लेखक : अब्दुल्लाह मंसूर

नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री “डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर” देखने के बाद मुझे एक अजीब सा अनुभव हुआ। यह फिल्म ब्रायन जॉनसन नाम के एक अमीर टेक उद्यमी की कहानी है, जो बुढ़ापे और मौत से लड़ने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रहा है। जॉनसन साहब की जिंदगी देखकर मुझे लगा कि वो किसी साइंस फिक्शन फिल्म के किरदार हैं। हर दिन वो सैकड़ों गोलियां खाते हैं, अजीब-अजीब मशीनों में घंटों बिताते हैं, और अपने बेटे का प्लाज़मा भी ले लेते हैं। शायद जॉनसन साहब कुछ ऐसा कर रहे हैं जो हम सब चाहते हैं – लंबी और स्वस्थ जिंदगी जीना। बस फर्क इतना है कि उनके पास करोड़ों रुपये हैं जो वो इस पर खर्च कर सकते हैं तो इस लेख में इस डॉक्यूमेंट्री के बहाने हम मौत और अमरता पर बात करेंगे।

युवाल हरारी कहते हैं कि 21वीं सदी में इंसान तीन बड़े मकसद हासिल करने की कोशिश कर सकता है: अमरता, खुशी और देवत्व। इसका मतलब यह है कि इंसान बुढ़ापे और मौत को हराने, जिंदगी को ज्यादा सुखद और संतोषजनक बनाने और खुद को देवताओं जैसी शक्तियां देने की कोशिश करेगा। हालांकि, ये मकसद जितने बड़े हैं, उतनी ही बड़ी चुनौतियां और सवाल भी इनके साथ आते हैं। अगर हम इंसानी जिंदगी की औसत उम्र पर नजर डालें, तो बीते 100 सालों में इसमें काफी बदलाव आया है। 1900 में औसत उम्र सिर्फ 31-32 साल थी, जबकि 2021 तक यह बढ़कर 71 साल हो गई। जापान जैसे देशों में तो यह 84 साल से भी ज्यादा है। इस बदलाव की वजह बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, दवाइयां और टीकाकरण जैसे कदम हैं। मसलन, 2000 से 2019 के बीच 37 लाख लोगों की जान सिर्फ टीकों की वजह से बचाई गई। मीज़ल्स के टीके ने ही 58 लाख जानें बचाई हैं।

जॉनसन साहब का “प्रोजेक्ट ब्लूप्रिंट” मुझे बहुत दिलचस्प लगा। वो हर दिन 100 से ज्यादा सप्लीमेंट्स लेते हैं, सख्त वीगन डाइट फॉलो करते हैं, और अपने शरीर के हर छोटे-बड़े बदलाव को ट्रैक करते हैं। उनका दावा है कि इससे उनकी बायोलॉजिकल एज कम हो गई है। मुझे लगता है कि ये थोड़ा ज्यादा हो गया, लेकिन फिर भी उनकी लगन देखकर मैं हैरान हूं। इंसान की उम्र बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। जीन एडिटिंग, स्टेम सेल तकनीक और सेनोलिटिक्स जैसी नई खोजें उम्र बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती हैं। कुछ दवाएं, जैसे मेटफॉर्मिन और रैपामाइसिन, जानवरों में उम्र बढ़ाने के सफल प्रयोग दिखा चुकी हैं। नैनोटेक्नोलॉजी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी तकनीकों से भी उम्मीद है कि इंसान की उम्र और बेहतर हो सकेगी। कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि आने वाले समय में इंसान की उम्र 150 साल तक हो सकती है। हालांकि, यह एक विवादित मसला है। लेकिन कोशिशें सिर्फ लंबी उम्र के लिए नहीं हैं, बल्कि यह भी है कि लोग अपनी जिंदगी को ज्यादा स्वस्थ और खुशहाल तरीके से जी सकें।

