लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

धर्म मानव सभ्यता के विकास में एक अहम भूमिका निभाने वाला तत्व है। यह न केवल आध्यात्मिकता और नैतिकता का आधार है, बल्कि समाज के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे को भी प्रभावित करता है। हालांकि, धर्म का प्रभाव दोधारी तलवार की तरह है—यह शोषण का औजार बन सकता है या मुक्ति का माध्यम। इस लेख में हम धर्म के इन दोनों पहलुओं का विश्लेषण करेंगे और इसे पसमांदा आंदोलन की थीम से जोड़कर समझने का प्रयास करेंगे।

भारत में पसमांदा मुसलमानों और दलितों की दशा से मिलती-जुलती है, जहां धर्म और परंपरा का इस्तेमाल उन्हें दबाने और उनके विद्रोह को कुचलने के लिए किया गया। इतिहास गवाह है कि पसमांदा मुसलमानों को अशराफ वर्ग ने शिक्षा से वंचित रखा। जब उन्हें पढ़ने की अनुमति मिली भी, तो वह सिर्फ इतनी थी कि वे अपने मालिकों की सेवा कर सकें। सर सैयद अहमद खान जैसे व्यक्तित्वों ने शिक्षा अभियान चलाया, लेकिन वह मुख्य रूप से अशराफ मुस्लिमों तक सीमित था। पसमांदा समुदाय को केवल खतो-किताबत तक सीमित शिक्षा देने की वकालत की गई। अमेरिका और भारत ही नहीं, अफ्रीका में भी धर्म का उपयोग उपनिवेशवादियों द्वारा शोषण के औजार के रूप में किया गया। यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने ईसाई धर्म को “सभ्यता” लाने के नाम पर अफ्रीका में फैलाया। मिशनरियों ने शिक्षा और चिकित्सा सेवाओं के माध्यम से स्थानीय जनजातियों का विश्वास जीता, लेकिन इसके पीछे एक गहरी रणनीति छिपी थी। इस प्रक्रिया में उन्होंने अफ्रीकी संस्कृतियों, परंपराओं और धार्मिक विश्वासों को “पिछड़ा” और “असभ्य” करार दिया। उदाहरण के तौर पर बेल्जियम द्वारा कांगो में ईसाई धर्म का उपयोग स्थानीय लोगों को दास श्रमिक बनाने के लिए किया गया।

अभी हाल ही में मैंने एक फिल्म देखी “द बर्थ ऑफ ए नेशन” 2016, फिल्म नैट टर्नर नामक एक अफ्रीकी-अमेरिकी गुलाम के जीवन और 1831 में उनके नेतृत्व में हुए गुलामी-विरोधी विद्रोह पर आधारित है। यह फिल्म न केवल गुलामी के अमानवीय स्वरूप को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे धर्म, जो अक्सर शोषण का औजार बनता है, मुक्ति और प्रतिरोध का माध्यम भी बन सकता है। फिल्म दिखाती है कि कैसे धर्म का इस्तेमाल दो तरह से किया जा सकता है: एक तरफ उत्पीड़न और गुलामी को वैध ठहराने के लिए, और दूसरी तरफ अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ाई में शक्ति देने के लिए। जैसे अफ्रीका में वही ईसाई धर्म जो उपनिवेशवादियों द्वारा शोषण के लिए इस्तेमाल हुआ था, स्वतंत्रता आंदोलनों में प्रेरणा स्रोत भी बना। मिशनरी स्कूलों ने अफ्रीकी नेताओं जैसे क्वामे नक्रूमा (घाना) और जूलियस न्येरेरे (तंजानिया) को शिक्षित किया, जिन्होंने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष किया। इसी तरह इस्लाम ने उप-सहारा अफ्रीका में सांस्कृतिक पुनर्जागरण को प्रेरित किया। धार्मिक एकजुटता ने लोगों को संगठित होने और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की ताकत दी।

मुस्लिम समाज में अशराफ वर्ग ने सैकड़ों सालों तक धर्म का उपयोग अपनी सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए किया। मदरसों और धार्मिक फतवों के माध्यम से यह संदेश फैलाया गया कि केवल अशराफ वर्ग ही नेतृत्व करने योग्य हैं और पसमांदा मुसलमानों को हमेशा उनके अधीन रहना चाहिए। मसऊद आलम फलाही जैसे विचारकों ने इस्लाम के भीतर जाति प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी पुस्तक “हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान” ने अशराफवाद की नींव पर हमला किया। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह स्थापित किया कि इस्लाम समानता और भाईचारे का धर्म है, लेकिन अशराफ वर्ग ने इसे जातीय भेदभाव और वर्चस्व के लिए तोड़-मरोड़ कर पेश किया। उन्होंने अशराफ उलेमा के उन सारे तर्कों तथ्यों का खंडन किया जिसने इस्लाम में सैयदवाद को स्थापित कर रखा था। कुरान में अल्लाह ताला कहते हैं ‘मैंने तुम्हें पैदा किया एक पुरुष और एक स्त्री से और बना दी हैं तुम्हारी जातियां एवं प्रजातियां, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको. वास्तव में, तुम लोगों में अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है, जो तुम लोगों में अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो.’ (सुरह हुजुरात आयत न० 13) इसके बावजूद अशराफ वर्ग ने अपनी सत्ता के लिए धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत की।

