हाल में RSS चीफ मोहन भागवत द्वारा दिया गया बयान चर्चा में है जिसमें उन्होंने कहा है कि “कोई भी ऊंच-नीच नहीं। शास्त्रों के आधार पर पंडित जो कहते हैं, वह झूठ है। जाति श्रेष्ठता और जातिगत अनुक्रम के विचार में फंसकर हम भ्रमित हो गए हैं। इस भ्रम को मिटाना होगा। हमारा ज्ञान, हमारी परंपरा ऐसा नहीं कहते। हमें इसे समाज तक पहुंचाना चाहिए।” मुस्लिम समाज में भी इसी तरह की व्यवस्था मौजूद है, पर आज तक किसी सैयद ने सैयदवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया।

यह हिंदू धर्म की खूबसूरती है कि इस कुप्रथा के खिलाफ लोग इतने मुखर होकर बोल पाते हैं। मुस्लिम समाज में इतनी मुखरता आपकी हत्या का कारण बन सकती है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में ईशनिंदा के नाम पर हत्या इसका उदाहरण है। यह कहना न होगा कि ऊंच-नीच और सामाजिक बहिष्कार भारतीय समाज के जातिवाद का एक घिनौना चेहरा है।

ब्राह्मणवाद क्या है ?

पहले हम इस बात को समझने की कोशिश करते हैं कि ब्राह्मणवाद कहते किसको हैं ? ब्राह्मणवाद यथास्थितिवादी विचारधारा है, जो पूरी तरह से उन कुलीनों के लिए उपयुक्त है जो अपनी सामाजिक स्थिति, शक्ति और विशेषाधिकार को बनाए रखना चाहते हैं। इस तरह से ब्राह्मणवाद एक सवर्ण प्रभुत्व संस्कृति के रूप में काम करती है। इस बात को समझें कि कोई भी व्यक्ति, जो जन्म आधारित असमानता के इस पदानुक्रम को अपनी जाति, पंथ या लिंग की परवाह किए बिना समर्थन या औचित्य देता है, वह ‘ब्राह्मणवादी’ है।जहाँ ब्राह्मण न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र के अनन्य संरक्षक के रूप में सर्वोच्च स्थान रखते हैं, बल्कि ज्ञान के एकमात्र प्रदाता के रूप में श्रेणीबद्ध असमानता में भी सबसे ऊंचे पायदान पर विराजमान हैं। अब अगर ऐसे ही विचार आपको किसी धर्म में नज़र आएं तो आप उसे क्या कहेंगे? क्या वह ब्राह्मणवाद नहीं है? मुस्लिम समाज में भी इसी तरह की व्यवस्था मौजूद है पर आज तक किसी सैयद ने सैयदवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया।

ब्राह्मण कहते हैं कि हम ब्रह्मा के मुख से जन्मे हैं इसलिए हम अन्य सभी जातियों से श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों ने यह बात साबित करने के लिए ऋग्वेद का सहारा लिया। ऋग्वेद के 10वें मंडल में पुरुषसूक्त नामक श्लोक के माध्यम से। इस तरह लोगों ने गैर-बराबरी को भी दैवीय माना। यही वजह है कि डॉक्टर आंबेडकर अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में लिखते हैं कि “जाति और वर्ण ऐसे मामले हैं, जिनकी चर्चा वेदों और शास्त्रों में की गई है और परिणामस्वरूप बुद्धि का आह्वान किसी हिन्दू पर कोई असर नहीं डाल सकता।” मतलब इस मामले में तर्क और बुद्धि के इस्तेमाल की मनाही है। ठीक इसी तरह इन अशराफ उलेमाओं ने भी खुद को नबी (स.अ.) के खानदान से जोड़ कर झूठी हदीसें गढ़ीं। उन्होंने भी सैयद की सेवा करने के नाम पर मिलने वाली जन्नत के किस्से गढ़े, अगर सैयद गरीब है तो यह उस सैयद का इम्तिहान नहीं है बल्कि हमारा इम्तिहान है कि हम उस सैयद की कितनी सेवा कर पाते हैं। यह भी ज्ञात रहे कि हदीसों का संकलन नबी (स.अ.) की वफात के 100 साल बाद शुरू हुआ है।

