दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025: मतदाताओं की बदलती प्रा...
Posted by Abdullah Mansoor | Feb 20, 2025 | Political | 0 |
धर्म: शोषण का औज़ार या मुक्ति का माध्यम?...
Posted by Abdullah Mansoor | Feb 16, 2025 | Culture and Heritage, Social Justice and Activism | 0 |
बंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या...
Posted by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
मुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों ...
Posted by Abdullah Mansoor | Jan 26, 2025 | Gender Equality and Women's Rights | 0 |
डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर...
Posted by Abdullah Mansoor | Jan 14, 2025 | Culture and Heritage, Movie Review | 0 |
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Popularपुस्तक समीक्षा: इस्लाम का जन्म और विकास
by Arif Aziz | May 1, 2024 | Book Review | 0 |
मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि इस्लाम से पहले की तारीख़ दरअसल अरब क़बीलों का इतिहास माना जाता था। इस में हर क़बीले की तारीख़ और इस के रस्म-ओ-रिवाज का बयान किया जाता था। जो व्यक्ति तारीख़ को महफ़ूज़ रखने और फिर इसे बयान करने का काम करते थे उन्हें रावी या अख़बारी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार इस्लाम और मुसलमान में फ़र्क़ करते हैं।
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आडूजीविथम: द गोट लाइफ
by Abdullah Mansoor | Oct 12, 2024 | Movie Review | 0 |
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Top Ratedफिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान
by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है
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वक़्फ़-बोर्ड का काला सच
by Abdullah Mansoor | Sep 19, 2024 | Culture and Heritage, Political | 0 |
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Prophet Muhammad: A Life of Leadership and Teaching
by Azeem Ahmed | Oct 6, 2024 | Biography | 0 |
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Latestभारतीय स्टैंड-अप कॉमेडी: हास्य और अश्लीलता के बीच संतुलन की खोज
by Abdullah Mansoor | Feb 20, 2025 | Education and Empowerment, Social Justice and Activism | 0 |
खासकर युवाओं पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। अध्ययनों से पता चला है कि यौन मजाक के संपर्क में आने वाले बच्चों में मनोवैज्ञानिक समस्याएं ज्यादा होती हैं। इससे गंदी भाषा और अश्लील व्यवहार को सामान्य मानने की आदत पड़ सकती है। बच्चों में हास्य की समझ कम हो सकती है और वे अच्छे-बुरे मजाक में फर्क नहीं कर पाएंगे। इंटरनेट पर ऐसे वीडियो आसानी से मिलने से बच्चे गलत सामग्री देख सकते हैं। इससे बच्चों की जिंदगी से खुशी कम हो सकती है। नौजवानों में रोस्टिंग का चलन बढ़ गया है। मजाक के नाम पर लोग एक-दूसरे को गाली देते हैं और चुभते हुए बोल बोलते हैं। पहले ये सिर्फ मशहूर कॉमेडियन करते थे, अब हर कोई करने लगा है। इस खेल में अक्सर औरतों और कमजोर लोगों को निशाना बनाया जाता है। दोस्तों के बीच भी ये बात आम हो गई है। इससे रिश्तों में प्यार कम हो रहा है। जवान लड़के-लड़कियां अपने दिल की बात कहने से डरने लगे हैं। उन्हें लगता है कि कहीं उनका मजाक न उड़ा दिया जाए।ये सब मिलकर समाज को बुरी तरह से बदल रहा है। लोगों के दिलों में दूसरों के लिए इज्जत कम हो रही है। औरतों को सिर्फ एक चीज की तरह देखा जा रहा है। हमें इस बारे में सोचना होगा। हालांकि, अच्छा मजाक कई तरह से फायदेमंद होता है। यह लोगों को सोचने पर मजबूर करता है और उनकी समझ बढ़ाता है। इससे अलग-अलग उम्र और संस्कृति के लोग एक-दूसरे को समझ पाते हैं। अच्छा मजाक लोगों को सिखाता भी है और उनका हौसला भी बढ़ाता है। ऐसा मजाक हमेशा याद रहता है, चाहे जमाना कितना भी बदल जाए। इससे लोगों का तनाव कम होता है और दिमागी सेहत अच्छी रहती है। लोगों की आपसी दोस्ती भी मजबूत होती है, खासकर बुजुर्गों के लिए यह बहुत जरूरी है।
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धर्म: शोषण का औज़ार या मुक्ति का माध्यम?
by Abdullah Mansoor | Feb 16, 2025 | Culture and Heritage, Social Justice and Activism | 0 |
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बंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या आवाज़ का बाज़ारीकरण?
