इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद (स०अ०व०) की एक बहुत ही प्रसिद्ध हदीस (मुहम्मद {स०अ०व०} के कथनों और क्रियाकलापों को सामूहिक रूप से हदीस कहते हैं) है अल-अइम्मतू मेन-अल-क़ुरैश अर्थात नेतृत्वकर्ता (नेता, अमीर, ख़लीफ़ा) केवल क़ुरैश क़बीले (सैयद, शेख़) में से ही हैं। इसी हदीस के अनुपालन में तुर्क जाति के उस्मानी ख़लीफ़ाओं से पहले ख़िलाफ़त का पद संभालने वाले सभी ख़लीफ़ा क़ुरैश जाति से सम्बंधित रहे हैं। (आज भी लगभग सभी प्रकार के इस्लामी संस्थाओं और सूफ़ीवाद के सभी केंद्रों में क़ुरैश {सैयद, शेख़} की प्रभुसत्ता और नेतृत्व पाया जाता है।) क़ुरैश जाति (क़बीले) की, जो उपजाति मुहम्मद (स०अ०व०) की वंशावली से अधिक निकट होती थी उसका ख़िलाफ़त के लिए दावा उतना ही मज़बूत माना जाता था। इसी आधार पर बनू-उमैय्या (क़ुरैश की एक उपजाति) से ख़िलाफ़त प्राप्त करने में बनू-अब्बास (क़ुरैश की एक उपजाति जो मुहम्मद {स०अ०व०} के वंशावली से अधिक निकट है) सफल रहे। तुर्कों का इस्लामी राज्य पर प्रभुत्व हो जाने के बाद भी ख़िलाफ़त उनके पूर्ववर्ती शासक क़ुरैश की उपजाति बनू-अब्बास में ही बनी रही, भले ही यह सत्ता नाम मात्र की थी और असल सत्ता तुर्क जाति के उस्मानी सुल्तानों के पास थी। फिर कुछ समय बाद ख़िलाफ़त के तीनों प्रतीकों अंगूठी, छड़ी और चोगा (एक विशेष प्रकार का परिधान/लबादा जो जैकेट की तरह कपड़े के ऊपर पहन लिया जाता है) को प्राप्त कर तुर्कों ने इस्लामी सर्वोच्च सत्ता, ख़िलाफ़त को भी प्राप्त कर लिया।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की, जर्मनी के साथ था और ब्रिटेन के विरुद्ध। भारत में अशराफ़ मुसलमान तुर्की के पक्ष में ख़िलाफ़त अन्दोलन का सूत्रपात कर चुके थे जिस को गाँधी जी का खुला समर्थन प्राप्त था जो अशराफ़ मुस्लिम तुष्टिकरण का शायद पहला स्पष्ट एवं खुला हुआ उदाहरण रहा हो। उस समय कांग्रेस के बड़े अशराफ़ नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, गाँधी जी के आह्वान की आड़ में ख़िलाफ़त आंदोलन के पक्ष में खुल कर सक्रिय थे जब कि ख़िलाफ़त आंदोलन के समर्थन को लेकर कांग्रेस में दो मत थे। चूंकि तुर्की उस समय इस्लामी सत्ता और ख़िलाफ़त (सर्वोच्च इस्लामी पद) का केंद्र था, जिस के कारण पूरी दुनिया के मुसलमानों का नैतिक और भावनात्मक समर्थन तुर्की को प्राप्त था। तुर्की की हैसियत को कम करने के लिए अंग्रेज़ों ने उनकी ख़िलाफ़त की क़ानूनी वैधता पर उक्त हदीस के हवाले से प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हुए प्रचारित किया कि पूरी दुनिया के मुसलमानों का नेतृत्व करने का तुर्कों को अधिकार ही नहीं क्योंकि तुर्क लोग क़ुरैश जाति (क़बीले) का होना तो बहुत दूर की बात है अरबी तक नहीं हैं। भारत में चल रहे ख़िलाफ़त अंदोलन पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ने लगा, जिसका नेतृत्व अशराफ़ वर्ग कर रहा था और इस आंदोलन से वह अंग्रेज़ों और हिन्दुओं पर लीड (बढ़त) लेना चाहता था। मौलाना आज़ाद ने ख़िलाफ़त आंदोलन के पक्ष में इसका जवाब देते हुए सवा दो सौ से अधिक