यह वही वक्त था जब सत्ता के लिए शिया और सुन्नियों के बीच जंग हो रही थी। जब यह बताया जाता है कि खलीफा सिर्फ कुरैश बन सकते हैं तब दरअसल यह बताया जा रहा होता है कि खिलाफत पर सिर्फ एक कबीले/जाति का दैवीय अधिकार है। राज्य ईश्वर ने बनाया इसलिए राजा ईश्वर का दूत है, ‘ज़िल्ले इलाही’ है। कोई भी उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता। अगर यह साबित कर दिया जाए कि नबी (स.अ.) ने किसी खास खानदान या कबीले को सत्ता सौंपी थी तो उसकी दावेदारी ईश्वरीय हो जाएगी क्योंकि नबी (स.अ.) ईश्वर के दूत थे।

अब कोई भी आम मुसलमान हदीस का नाम सुनकर शांत हो जाएगा और नहीं पूछेगा कि कैसे तुमने इस्लाम के बुनियादी उसूल ‘मसावात’ (समानता) के खिलाफ हदीस गढ़ दी? जो इस्लाम कहता है कि – “इस्लाम में कोई वंश परंपरा नहीं है!” वहां तुमने वंश परंपरा को मजबूत कैसे कर दिया? पर सवाल करने की यह हिम्मत कौन करता है? क्यों अशराफ जातियों को ही मुसलमानों का नेतृत्व दिया जाना चाहिए? हम मुसलमानों के नाम पर बनाई गई सारी संस्थाएं और राजनीतिक पार्टियों को देख सकते हैं कि इनमें मुसलमान के नाम पर चुने जाने वाले व्यक्ति की जाति हमेशा अशरफ ही होती है। क्यों सारी प्रमुख मज़ार/दरगाह सैयद पीरों की हैं?

बाबा साहब अंबेडकर ने अपने लेख में यह सिद्ध किया है कि कैसे अंतर्जातीय विवाह को निषिद्ध करके इस जातिप्रथा को ब्राह्मणों ने मरने नहीं दिया। मुस्लिम समाज में भी ‘कफू’ का सिद्धांत यह बताता है कि कौन किस जाति में शादी कर सकता है, किस जाति में शादी नहीं कर सकता, कौन किस जाति के बराबर है और कौन उससे नीचा है! कुफ़ू एक ज़रिया, एक हथियार था जिसके द्वारा यह जातिवादी उलेमा इस्लाम में नस्ल/वंश परंपरा वाली बात को क़ानूनी (इस्लामी) मान्यता दे सकें।यह उन्हें स्वाभाविक रूप से अन्य सभी मनुष्यों से श्रेष्ठ बनाता है, इतना श्रेष्ठ कि वे पूरी तरह से एक अलग प्रजाति (जाति) की पहचान रखते हैं। जिस तरह शूद्र जन्म से ही निष्कृष्ट माने जाते हैं, उसी तरह ब्राह्मण जन्म से शुद्ध। सैयदवाद/ब्राह्मणवाद यथास्थितिवादी विचारधारा है, जो पूरी तरह से उन कुलीनों के लिए उपयुक्त है जो अपनी सामाजिक स्थिति, शक्ति और विशेषाधिकार को बनाए रखना चाहते हैं।