Bryan Johnson

अगर सच में इंसान अमर हो गया तो मुझे लगता है कि इसका असर हमारे परिवार और समाज पर बहुत गहरा पड़ेगा। शायद शादी और बच्चों का महत्व कम हो जाएगा, क्योंकि लोग अनंत समय तक जी रहे होंगे। कई पीढ़ियां एक साथ रहेंगी, जिससे परिवार बड़े और जटिल हो सकते हैं। समाज में बुजुर्गों की संख्या बढ़ेगी और बच्चों और नौजवानों की संख्या कम हो सकती है। मुझे लगता है कि अमरता के आर्थिक पहलू भी बड़े दिलचस्प होंगे। अगर लोग सौ सालों तक काम करेंगे, तो नौकरियों का सिस्टम पूरी तरह बदल जाएगा। शायद पेंशन और रिटायरमेंट जैसी चीजें ही खत्म हो जाएं। संपत्ति का बंटवारा एक बड़ा मुद्दा बन सकता है, क्योंकि अमीर लोग ज्यादा वक्त तक जीते रहेंगे और उनकी दौलत लगातार बढ़ती जाएगी।


अमरता से इंसान को देवताओं जैसी ताकतें जरूर मिल सकती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इंसान पूरी तरह देवता बन जाएगा। शायद इससे इंसानों की एक नई प्रजाति भी पैदा हो सकती है, जिसे आज का इंसान समझ न पाए। हालांकि अमरता के फायदों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन मुझे लगता है कि इसके साथ कई गंभीर सवाल भी खड़े होते हैं। अगर अमरता सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित रह गई, तो समाज में असमानता और बढ़ सकती है। अमीर लोग लंबे समय तक जिंदा रहकर अपनी ताकत और दौलत को बढ़ा सकते हैं। दूसरी तरफ, आम लोगों के लिए यह एक सपना भर रह सकता है।

फिल्म में दिखाया गया कि जॉनसन साहब पहले मोटे और उदास थे। लेकिन अब वो फिट और खुश नजर आते हैं। शायद उनकी कोशिशों का कुछ फायदा हुआ है। मगर मुझे लगता है कि वो कुछ जरूरी चीजें भूल गए हैं। जैसे परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताना, जिंदगी का मजा लेना। फिल्म के आखिर में जब उनका बेटा कॉलेज जाता है तो वो रो पड़ते हैं। तब मुझे लगा कि शायद उन्हें अहसास हुआ कि सिर्फ लंबी उम्र काफी नहीं है।

फिल्म में कुछ डॉक्टर्स और एक्सपर्ट्स भी दिखाए गए जो जॉनसन साहब के तरीकों पर सवाल उठाते हैं। वो कहते हैं कि ये तरीके खतरनाक हो सकते हैं और इनका कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है। मुझे लगता है कि ये बात सही है। हमें अपनी सेहत के साथ ऐसे एक्सपेरिमेंट नहीं करने चाहिए। कुल मिलाकर ये फिल्म दिलचस्प थी। इसने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हम अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें, लेकिन साथ ही जिंदगी का लुत्फ भी उठाएं। मुझे लगता है कि हमें जॉनसन साहब जैसा पागलपन नहीं करना चाहिए, लेकिन उनसे कुछ सीख जरूर ले सकते हैं – जैसे अच्छी नींद लेना, सही खाना खाना और एक्सरसाइज करना।

इस फिल्म ने मुझे ये भी सोचने पर मजबूर किया कि क्या हम वाकई में मौत से इतना डरते हैं? क्या हम अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की बजाय सिर्फ उसे लंबा करने की कोशिश कर रहे हैं? मुझे लगता है कि हमें इन सवालों पर गंभीरता से सोचना चाहिए। मौत के बारे में सोचना मुश्किल होता है, मगर मैं मानता हूँ कि यह ज़रूरी भी है। यह हमें एक अहम सवाल से रूबरू कराता है – हमारी मौत के बाद दुनिया कैसे बदलेगी? हम क्या निशान छोड़ जाएँगे? मुझे लगता है कि यह शायद ज़िंदगी का सबसे अहम सवाल है, मगर हम इससे अक्सर भागते हैं। आज, जब मैं अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे लगता है कि मौत का डर मुझे बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देता है। मैं हर दिन को इस तरह जीने की कोशिश करता हूँ जैसे यह मेरा आखिरी दिन हो। यह सोच मुझे ज़िंदगी की हर छोटी-छोटी खुशी का आनंद लेना सिखाती है।

लेखक पसमांदा डेमोक्रेसी यूट्यूब चैनल के संचालक हैं