पन्ने की मसला-ए-ख़िलाफ़त (ख़िलाफ़त की समस्या) नामक एक किताब लिख डाली, जब कि उस समय किताब का लिखना और उसका पब्लिश होना बहुत ख़र्चीला और दुरूह था। उस किताब में मौलाना आज़ाद ने तुर्की ख़िलाफ़त के इस्लामी कानूनी वैधता को सत्यापित करके के लिए उक्त हदीस की जाँच पड़ताल की और विभिन्न प्रकार की हदीसों तथा इस्लामी उलेमाओं (विद्वानों) द्वारा लिखित किताबों के उद्धरणों से यह साबित करने की कोशिश की कि क़ुरैश जाति (क़बीले) के अतिरिक्त अन्य जाति के लोग भी यदि सक्षम हैं तो मुसलमानों का नेतृत्व कर सकते हैं। लेकिन यहाँ यह बात विचारणीय है कि मौलाना आज़ाद ने उक्त हदीस को ग़लत नहीं कहा बल्कि उसे मुहम्मद (स०अ०व०) का सही और सच्चा कथन मानते हुए बताया कि यह भविष्यवाणी थी कि आने वाले समय में केवल क़ुरैश जाति (सैयद, शैख़) के लोग ही ख़लीफ़ा होंगे। जब कि आज भी अशराफ़ उलेमा में इस बात को लेकर विभेद है, कुछ के निकट यह मुहम्मद (स०अ०व०) का आदेश है और कुछ इस को मुहम्मद (स०अ०व०) की भविष्यवाणी बताते हैं।
किसी व्यक्ति का मंतव्य उसके कार्यों से पता चलता है। मौलाना आज़ाद का यह स्टैंड अवसर विशेष के लिए था और यह केवल अशराफ़ के हितों की वकालत कर रहे ख़िलाफ़त आंदोलन को मज़बूत करने तक ही सीमित था। मौलाना आज़ाद ने ना तो इस से पहले और ना ही इसके बाद कभी इस इस्लामी मसावात और कर्म प्रधानता के मुद्दे को उठाया और ना ही उनके द्वारा इस को क्रियान्वित करने की कोशिश का कोई सबूत ही मिलता है। जबकि उक्त हदीस को आधार मानकर कर मुसलमानों की सभी संस्थाओं में नेतृत्व पर अशराफ़ का वर्चस्व बना रहा और मुस्लिम समाज में जातिवाद ज्यो का त्यों बाक़ी रहा। हालांकि जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस, प्रथम पसमांदा आंदोलन) के प्रारंभिक दिनों में मौलाना आसिम बिहारी के आमंत्रण पर मौलाना आज़ाद ने गाँधी जी के साथ पसमांदा मुसलमानों के समर्थन में भाषण दिया लेकिन यह सिर्फ़ भाषण तक ही सीमित रहा। कांग्रेस के बड़े नेता होने के नाते और गाँधी, नेहरू द्वारा स्पेस (महत्वपूर्ण स्थान) दिए जाने के कारण उन के पास पसमांदा समाज की समस्याओं तथा सामाजिक न्याय के मुद्दों को उठाने का पूरा मौक़ा था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
कांस्टीट्यूएंट ड्राफ्ट असेंबली के दौरान जब मूलभूत अधिकार, अल्पसंख्यक, जनजातीय एवं बहिष्कृत क्षेत्र पर आधारित एडवाइज़री कमेटी की समस्याओं का शीघ्र और तार्किक हल के लिए डॉक्टर अम्बेडकर ने सरदार पटेल के नेतृत्व में एक सब कमेटी के गठन का प्रस्ताव रखा जिसे मान लिया गया। इसी सन्दर्भ में डॉक्टर अम्बेडकर अपने भाषण में कहते हैं कि जब संविधान बन रहा था तब मैं कांग्रेस की कठपुतली मौलाना आज़ाद से मिला था जो कांग्रेस के हाथ की कठपुतली के सिवा कुछ भी नहीं हैं। अल्पसंख्यकों के राजनैतिक भविष्य की चर्चा के लिए तय मीटिंग से मात्र एक दिन पहले मैंने उन को मुसलमानों से सम्बंधित सभी मुद्दों और सम्भावनाओं के बारे में संक्षिप्त विवरण दिया। लेकिन मौलाना अगले दिन बैठक में उपस्थित ही नहीं हुए। परिणाम स्वरूप वहाँ मेरे