आप हनफ़ी मसलक के सबसे बड़े मदरसों में से एक देवबंद की आधिकारिक वेबसाइट पर कुफू का मसला देखिए। प्रोफेसर मसऊद आलम फलाही अपनी किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात पात और मुसलमान’ में लिखते हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जिसे इस्लामी शरीयत और भारतीय मुसलमानों की अग्रणी संस्था माना जाता है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी ऐसी शादियों को वैध नहीं मानता। “एक अरब, गैर-अरब से श्रेष्ठ है, अंसारी, दर्ज़ी, धोबी से सैयद-शेख श्रेष्ठ हैं, खानदानी मुसलमान, नए हुए मुसलमान से श्रेष्ठ हैं… आदि। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी ऐसी शादियों को वैध नहीं मानता। बोर्ड स्वयं गैर-कुफु (जो बराबर न हो) यानी एक अशराफ (शरीफ/उच्च/विदेशी जाति के मुस्लिम) को एक पसमांदा (रज़ील/निम्न/नीच/देशी जाति के मुस्लिम) से हुए विवाह को न्यायसंगत नहीं मानता है और इस प्रकार के विवाह को वर्जित करार देता है।” [पेज नं०-101-105, 237-241, मजमूए कानूने इस्लामी, 5वां एडिशन, 2011, प्रकाशक आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, 76A/1, ओखला मेन मार्केट, जामिया नगर, नई दिल्ली-110025, इंडिया]

एक हदीस देखें, “लोगो! मैं तुम में ऐसी चीज़ छोड़कर जा रहा हूँ कि अगर मजबूती से इसे थामे रखोगे तो गुमराह (पथभ्रष्ट) न होगे, और वह ईश्वर की किताब (क़ुरआन) है, और मेरे घर वाले मेरी औलाद हैं।” (हदीस नं०2408, तिर्मिज़ी) [मुहम्मद (स० अ० व०) की सबसे छोटी बेटी फातिमा (र० अ०) के छोटे बेटे का नाम हुसैन (र० अ०) है, जिसकी नस्ल/वंश को सबसे उच्च कोटि का सैयद माना जाता है।]

मुस्लिम’ शासन व्यवस्था में सैयदों की स्थिति

उलेमाओं में एक बड़ा वर्ग सैयद उलेमाओं का था। सैयद मौलवियों ने झूठी कहानियां और हदीस गढ़कर सैयदों की श्रेष्ठता को स्थापित किया। इस बात को मुस्लिम समाज में स्थापित कर दिया कि सैयद जन्म से ही श्रेष्ठ हैं। यही वजह है कि मुस्लिम शासक सादात (सैयद) परिवारों की ख़ास देखभाल करते थे।

काजी, मुफ्ती और सदर जैसे सारे ओहदे उन्हें दिए जाते थे। इसके अलावा ऊँचे प्रशासनिक पद भी उन्हें दिए जाते थे। उन्हें जागीरें, वजीफे एवं छात्रवृत्तियां दी जाती थीं। शासक उनका सम्मान करते तथा उनके अपराध आम तौर पर क्षमा कर दिए जाते। हत्या के मामले में भी सैयद को मौत की सजा नहीं दी जाती थी क्योंकि सैयद का ख़ून बहाना शासक अपशकुन मानते थे।

इस नज़रिये का नतीजा यह हुआ कि सैयद वर्ग अत्यधिक सुविधा सम्पन्न बन गया। सारी सुविधाओं को एक छोटे से दायरे में सीमित रखने के लिए सैयदों ने अन्य जातियों एवं समूहों से संबंध विच्छेद कर लिया तथा दावा किया कि उनका रक्त शुद्ध है। खून को शुद्ध रखने के लिए वह कुफ़ू के सिद्धांत को इस्लाम में लेकर आए।

वह अपने परिवारों में शादियां करते तथा अन्य जाति समूहों से उनके आवास दूर होते। यहाँ तक कि उनके कब्रिस्तान भी अलग होते ताकि लोग आकर चढ़ावा चढ़ा सकें। मकबरे आमदनी के बड़े स्रोत होते हैं। इन असाधारण सुविधाओं के कारण बड़ी संख्या में सैयदों ने मध्य एशिया, ईरान तथा अरबी दुनिया से आना शुरू किया।

सादातों (सैयद) के इतने परिवार हो गए कि हर शहर और गाँव में एक-दो (सैयद) परिवार थे जिनके लिए वह गर्वित थे। [इतिहासकार मुबारक़ अली ‘इतिहास का मतांतर‘ पृष्ठ 50, 51] याद रहे सैयदवाद को उन लोगों की सहायता और सहयोग की ज़रूरत होती है, जिन लोगों पर यह विचारधारा शासन करती है।

