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पुस्तक समीक्षा: इस्लाम का जन्म और विकास

मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि इस्लाम से पहले की तारीख़ दरअसल अरब क़बीलों का इतिहास माना जाता था। इस में हर क़बीले की तारीख़ और इस के रस्म-ओ-रिवाज का बयान किया जाता था। जो व्यक्ति तारीख़ को महफ़ूज़ रखने और फिर इसे बयान करने का काम करते थे उन्हें रावी या अख़बारी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार इस्लाम और मुसलमान में फ़र्क़ करते हैं।

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फिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान

जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है

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पुस्तक समीक्षा: “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष”

यह पुस्तक पसमांदा समाज के लिए न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने में सक्षम है। इसे पढ़कर पसमांदा समाज में जागरूकता बढ़ेगी, और यह उन्हें अपने संघर्षों को दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। पुस्तक की स्पष्टता, तर्कसंगतता, और सामाजिक संदेश इसे पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन बनाते हैं। इसलिए, यह उम्मीद की जा सकती है कि पसमांदा समाज इस पुस्तक को व्यापक रूप से अपनाएगा और इसे अपने संघर्ष के दस्तावेजीकरण के रूप में देखेगा, जिससे आने वाले समय में और अधिक पसमांदा लेखन एवं विचारधारा विकसित हो सकेगी।

पुस्तक समीक्षा: “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष”

यह पुस्तक पसमांदा समाज के लिए न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने में सक्षम है। इसे पढ़कर पसमांदा समाज में जागरूकता बढ़ेगी, और यह उन्हें अपने संघर्षों को दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। पुस्तक की स्पष्टता, तर्कसंगतता, और सामाजिक संदेश इसे पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन बनाते हैं। इसलिए, यह उम्मीद की जा सकती है कि पसमांदा समाज इस पुस्तक को व्यापक रूप से अपनाएगा और इसे अपने संघर्ष के दस्तावेजीकरण के रूप में देखेगा, जिससे आने वाले समय में और अधिक पसमांदा लेखन एवं विचारधारा विकसित हो सकेगी।

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Blasphemy Laws in Islam: Balancing Faith, Freedom, and Justice

Historically, the concept of blasphemy in Islam is linked to the consolidation of political power. Blasphemy, defined broadly as any action or speech that offends Islamic beliefs, was viewed as a serious offense because it was seen as a threat to the stability of the early Islamic empires. Instances of severe punishments were often tied to cases where political rebellion was involved, as in the Ridda Wars (Wars of Apostasy) following the Prophet Muhammad’s death. This association between blasphemy and rebellion is further supported by the writings of influential scholars like Ibn Taymiyya, who argued that insults against the Prophet Muhammad were destabilizing, warranting harsh penalties to preserve the unity of the Islamic state.

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ज़ाकिर नाइक के औरतों के बारे में विचारों की एक नारीवादी तनकीद

नाइक के बयान एक तंग, मर्दवादी नज़रिए को दर्शाते हैं जो मुस्लिम औरतों के मुख्तलिफ तजुर्बों और जिन्सी इंसाफ के कुरआनी पैगाम को नज़रअंदाज़ करता है। खुली बहस और बातचीत को हौसला देकर, इस्लामी नारीवादी इस्लाम के बराबरी के जज़्बे को दोबारा हासिल करने और यह यकीनी बनाने की कोशिश करते हैं कि औरतों के हुकूक कुरआन के इंसाफ के उसूलों के मुताबिक बरकरार रहें।

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A Feminist Critique of Zakir Naik’s Views on Women Through an Islamic Lens

Naik’s visit was further marred by additional controversies, including his refusal to present awards to orphaned girls and his demand for VIP treatment regarding luggage allowance. The incident has led to debates about religious interpretation, women’s rights, and the appropriateness of hosting controversial figures as state guests in Pakistan.This controversy highlights the ongoing tensions between conservative religious views and more progressive attitudes towards women’s rights and social issues in the country. It also underscores the challenges faced by Muslim women, particularly in India, where they often struggle with issues like conservative societal norms, limited access to education, and economic disadvantages.This article provides a feminist critique of Zakir Naik’s controversial views on women from an Islamic perspective.The article concludes by calling for constructive dialogue within the Muslim community to challenge regressive interpretations and promote a more inclusive understanding of Islam that upholds women’s rights in accordance with Quranic principles

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आडूजीविथम: द गोट लाइफ

‘आडूजीविथम’ एक मलयालम फिल्म है, जिसका निर्देशन ब्लेस्सी ने किया है। यह फिल्म 2024 में रिलीज़ हुई और बेन्यामिन के उपन्यास पर आधारित है। मुख्य भूमिका में पृथ्वीराज सुकुमारन हैं, जो नजीब नामक एक गरीब भारतीय मजदूर का किरदार निभा रहे हैं। अन्य कलाकारों में अमाला पॉल और विनीत श्रीनिवासन भी शामिल हैं। फिल्म का निर्माण अरुण कुमार के केवी एंटरप्राइजेज के तहत हुआ है, और संगीत ए.आर. रहमान ने दिया है।

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पैगंबर मोहम्मद का जीवन: मानवता के लिए एक मार्गदर्शक

इस्लाम का उदय 7वीं शताब्दी में हुआ, जब अरब प्रायद्वीप सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक रूप से अत्यंत दयनीय स्थिति में था। अरब समाज में कबीलाई संघर्ष, बहुदेववाद और नैतिक पतन व्याप्त थे। महिलाओं की स्थिति अत्यंत निम्न थी, और कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथाएँ आम थीं। इसी दौर में पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आगमन हुआ, जिन्होंने समाज में सुधार की नई लहर शुरू की। कुरान कहता है उन्होंने 40 वर्ष की आयु में इस्लाम का संदेश दिया और एकेश्वरवाद, न्याय और समानता के सिद्धांतों का प्रचार किया। उन्होंने मक्का की पृष्ठभूमि में, जहाँ बहुदेववाद और सामाजिक अन्याय ने जड़ें जमा रखी थीं, इस्लाम के रूप में एक नई धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी। उनका उद्देश्य न केवल धार्मिक सुधार था, बल्कि सामाजिक और नैतिक सुधार भी था, जो मानवता के समग्र उत्थान की दिशा में था।

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