सिवा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था जो प्रबलता से मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करता। चूंकि मैं मुस्लिमों के निर्वाचन-क्षेत्र के आरक्षण के समर्थन में अकेला था और कांग्रेस की ओर से पण्डित नेहरू ने मेरे प्रस्ताव का विरोध किया। फलस्वरूप, ऐ मेरे मुस्लिम भाइयों! आप लोग निर्वाचन-क्षेत्र के आरक्षण रूपी बलशाली एवं राजनैतिक अधिकार से वंचित कर दिए गए। (पेज न० 333-334, अम्बेडकर स्पीक्स, वॉल्यूम-III, सम्पादन नरेंद्र जाधव, कोणार्क पब्लिशर्स, न्यू डेल्ही, ISBN: 9322008154)
यह पूरा प्रकरण जहाँ डॉक्टर अम्बेडकर की बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सभी वंचितों (बहुजन-पसमांदा) के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाता है वहीं मौलाना आज़ाद के अशराफ़वादी चरित्र से पर्दा भी हटाता है।
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति (चांसलर) और मौलाना आज़ाद के पोते (भतीजे का बेटा) फ़िरोज़ बख़्त अहमद ने उर्दू में लिखित अपने लेख “मुसलमानों के मज़ीद पसमांदा होने का अंदेशा” {मुसलमानों के और अधिक पिछड़ने का डर} जो 26 जून 2005, दस्तावेज़, राष्ट्रीय सहारा उर्दू में छपा था, में लिखते हैं-
“सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बतौर चेयरमैन अल्पसंख्यक सुरक्षा कमेटी, जब ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशनल कमेटी के लिए रिजर्वेशन के मामले को ज़ेरे बहस रखा तो 7 मेम्बरों की कमेटी में से 5 ने इस के ख़िलाफ़ अपना वोट दिया। यह मेंबर थे- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, मौलाना हिफ्ज़ुर्रहमान, बेग़म एजाज़ रसूल, हुसैनभाई लालजी, तजम्मुल हुसैन।”
ज्ञात रहे कि उस समय तक 1935 के भारत सरकार एक्ट के अनुसार पसमांदा जातियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा था। इसी प्रकार पसमांदा आरक्षण के विरोध में वोट कर मौलाना आज़ाद ने अपने अशराफ़वादी चरित्र का परिचय दिया।
1946 के चुनाव के बाद जब बिहार मंत्री परिषद का गठन होने लगा तो मौलाना आज़ाद ने पसमांदा आंदोलन के निर्भीक नेता मौलाना अब्दुल क़य्यूम अंसारी को मंत्री बनने का तीक्ष्ण विरोध कर मंत्री पद से वंचित कर दिया। ऐसे समय में सरदार पटेल पसमांदा हितैषी बनकर उभरते हैं और मौलाना आज़ाद के भारी विरोध के बावजूद एक गैर कांग्रेसी (ज्ञात रहे कि उस समय की प्रथम पसमांदा आंदोलन जामियतुल मोमिनीन {मोमिन कांफ्रेंस} ने मुस्लिम लीग के विरुद्ध जाकर सम्मानजनक सीटें हासिल की थीं) के समर्थन में हस्तक्षेप करते हुए उनको मंत्री पद से सुशोभित करवाया।
(1.पेज न० 34-35, प्रोफेसर ग़ुलाम मुज्तबा अंसारी, फ़ख़्र-ए-मुल्क अब्दुल क़य्यूम अंसारी अहवाल व अफ़कार, प्रकाशन अब्दुल क़य्यूम अंसारी एजुकेशनल फाउंडेशन 2002,2.पेज न० 108, पपिया घोष, मुहाजिर एंड नेशन, रॉउटलेज, 2010, ISBN: 978-0-415-54458-0)