पसमांदा मुसलमानों की सहायता और सहयोग से ही यह विचारधारा फल-फूल रही है। एक विचारधारा के स्तर पर सैयदवाद सबसे पहले कुरान और हदीस के जरिए सैयदवाद (सैयद जन्म से श्रेष्ठ हैं) की वैधता को स्थापित करती है। एक बार इस्लामी वैधता स्थापित हो जाए तो सैयदवाद के आदेशों का पालन करना 85% पसमांदा मुसलमानों का नैतिक कर्तव्य बन जाता है।

सैयदवाद को फैलाने का काम विभिन्न माध्यमों से होता है। इसके लिए अलग-अलग क्षेत्र के विशिष्ट कौशल और ज्ञान वाले लोगों की आवश्यकता होती है, जो अदब, मीडिया, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, मदरसों, विश्वविद्यालयों में सैयदवादी विचारधारा को स्थापित कर सकें। यही वह मनोवैज्ञानिक और वैचारिक कारक हैं जो पसमांदा मुसलमानों से सैयदवादी विचारधारा को मानने और उसे फैलाने को प्रेरित करते हैं।

याद रहे सत्ता-शक्ति के ये सभी स्रोत पसमांदा समाज की स्वीकृति और आज्ञाकारिता पर निर्भर करते हैं। सैयद अपने भौतिक संसाधनों के लिए मदरसों-मज़ारों (भारत उपमहाद्वीप में 99% मज़ार सैयदों की हैं) संगठनों, संस्थाओं पर अपना नियंत्रण मजबूत करते हैं। उन सभी लोगों को जो सैयदवाद की विचारधारा के खिलाफ हैं, उन्हें हर उस संस्था, संगठन में घुसने से रोका जाता है जिस पर सैयदवाद का कब्ज़ा है। [मुबारक अली, इतिहास का मतांतर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण २००२]

वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष

जैसे अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता बनाने के लिए अपने कुछ मानसिक गुलाम पैदा किए जो रंग और चमड़ी से भारतीय हों और सोच से अंग्रेज़। ठीक ऐसे ही अपनी बात की वैधता के लिए अब इन अशराफ मौलानाओं को पसमांदा समाज के कुछ गुलामों की आवश्यकता थी जो इनके मदरसों से इनकी किताबों को पढ़कर निकलें और इस बात को पसमांदा समाज को समझा सकें।

कमाल की बात यह है कि ऐसा हुआ भी! कई सौ सालों तक अशराफ मौलानाओं के फतवों और किताबों को पसमांदा मुसलमान सीने से लगाकर घूमता रहा। इन मदरसों के पसमांदा छात्र अपने समाज और जाति के प्रति अपमान सूचक गाली को आज भी ईश्वर की वाणी और आदेश समझ पढ़ रहे हैं।

मौलाना मसूद आलम फलाही की किताब ‘हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ इस मायने में एक मील का पत्थर साबित हुई। इस किताब ने पोजीशन (पद) की लड़ाई को विचार के स्तर से उठाकर मनोविज्ञान के स्तर पर पहुंचा दिया। याद रहे आपका मनोविज्ञान ही आपके व्यवहार को निर्देशित करता है। उदाहरण के लिए, सैयदवाद/ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। इस विचारधारा ने जो संस्कृति बनाई उसमें जातिवाद, छुआछूत, वर्ण व्यवस्था थी/है। हज़ारों सालों तक लोग मानते रहे कि वर्ण नाम की कोई चीज़ होती है और असमानता प्राकृतिक है। पर जैसे-जैसे दलित चेतना तथा बहुजनवाद का उदय हो रहा है, वैसे-वैसे समाज एवं संस्कृति बदल रही है और उसी के अनुरूप हमारा मनोविज्ञान भी बदल रहा है। वर्चस्व के विरुद्ध लड़ाई विचार के स्तर से ही शुरू होती है। यही वजह है कि जब मौलाना मसूद आलम की किताब आई तो अशराफों में खलबली मच गई। उनके वर्चस्व को चुनौती किसने दी?