अशराफ वर्ग ने न केवल सत्ता पर कब्जा जमाया बल्कि पसमांदा समाज की मानसिक गुलामी बनाए रखने के लिए धार्मिक शिक्षा का सहारा लिया। मदरसों को इस उद्देश्य से इस्तेमाल किया गया ताकि पसमांदा मुसलमान ऐसी शिक्षाओं को स्वीकार करें जो उनके खिलाफ थीं। उदाहरण के तौर पर अशरफ अली थानवी की किताब “बहिश्ते ज़ेवर” जातिगत भेदभाव को वैध ठहराने वाली शिक्षाओं से भरी हुई थी। लेकिन समय बदला और पसमांदा समाज ने इन व्यवस्थाओं को चुनौती देना शुरू किया।

मसऊद आलम फलाही जैसे विचारकों ने धार्मिक ग्रंथों की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने इस्लामिक शिक्षाओं से समानता और न्याय का संदेश खोजा और साबित किया कि धर्म दमनकारी नहीं बल्कि मुक्ति दिलाने वाला हो सकता है। दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड विरोधी संघर्ष इसका एक उदाहरण है जहां आर्कबिशप डेसमंड टूटू ने ईसाई सिद्धांतों का उपयोग करते हुए नस्लीय समानता की वकालत की। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी बाइबिल की शिक्षाओं पर आधारित आंदोलन चलाया जिससे नस्लीय भेदभाव समाप्त हुआ।

मुक्ति धर्मशास्त्र (Liberation Theology) की शुरुआत करीब 20 साल पहले लैटिन अमेरिका के धर्मगुरुओं और पादरियों ने की थी। 1960 के दशक के आखिर में यह एक बड़े राजनीतिक और धार्मिक आंदोलन के रूप में उभरा। यह एक ऐसा धार्मिक विचार है जो गरीब और दबे-कुचले लोगों की मदद करने पर जोर देता है। यह मुख्य रूप से लैटिन अमेरिका में कैथोलिक लोगों के बीच फैला है। इस विचार के अनुसार, धर्म को सिर्फ प्रार्थना तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि समाज में बदलाव लाने के लिए काम करना चाहिए।इस विचारधारा के समर्थक मानते हैं कि गरीबी और शोषण की वजह अमीर देशों और बड़ी कंपनियों की नीतियां हैं। वे चाहते हैं कि लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ें और एक ऐसा समाज बनाएं जहां सभी को न्याय मिले। इस विचारधारा ने कई देशों में बड़े बदलाव लाने में मदद की है। उदाहरण के लिए, निकारागुआ में इसने एक नई सरकार बनाने में मदद की। फिलीपीन्स में भी इसने लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। पसमांदा आंदोलन इसी विचारधारा पर आधारित है कि धर्म को सत्ता बनाए रखने वाले औजार से बदलकर समानता लाने वाले माध्यम में परिवर्तित करना चाहिए। यह आंदोलन बताता है कि जब तक समाज धार्मिक रहेगा तब तक उसे धार्मिक आधार पर ही समझाया जा सकता है उस में एकता और क्रांति का तत्व धर्म के रास्ते आसानी से पैदा किया जा सकता है।

पसमांदा आंदोलन भी यही राह दिखा रहा है कि जब तक समानता नहीं होगी तब तक कोई भी व्यवस्था टिकाऊ नहीं हो सकती। मुस्लिम समाज में अशराफ वर्ग द्वारा स्थापित वर्चस्व अब टूटने लगा है क्योंकि पसमांदा समुदाय कुरान और इस्लामिक शिक्षाओं से अपने अधिकार खोज रहा है।आज इस्लाम की पसमांदा व्याख्या हो रही है।  यह आंदोलन सिर्फ वर्तमान समस्याओं का हल नहीं बल्कि ऐतिहासिक बदलाव का प्रतीक भी बन रहा है। पसमांदा मुसलमान अब सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मंचों पर अपनी हिस्सेदारी मांग रहे हैं। असली ताकत विचारों और विश्वासों में होती है। धर्म केवल सत्ता बनाए रखने वाला उपकरण नहीं बल्कि समानता लाने वाला साधन भी हो सकता है—जरूरत बस इसे सही तरीके से समझने और लागू करने की होती है। पसमांदा आंदोलन इसी बदलाव का प्रतीक बनकर उभर रहा है जो हमें बताता है कि हर इंसान आत्मसम्मान और समानता के साथ जीने का हक रखता है—और इसे छीनने का किसी को अधिकार नहीं होना चाहिए।

लेखक पसमांदा डेमोक्रेसी यूट्यूब चैनल के संचालक हैं