Category: Reviews
अशराफ़िया अदब को चुनौती देती ‘तश्तरी’:...
Posted by Arif Aziz | Oct 29, 2025 | Book Review, Casteism, Culture and Heritage, Education and Empowerment | 0 |
The Makkah Charter: A Return to Islam’s Orig...
Posted by Arif Aziz | Oct 8, 2025 | Culture and Heritage, Education and Empowerment, Reviews | 0 |
समीक्षा: The Terminal List: Dark Wolf...
Posted by Arif Aziz | Aug 31, 2025 | Movie Review, Reviews | 0 |
देश की आज़ादी: भारतीय समाज और सिनेमा में विभाजन के...
Posted by Arif Aziz | Aug 26, 2025 | Movie Review, Reviews, Social Justice and Activism | 0 |
‘घोउल’ के बहाने—हमारे समय की एक डरावनी...
Posted by Arif Aziz | Jul 12, 2025 | Movie Review, Reviews | 0 |
Why India’s Syncretic Past Matters Now More Than Ever
by Arif Aziz | Nov 14, 2025 | Movie Review | 0 |
~Dr. Uzma Khatoon When history is used as a weapon to divide, it’s crucial to remember...
Read Moreगाली और आत्मसम्मान: शब्दों में छिपा अस्तित्व का संघर्ष
by Arif Aziz | Nov 3, 2025 | Casteism, Gender Equality and Women's Rights, Movie Review | 0 |
~अब्दुल्लाह मंसूर गालियाँ हर समाज और हर ज़ुबान में मिलती हैं। उन्हें केवल गुस्से या अपमान का...
Read Moreअशराफ़िया अदब को चुनौती देती ‘तश्तरी’: पसमांदा यथार्थ की कहानियाँ
by Arif Aziz | Oct 29, 2025 | Book Review, Casteism, Culture and Heritage, Education and Empowerment | 0 |
सुहैल वहीद द्वारा संपादित ‘तश्तरी’ उर्दू साहित्य में पसमांदा समाज की आवाज़ को सामने लाने वाला ऐतिहासिक संग्रह है। यह पुस्तक मुस्लिम समाज में सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव और उर्दू साहित्य की चुप्पी को चुनौती देती है। अब्दुल्लाह मंसूर बताते हैं कि प्रगतिशील और अशराफ़ लेखक अपने वर्गीय हितों के कारण इस अन्याय पर मौन रहे। ‘तश्तरी’ उन कहानियों का संग्रह है जो इस मौन को तोड़ती हैं, मुस्लिम समाज के भीतर छुआछूत और सामाजिक पाखंड को उजागर करती हैं। यह किताब पसमांदा साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत और आत्मसम्मान की लड़ाई का प्रतीक बनती है।
Read MoreThe Makkah Charter: A Return to Islam’s Original Vision
by Arif Aziz | Oct 8, 2025 | Culture and Heritage, Education and Empowerment, Reviews | 0 |
The ‘Charter of Makkah (2019’ revives Islam’s original message of peace, equality, and coexistence, inspired by the Prophet Muhammad’s **Constitution of Medina (622 CE)**—the first charter uniting Muslims, Jews, and tribes under shared citizenship and justice. Rooted in these principles, over **1,200 scholars from 139 countries** reaffirmed Islam’s moral foundations against extremism and division. The Charter advocates **religious freedom, equal citizenship, women and youth empowerment, environmental care, and rejection of hate and violence**. It positions Islam as a faith of mercy and unity, promoting **global peace, coexistence, and human dignity** through authentic, compassionate Islamic values.
Read Moreसमीक्षा: The Terminal List: Dark Wolf
by Arif Aziz | Aug 31, 2025 | Movie Review, Reviews | 0 |
Amazon Prime Video पर 27 अगस्त 2025 को रिलीज़ हुई The Terminal List: Dark Wolf लोकप्रिय सीरीज़ The Terminal List का प्रीक्वल है। यह नेवी सील बेन एडवर्ड्स की कहानी है, जो सीआईए से जुड़कर मिशनों और युद्ध की सच्चाई से जूझता है। आलोचकों के अनुसार, शो हॉलीवुड के पुराने फॉर्मूले पर बना है, जिसमें अमेरिकी सैनिकों को नायक और अरब देशों को खलनायक दिखाया जाता है। इसमें इराक युद्ध, नागरिक मौतों और अमेरिकी हितों पर सवाल नहीं उठते, बल्कि दर्शकों को भावनात्मक हीरोइज़्म में उलझा दिया जाता है। विशेषज्ञ इसे मनोरंजन से अधिक सांस्कृतिक प्रोपेगेंडा और पश्चिमी हस्तक्षेप को नैतिक ठहराने का साधन मानते हैं।
Read Moreबुनकर : करघे से संघर्ष तक, ताने-बाने में भविष्य की तलाश
by Arif Aziz | Aug 29, 2025 | Movie Review | 0 |