1950 के प्रेसिडेंसियल ऑर्डर जिसकी वजह से पसमांदा दलित, अनुसूचित जाति (scheduled cast) के आरक्षण से बाहर कर दिए गए हैं, जो मौलाना आज़ाद के मंत्रित्व काल में ही आया था। इस अध्यादेश के विरुद्ध भी मौलाना आज़ाद का कोई विरोध प्रदर्शन, या विरोध स्वरूप अपने मंत्रीपद छोड़ना आदि तो बहुत दूर की बात है, उन्होंने एक शब्द भी बोलना उचित नहीं समझा। जबकि मौलाना आज़ाद इस अध्यादेश के सालों बाद तक (जीवन पर्यंत) नेहरू सरकार में बतौर मंत्री रहें। इस प्रकार उन्होंने अपने अशराफ़वादी होने पर फिर से मुहर लगा दिया।
मौलाना आज़ाद का देश के बंटवारे के विरोध की नीति भी सिर्फ़ अशराफ़ मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए ही थी। अशराफ़ मुसलमान भारत छोड़ कर जा नहीं रहा था, बल्कि वह भारत को बांट रहा था। भारत में अशराफ़ हित सुरक्षित रहे इसके लिए अशराफ़ का एक स्टैंड बंटवारे के विरोध का भी था कि यदि बंटवारा हुआ तो ठीक और नहीं हुआ तो फिर अशराफ़ का एक गुट नायक बन कर उभरेगा। मौलाना आज़ाद की यह नीति थी कि जो अशराफ़ भारत में रह जाएं उनका भविष्य सुरक्षित रहे। इसीलिए जामा मस्जिद के मिंबर पर चढ़ कर उन्होंने भाषण दिया था जिस में वह अशराफ़ वर्ग से आह्वान करते हैं कि,
तुम यह जामा मस्जिद, यह ताज महल, यह फ़लाना-ढिमकाना छोड़ कर कहाँ जा रहे हो?
इस भाषण की चर्चा आज भी पसमांदा वर्ग को सुना-सुना कर उन की मानसिक ग़ुलामी को और मज़बूत किया जाता है। जब कि उपर्युक्त वर्णित भवन अशराफ़ (बादशाहों) द्वारा निर्मित हैं। दुर्भाग्य से देश का बंटवारा होता है और जहाँ बहुत से मुस्लिम लीगी रातों रात गाँधी टोपी पहन कर देश भक्त हो गए वहीं मौलाना आज़ाद के नेतृत्व में अशराफ़ों का दूसरा गिरोह नायक बन कर उभरता है और इस प्रकार अशराफ़ वर्ग भारत के तीन टुकड़ों में दो स्थानों पर प्रत्यक्ष शासक बनता है तो वहीं दूसरी ओर मौलाना आज़ाद के नेतृत्व में भारत में अप्रत्यक्ष शासक बन कर सामने आता है।
आज भी हालात लगभग वही हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी पार्टी की सरकार में मौलाना आज़ाद की पोती नजमा हेपतुल्लाह केंद्रीय मंत्री फिर राज्यपाल बन कर और अपने रिश्तेदार को देश के सब से बड़े प्रदेश, उत्तर प्रदेश का मंत्री बनवा कर अशराफ़ वर्ग की सत्ता एवं वर्चस्व को बनाये रखा है। अशराफ़ वर्ग के अन्य दूसरे लोग भी सत्ता में बराबर के भागीदार हैं। जब कि सच्चाई यह है कि उस समय के अन्य पसमांदा नेता और पसमांदा संगठन मौलाना आसिम बिहारी और उन के संगठन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) के नेतृत्व में अंतिम समय तक बंटवारे के ख़िलाफ़ लड़ते रहे। मौलाना आसिम बिहारी का नाम दबाने के लिए भी मौलाना आज़ाद के नाम की ख़ूब ब्रांडिंग की गयी।
उस समय के किसी भी मुख्य धारा के प्रमुख इस्लामी संगठन द्वारा पसमांदा-दलितों के आरक्षण की पाबंदी पर किसी भी प्रकार का विरोध दर्ज ना करना उन सभी के अशराफ़ चरित्र का द्योतक है। जो दिन रात मुसलमान-मुसलमान का नारा लगाते रहते हैं और स्वार्थ सिर्फ अशराफ़ जाति का साधते हैं।
डॉक्टर फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी (लेखक अनुवादक, सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं)
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