अभी तक पसमांदा मौलानाओं का काम उन किताबों को सिर्फ पढ़ना और अमल करना था, न कि उन किताबों में लिखे वाहियात तर्कों को चुनौती देना! अशराफ जातियों के पास यही विकल्प है कि वे ‘हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ किताब को हज़म कर लें यानी आत्मसात कर लें।

इतिहास में हम यह देखते हैं कि जाति प्रथा के विरुद्ध जो भी आंदोलन खड़े हुए, उन सभी आंदोलनों को ब्राह्मणवाद ने आत्मसात कर लिया और इस तरह ब्राह्मणवाद पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उभरा। सैयदवाद के लिए शायद इतिहास में यह पहला मौका है जब पसमांदा जातियों के कुछ बुद्धिजीवी उनकी सत्ता के खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं।

ऐसे में सैयदवाद इन बुद्धिजीवियों के खिलाफ़ अंधभक्त और गुलाम पसमांदा उलेमाओं की फौज उतार रहा है, जो अपनी गुलामी के सारे तर्क को स्वीकार कर, हर पसमांदा-तहरीक को गैर इस्लामी, मुस्लिम समाज को तोड़ने की साजिश करार देते हुए इन बुद्धिजीवियों को भाजपा और संघ का एजेंट साबित कर रहे हैं।

मुस्लिम समाज में आज तक सैयदवाद शब्द का इस्तेमाल नहीं होता, क्योंकि जब आप किसी के वर्चस्व में होते हैं तो आपको लगता ही नहीं कि आपके ऊपर किसी की कोई सत्ता थोपी गई है। जो भी व्यवस्था बनी है या बनाई गई है, उसे आप अपने लिए बेहतर मानते हैं। तब सत्ता आपके लिए एक ‘विश्वास तंत्र’ में बदल जाती है।

हमें सबसे पहले पसमांदाओं को अशराफों की आध्यात्मिक गुलामी से निकालना पड़ेगा। पसमांदा समाज की चेतना अभी अविकसित अवस्था में है। जब तक चेतना का विकास नहीं होता तब तक उनका न तो कोई संगठन बन सकता है और न ही कोई आंदोलन खड़ा हो सकता है।

यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि पसमांदा आंदोलन का मानना यही है कि हमारा समाज धार्मिक समाज है तो इसे धार्मिक तरीके से ही पहले समझाया जा सकता है। कठोर पूंजीवादी संरचना में भी श्रम और श्रमिकों के लिए धर्म में जगह बना ली गई। ज़कात, फ़ितरा, सूद (अर्थात ‘ब्याज’ जो कि इस्लाम में लेना और देना दोनों ही हराम है) आदि की व्यवस्था द्वारा इस्लाम धर्म को श्रम और श्रमिकों के अनुकूल बना दिया गया। यही वजह है कि पसमांदा जातियों का धर्म के प्रति वैसा गुस्सा नज़र नहीं आता जैसा गुस्सा शूद्र और दलित जातियों का हिंदू धर्म के प्रति है।

जब तक पसमांदा समाज में जातीय चेतना पैदा नहीं होती, तब तक सैयदवादी स्थापित सत्ता के विरुद्ध किसी प्रकार का कोई आंदोलन या क्रांति नहीं आ सकती। पसमांदा आंदोलन मानता है कि अगर कोई वकील किसी अपराधी को क़ानूनी किताब के ज़रिए बचाने की कोशिश करता है, तो दूसरा वकील उस अपराधी को सज़ा दिलाने के लिए उसी क़ानूनी किताब का सहारा लेता है, न कि उस किताब को फाड़कर फेंक देता है। मतलब, इस वक्त पसमांदा आंदोलन की ज़रूरत पसमांदा नज़रिए से इस्लामी धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या है।

(लेखक, पसमांदा एक्टिविस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। YouTube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं। यह लेखक के अपने विचार हैं, संस्थान का इससे संबंध नहीं।)

अब्दुल्लाह मंसूर