बनारसी साड़ी भारत की शान है, लेकिन इसे बुनने वाले अंसारी बुनकर गरीबी और उपेक्षा में जीते हैं। पीढ़ियों से करघों से जुड़ी यह बिरादरी आर्थिक शोषण, सामाजिक भेदभाव और राजनीतिक उपेक्षा झेल रही है। मेहनत के बावजूद उन्हें उचित दाम नहीं मिलता और अशिक्षा व बेरोज़गारी हालात और कठिन बनाते हैं। व्यापारी मुनाफ़ा कमाते हैं, जबकि बुनकर कर्ज़ और भूख से जूझते हैं। राजनीतिक दलों ने भी इनके मुद्दों को कभी गंभीरता से नहीं उठाया। फिर भी उनकी कला विश्वप्रसिद्ध है। पसमांदा आंदोलन उनके सम्मान, शिक्षा और बराबरी की लड़ाई को मजबूती दे रहा है।
Read Moreदेश की आज़ादी: भारतीय समाज और सिनेमा में विभाजन के दृश्य
by Arif Aziz | Aug 26, 2025 | Movie Review, Reviews, Social Justice and Activism | 0 |
15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी के साथ ही भारत ने विभाजन का ज़हर भी झेला। साहित्य और सिनेमा ने इस त्रासदी को दर्ज किया, लेकिन हिंदी फिल्मों में इसका चित्रण अधूरा रहा। शुरुआती दौर की फिल्में सतही रहीं, जबकि गर्म हवा, तमस, पिंजर और मंटो जैसी कृतियों ने कुछ संवेदनशील दृष्टिकोण दिए। फिर भी पसमांदा मुसलमान—जो सबसे अधिक हिंसा, विस्थापन और भुखमरी के शिकार थे—लगभग ग़ायब रहे। सिनेमा ने उन्हें न पीड़ित, न नायक के रूप में स्थान दिया। यदि सिनेमा को सचमुच ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनना है, तो उसे पसमांदा समाज की आवाज़ भी सामने लानी होगी।
Read More‘घोउल’ के बहाने—हमारे समय की एक डरावनी चेतावनी
by Arif Aziz | Jul 12, 2025 | Movie Review, Reviews | 0 |
~ अब्दुल्लाह मंसूर नेटफ्लिक्स की सीरीज़ ‘घोउल’ डरावनी कहानियों की दुनिया में एक अलग और...
Read Moreसुपर हीरो की दुनिया में नस्लवाद: ‘वॉचमेन’ की समीक्षा
by Abdullah Mansoor | Jul 6, 2025 | Movie Review, Reviews | 0 |
लेखक :-अब्दुल्लाह मंसूर सुपरहीरो की कहानियाँ अक्सर काल्पनिक दुनिया में अच्छाई और बुराई के बीच होने...
Read Moreबिहार से भारत तक: अब्दुल क़य्यूम अंसारी को भारत रत्न देने का समय
by Arif Aziz | Jul 1, 2025 | Biography, Movie Review, Pasmanda Caste, Social Justice and Activism | 0 |
शहनवाज़ अहमद अंसारी उन्होंने बंटवारे का विरोध सत्ता के लिए नहीं, सिद्धांतों के लिए किया।उन्होंने...
Read Moreहॉलीवुड, पश्चिमी मीडिया और ईरान: छवि निर्माण की राजनीति
by Abdullah Mansoor | Jun 21, 2025 | Movie Review, Poetry and literature, Political, Reviews | 0 |
**100 शब्दों में सारांश (हिंदी में):**
आज की दुनिया में युद्ध केवल हथियारों से नहीं, बल्कि छवियों, फिल्मों और मीडिया के ज़रिए भी लड़े जाते हैं। हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया ने एक वैचारिक “छवि युद्ध” छेड़ा है, जिसमें ईरान जैसे देशों को खलनायक, पिछड़ा और असहिष्णु दिखाया जाता है। *Argo*, *Homeland* जैसी फ़िल्में इस छवि को मज़बूत करती हैं। यह सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि अमेरिकी सॉफ्ट पावर और वैश्विक जनमत निर्माण की रणनीति है। एडवर्ड सईद के “ओरिएंटलिज़्म” सिद्धांत के अनुसार, पश्चिम अक्सर पूर्व को नीचा दिखाता है। इसलिए जरूरी है कि दर्शक फिल्मों और मीडिया को आलोचनात्मक नजरिए से देखें और सच व प्रचार में फर्क करना सीखें।
Read Moreटॉर्चेस ऑफ़ फ्रीडम: जब नारीवादी आंदोलन को पूंजीवाद ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया
by Abdullah Mansoor | Jun 17, 2025 | Movie Review, Reviews | 0 |
नारीवादी आंदोलन ने महिलाओं की आज़ादी, बराबरी और आत्मनिर्भरता का सपना देखा था, लेकिन पूंजीवाद ने इस आंदोलन की भावनाओं को उत्पाद बेचने के औज़ार में बदल दिया। “टॉर्चेस ऑफ़ फ्रीडम” जैसे उदाहरण दिखाते हैं कि बाज़ार कैसे आज़ादी के प्रतीकों को मुनाफे के लिए इस्तेमाल करता है। महिलाओं को स्वतंत्रता का भ्रम दिया गया, जबकि वे एक नई उपभोक्ता संस्कृति में फंस गईं। यह समस्या केवल नारीवाद तक सीमित नहीं, बल्कि हर सामाजिक आंदोलन अब बाज़ार के हिसाब से ढाला जा रहा है। असली आज़ादी सोचने, असहमति जताने और विकल्प चुनने की शक्ति में है।
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