by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
भारतीय स्टैंड-अप कॉमेडी: हास्य और अश्लीलता के बीच संतुलन की खोज
by Abdullah Mansoor | Feb 20, 2025 | Education and Empowerment, Social Justice and Activism | 0 |
खासकर युवाओं पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। अध्ययनों से पता चला है कि यौन मजाक के संपर्क में आने वाले बच्चों में मनोवैज्ञानिक समस्याएं ज्यादा होती हैं। इससे गंदी भाषा और अश्लील व्यवहार को सामान्य मानने की आदत पड़ सकती है। बच्चों में हास्य की समझ कम हो सकती है और वे अच्छे-बुरे मजाक में फर्क नहीं कर पाएंगे। इंटरनेट पर ऐसे वीडियो आसानी से मिलने से बच्चे गलत सामग्री देख सकते हैं। इससे बच्चों की जिंदगी से खुशी कम हो सकती है। नौजवानों में रोस्टिंग का चलन बढ़ गया है। मजाक के नाम पर लोग एक-दूसरे को गाली देते हैं और चुभते हुए बोल बोलते हैं। पहले ये सिर्फ मशहूर कॉमेडियन करते थे, अब हर कोई करने लगा है। इस खेल में अक्सर औरतों और कमजोर लोगों को निशाना बनाया जाता है।
दोस्तों के बीच भी ये बात आम हो गई है। इससे रिश्तों में प्यार कम हो रहा है। जवान लड़के-लड़कियां अपने दिल की बात कहने से डरने लगे हैं। उन्हें लगता है कि कहीं उनका मजाक न उड़ा दिया जाए।ये सब मिलकर समाज को बुरी तरह से बदल रहा है। लोगों के दिलों में दूसरों के लिए इज्जत कम हो रही है। औरतों को सिर्फ एक चीज की तरह देखा जा रहा है। हमें इस बारे में सोचना होगा। हालांकि, अच्छा मजाक कई तरह से फायदेमंद होता है। यह लोगों को सोचने पर मजबूर करता है और उनकी समझ बढ़ाता है। इससे अलग-अलग उम्र और संस्कृति के लोग एक-दूसरे को समझ पाते हैं। अच्छा मजाक लोगों को सिखाता भी है और उनका हौसला भी बढ़ाता है। ऐसा मजाक हमेशा याद रहता है, चाहे जमाना कितना भी बदल जाए। इससे लोगों का तनाव कम होता है और दिमागी सेहत अच्छी रहती है। लोगों की आपसी दोस्ती भी मजबूत होती है, खासकर बुजुर्गों के लिए यह बहुत जरूरी है।
Read Moreदिल्ली विधानसभा चुनाव 2025: मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताओं और उनके निर्णयों का विश्लेषण
by Abdullah Mansoor | Feb 20, 2025 | Political | 0 |
पसमांदा मुस्लिम आमतौर पर आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं और सरकारी योजनाओं पर अधिक निर्भर रहते हैं। उच्च वर्ग के मुस्लिम अक्सर बेहतर आर्थिक स्थिति में होते हैं और उनकी प्राथमिकताएं अलग हो सकती हैं। पसमांदा मुस्लिम परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और नौकरी की तलाश में हैं। पसमांदा मुस्लिम रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर अधिक ध्यान देते हैं।उच्च वर्ग के मुस्लिम अक्सर व्यापक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी विचार करते हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच की कमी एक बड़ी चुनौती है।कई पसमांदा मुस्लिम बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। उच्च शिक्षा में पसमांदा छात्रों का प्रतिशत कम है। मदरसों की आधुनिकीकरण की मांग भी है। बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, सड़क आदि की कमी कई मुस्लिम बहुल इलाकों में है। शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम बस्तियों का विकास एक मुद्दा है।सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की कमी।सांप्रदायिक सद्भाव और सुरक्षा की मांग।भेदभाव और पूर्वाग्रह से मुक्ति। इसलिए, हालांकि कुछ नेता “मुस्लिम वोट बैंक” की बात करते हैं, वास्तव में ऐसा कोई एक राष्ट्रीय मुस्लिम वोट बैंक नहीं है। पसमांदा मुस्लिम मतदाता अलग-अलग तरह से सोचते हैं और अपनी मर्जी से वोट करते हैं। पसमांदा मुस्लिम अक्सर क्षेत्रीय और जाति-आधारित दलों को समर्थन देते हैं। उच्च वर्ग के मुस्लिम राष्ट्रीय दलों या मुख्यधारा के दलों को वोट देने की प्रवृत्ति रखते हैं।
Read Moreधर्म: शोषण का औज़ार या मुक्ति का माध्यम?
by Abdullah Mansoor | Feb 16, 2025 | Culture and Heritage, Social Justice and Activism | 0 |
मसऊद आलम फलाही जैसे विचारकों ने धार्मिक ग्रंथों की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने इस्लामिक शिक्षाओं से समानता और न्याय का संदेश खोजा और साबित किया कि धर्म दमनकारी नहीं बल्कि मुक्ति दिलाने वाला हो सकता है। दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड विरोधी संघर्ष इसका एक उदाहरण है जहां आर्कबिशप डेसमंड टूटू ने ईसाई सिद्धांतों का उपयोग करते हुए नस्लीय समानता की वकालत की। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी बाइबिल की शिक्षाओं पर आधारित आंदोलन चलाया जिससे नस्लीय भेदभाव समाप्त हुआ।
Read Moreबंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या आवाज़ का बाज़ारीकरण?
