ाई का सामना करना पड़ता है। एक भारतीय लड़की को सुरक्षित जीवन जीने के लिए अक्सर किसी पुरुष के नाम के साथ समाज में रहना पड़ता है। ज़्यादातर मामलों में, यदि वह बिना पति के है, तो उसका मायका भी उसे सम्मान और स्थान देने में असमर्थ होता है। सबसे निराशाजनक बात यह है कि हमारे समाज में ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जो महिलाओं को अपने बराबर मानने की मानसिकता रखते हों।
आर्थिक आज़ादी और घरेलू हिंसा
हमारे समाज में लड़कियों को ऐसी हिंसात्मक ज़िंदगी से बचने के लिए आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी जाती है। यह सलाह सही भी है, क्योंकि आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाएं अपने जीवन के फ़ैसले लेने में सक्षम होती हैं।लेकिन, क्या आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाओं पर कभी अत्याचार नहीं होते? इस सवाल का जवाब तलाशने पर हम पाते हैं कि घरेलू हिंसा का शिकार कोई भी हो सकता है। ऐसे में हमें नज़रिये को पीड़िता के बजाय शोषक पर केंद्रित करना चाहिए।
अक्सर हमारे समाज में लड़की के चरित्र और व्यवहार पर सवाल उठाए जाते हैं, जबकि शोषक की मानसिक स्थिति और समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
सीधी बात है: चाहे लड़की ने कोई अपराध किया हो या नहीं, उसके पति को उस पर हाथ उठाने का कोई अधिकार नहीं है। हिंसा को किसी भी स्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता।
यह सवाल भी उठ सकता है कि क्या महिलाएं भी कभी अपने पति या साथी के प्रति घरेलू हिंसा करती हैं? इसका जवाब है—हाँ, ऐसे मामले भी होते हैं। लेकिन यह मामले संख्या में कम हैं और समाज की व्यवस्था का हिस्सा बनकर सामने नहीं आते।
घरेलू हिंसा का बच्चों पर प्रभाव
घरेलू हिंसा में पति-पत्नी के बीच जो सबसे बड़ा मानसिक आघात होता है, वह उनके बच्चों को सहना पड़ता है। यह आघात पीढ़ियों तक चलता है।माँ के अनुभव और व्यवहार बच्चों पर असर डालते हैं, और वे आगे चलकर अपने जीवन में इन्हीं अनुभवों की छाप लेकर बढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे बच्चे सफल जीवन नहीं जीते, लेकिन उनके भीतर की मानसिक उथल-पुथल उनके संघर्ष को और अधिक कठिन बना देती है।
यह ज़रूरी है कि बच्चे मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ जीवन जी सकें। इसलिए, घरेलू हिंसा के इस चक्र को तोड़ना अनिवार्य है।हालाँकि, हमारे समाज में यह धारणा है कि बच्चों के लिए माता-पिता दोनों का साथ होना ज़रूरी है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि यदि माता-पिता साथ रहते हुए लगातार लड़ते हैं, तो यह बच्चों के लिए किसी यातना से कम नहीं होता।यह पूरी तरह संभव है कि माता-पिता अलग रहकर भी अपने बच्चों को अपना पूरा प्यार दें और उनकी बेहतर परवरिश करें।
घरेलू हिंसा और नशे की लत
घरेलू हिंसा और मादक द्रव्यों के नशे की लत किसी जाति विशेष से जुड़ा मामला नहीं है। हालांकि, सवर्ण जाति की महिलाओं के पास आर्थिक, सामाजिक और क़ानूनी सहायता अपेक्षाकृत सरलता से उपलब्ध रहती है, जबकि निचली जाति की महिलाओं के लिए ऐसी सुविधाएँ मुश्किल से सुलभ होती हैं।नशे की समस्या, जब आर्थिक तंगी से ग्रस्त निचली जाति के समाज में गहराई से जड़ें जमा लेती है, तो यह उनकी परिस्थितियों को और अधिक कठिन बना देती है। यह घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने का काम करती है।
ऐसी स्थिति में, भले ही कोई महिला अपना घर खुद चलाने में सक्षम हो, लेकिन उसे अक्सर हिंसा और शोषण ही झेलना पड़ता है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए किसी किताब या फ़िल्म की तरह कोई जादुई समाधान नहीं होता। इन महिलाओं के शोषण में उनकी जाति एक बड़ा कारक होती है। इसलिए, समाज से जाति व्यवस्था को समाप्त करना महिलाओं के उत्थान के लिए अत्यावश्यक है।
यौन हिंसा और भारतीय न्यायिक व्यवस्था की सोच
आज भी हमारी न्यायिक व्यवस्था में वैवाहिक संबंधों के भीतर बलात्कार को बलात्कार के रूप में मान्यता नहीं दी जाती। यह भी घरेलू हिंसा का एक रूप है।यौन हिंसा के ज़रिये पुरुष, स्त्री के आत्मसम्मान और मनोबल को सबसे गहरी चोट पहुँचाता है। जब क़ानून ही पुरुषों को इस प्रकार की हिंसा से संरक्षित करता है, तो ऐसी स्थितियों में महिलाओं के लिए न्याय पाना लगभग असंभव हो जाता है।
शादी करते ही भारतीय लड़कियों को समाज की नज़रों में एक पुरुष की पहचान से जोड़ दिया जाता है। इसके चलते उनकी अपनी पहचान दोयम दर्जे की मानी जाती है।यह स्थिति हमारे परिवार, रिश्तेदारों, दोस्तों, सहकर्मियों और समाज के बाकी सभी लोगों में दिखाई देती है। क्या हम कभी यह खुलकर कह पाएंगे कि हमारी पहचान केवल हमारी अपनी है, किसी पुरुष से नहीं? जब तक हम ऐसा नहीं कह सकते, तब तक हम पूरी तरह आज़ाद नहीं हो सकते। हां, तलाक़ एक विकल्प हो सकता है, लेकिन क्या हर छोटी-छोटी झड़प पर तलाक़ का रास्ता अपनाना चाहिए?
विराम
भावनाओं और अधिकारों से जुड़े इस मुद्दे की जटिलता को समझना सरल नहीं है। किसी से प्रेम करके अलग हो जाना सरल नहीं है। अपने बसेरे को तोड़ना भी सरल नहीं है।लेकिन, एक बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है—प्रेम में हिंसा का कोई स्थान नहीं है।जैसा कि कहानियों को अक्सर सकारात्मक अंत दिया जाता है, मैं भी इस लेख को सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ समाप्त करना चाहती हूं।
अगर रिश्ते और शादी की संस्था को बचाने के लिए किसी लड़की को खुद को खोना पड़े, तो ऐसे रिश्तों और शादी का कोई अर्थ नहीं है। समाज को पवित्र बंधन के नाम पर महिलाओं की बलि देना बंद करना होगा। इसे अपने भीतर सुधार लाना होगा और महिलाओं का साथ देने के लिए उनका हाथ थामना होगा।राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के अनुसार, करीब 87% विवाहित महिलाएं, जो घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, मदद के लिए आगे नहीं आतीं।सकारात्मक अंत, इन आंकड़ों में तो कहीं नज़र नहीं आता। इसी कारण, मैं इस लेख को बिना किसी ठोस निष्कर्ष के यहीं विराम दे रही हूं।