by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
एंटी-कास्ट सिनेमा में बहुजन समाज का अनुभव, उनकी जीवन-शैली, संस्कृति केंद्र बिंदु पर होता है जिसे उनकी भाषा, भोजन, भाव-भंगिमा से चित्रित किया जाता है। अंबेडकरवादी विचारधारा को बोलकर नहीं बल्कि उनके कार्यों, निर्णयों, अन्याय के प्रति उनकी सोच में दिखाया जाता है। अंबेडकर, बुद्ध, कबीर, इलयाराजा का संगीत, सावित्री-ज्योतिबा फुले इत्यादि के प्रतीक चिन्ह आपको एंटी-कास्ट पात्र के आस-पास देखने को मिलते हैं जो इंगित करते हैं कि वो समाज की पहचान, इतिहास और संघर्षों के प्रति जागरूक है।
Read Moreमुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों है
by Abdullah Mansoor | Jan 26, 2025 | Gender Equality and Women's Rights | 0 |
आज भी इस्लामी नारीवाद इसी मिशन पर काम कर रहा है। यह क्लासिकल इस्लामी इल्म और आधुनिक नारीवादी सोच दोनों से बातचीत करता है ताकि महिलाओं के हुकूक को बेहतर तरीके से समझा जा सके। सेक्युलर नारीवादी अक्सर इस्लाम को पितृसत्तात्मक मानते हुए उसकी आलोचना करते हैं, लेकिन इस्लामी नारीवादी मज़हब के अंदर रहकर उन तशरीहों को चुनौती देते हैं जो महिलाओं पर ज़ुल्म का सबब बनती हैं। इस्लामी नारीवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि यह क़ुरआन के नैतिक उसूलों पर आधारित है। अस्मा बरलास और अमीना वदूद जैसे विद्वानों का मानना है कि क़ुरआन इंसाफ़, बराबरी और इंसानी इज़्ज़त-ओ-तक्रीम (सम्मान) को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि तौहीद (ईश्वर की एकता) का मतलब यह भी है कि किसी इंसान को दूसरे इंसान पर लिंग, नस्ल या जाति के आधार पर हुकूमत करने का हक नहीं है। पितृसत्ता, जो मर्दों को महिलाओं पर प्रभुत्व देती है, तौहीद के उसूल के खिलाफ जाती है।
Read Moreडोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर
by Abdullah Mansoor | Jan 14, 2025 | Culture and Heritage, Movie Review | 0 |
नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री “डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर” देखने के बाद मुझे एक अजीब सा अनुभव हुआ। यह फिल्म ब्रायन जॉनसन नाम के एक अमीर टेक उद्यमी की कहानी है, जो बुढ़ापे और मौत से लड़ने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रहा है।
जॉनसन साहब की जिंदगी देखकर मुझे लगा कि वो किसी साइंस फिक्शन फिल्म के किरदार हैं। हर दिन वो सैकड़ों गोलियां खाते हैं, अजीब-अजीब मशीनों में घंटों बिताते हैं, और अपने बेटे का प्लाज़्मा भी ले लेते हैं। लेकिन फिर मैंने सोचा कि शायद जॉनसन साहब कुछ ऐसा कर रहे हैं जो हम सब चाहते हैं – लंबी और स्वस्थ जिंदगी जीना। बस फर्क इतना है कि उनके पास करोड़ों रुपये हैं जो वो इस पर खर्च कर सकते हैं।
फिल्म में दिखाया गया कि जॉनसन साहब पहले मोटे और उदास थे। लेकिन अब वो फिट और खुश नजर आते हैं। शायद उनकी कोशिशों का कुछ फायदा हुआ है।
मगर मुझे लगता है कि वो कुछ जरूरी चीजें भूल गए हैं। जैसे परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताना, जिंदगी का मजा लेना। फिल्म के आखिर में जब उनका बेटा कॉलेज जाता है तो वो रो पड़ते हैं। तब मुझे लगा कि शायद उन्हें अहसास हुआ कि सिर्फ लंबी उम्र काफी नहीं है।
कुल मिलाकर ये फिल्म दिलचस्प थी। इसने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हम अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें, लेकिन साथ ही जिंदगी का लुत्फ भी उठाएं। मुझे लगता है कि हमें जॉनसन साहब जैसा पागलपन नहीं करना चाहिए, लेकिन उनसे कुछ सीख जरूर ले सकते हैं – जैसे अच्छी नींद लेना, सही खाना खाना और एक्सरसाइज करना।
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