लेखक : अरमान अंसारी


हाजी नेसार अंसारी उतर प्रदेश में, मऊ जिले के निवासी हैं। उनके परिवार में पुस्तैनी कपड़ा बुनने का धंधा चला आ रहा है। एक समय उनका धन्धा ठीक चलता था। नेसार अंसारी देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यापार के लिए हवाई सफर करते थे। दिनी (मज़हबी) जलसों में अपने इलाके से बसों को भरकर अपने खर्चे से भेजते थे। इलाके में इस काम के लिए मुस्लिम समाज के बीच उनकी खूब चर्चा होती थी। सुबह-शाम उनके दरवाजे पर बैठकी जमी रहती थी। लोग उनका गुणगान करते थे। बात-चीत के क्रम में राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती थी। इलाके के विधायक, संसद, मंत्रियों के किस्से कहानियां भी चल निकलती थीं। लोग अपने-अपने अनुभव सुनाते थे। उनमें टिकट पाने से लेकर मंत्री बनने के किस्से व राजनीति के तमाम दाव पेच भी होते थे।चर्चा के इसी क्रम में वहाँ के स्थानीय विधायक जो अशराफ मुस्लिम थे उनके टिकट पाने की अक्लमंदी की खूब तारीफ होती थी। एक बार अनमने ढंग से हाजी साहब ने कहा दिया- हमलोग टिकट के लिए नहीं जाते हैं इसलिए उनको टिकट मिल जाती है और वे जीत जाते हैं। उनमें से कइयों ने कहा, हाजी साहब आप नहीं जानते हैं, उसकी बड़ी पहुँच है,और बड़ा जुगाड़ भी। इस बार भी कांग्रेस पार्टी का टिकट तो, उसे ही मिलेगा। चाहे आप जो कर लीजिए! यदि आपकी पहुँच है,तो आप टिकट लेकर आईए, हमलोग आपको वोट देंगे। यह बात हाजी साहब को लग गई। वे घर से निकल गए। लखनऊ से लेकर दिल्ली तक की कई यात्राएं हुईं।अन्तोगत्वा उनका मेहतन सफल हुआ। कांग्रेस पार्टी से उन्हें टिकट मिल गया। नामांकन की प्रक्रिया के पश्चात वे मैदान में थे। जीवन का एक नया अनुभव, एक नई डगर। मन में टिकट मिलने की खुशी भी थी और प्रचार का जोश भी। टिकट मिलते ही हाजी साहब प्रचार के मैदान में कूद गए। एक राष्ट्रीय पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने का जोश उससे आगे-आगे बढ़कर प्रचार करने का जुनून भी। विधानसभा के कई इलाके में लोगों का खूब समर्थन मिला। तारीफें हुईं।

वहीं कुछ मुस्लिम इलाके ऐसे थे जहाँ हाजी साहब के पहुँचने और लोंगो से हुई गुफ्तगू ने उनके होश-ठिकाने लगा दिए। उनसे कहा गया –

“ तुम्हें पता नहीं, एक मुसलमान चुनाव लड़ रहा है? तुम किससे पूछकर चुनाव लड़ रहे हो, जाओ बुनाई-कटाई करो। चुनाव लड़ना, राजनीति करना तुम लोगों का काम नहीं है।अपना काम-धाम करो!”

यह मात्र हाजी नेसार अंसारी की कहानी नहीं है। मुस्लिम समाज के अंदर का पच्चासी फिसदी हिस्सा रखने वाला ‘पसमांदा’ तबकें की मुसलमानों की कहानी है। जो मुस्लिम समाज में संख्या बल हाने के बावजूद इस्तेमाल किया जाता है। अशराफ मुसलमान (सवर्ण मुसलमान) इसी संख्या बल को दिखाकर अल्पसंख्यक के नाम पर राजनीतिक,समाजिक व आर्थिक सत्ता के शीर्ष पर अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर लेते हैं। जबकि मुस्लिम समाज का व्यापक आबादी रखने वाला ‘पसमांदा’ तबका वहीं ढाक के तीन पात बनकर रह जाता है।

यह सब सुनते ही हाजी साहब के होश उड़ गए। उन्हें लगा कि उन्होंने अब तक जो काम, कौम के लिए किया है, उसका कोई मतलब नहीं है। उन्हें अतीत के वे दिन फिल्मों की तरह एक-एक कर सामने आने लगे। उन्होंने मुसलमान होने के नाम पर क्या नहीं किया था! तमाम धार्मिक कार्यों में आगे बढ़कर भागीदारी की। आलिमि जलसों,तब्लीगी जमातों सरिखे अनेक धार्मिक कार्यों में बढ़कर-चढ़कर हिस्सेदारी की। बसों और ट्रेनों को भर-भर कर लखनऊ से लेकर दिल्ली तक अपने खर्चे से भेजा। लेकिन यह क्या! उन लोंगो की नज़र में तो वे मुसलमान ही नहीं हैं! हाजी साहब को पहली बार ‘पसमांदा मुसलमान’ होने का अहसास हुआ। अब तक वे अपने को एक सच्चा व पक्का मुसलमान मानते आए थे। उसके लिए जो करना था उन्होंने कई बार अपनी औकात से बढ़कर किया भी था। लेकिन चुनाव और सत्ता में हिस्सेदारी के सपने ने उन्हें नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य कर दिया। हाजी साहब को लगा अब तक उन्होंने जो किया है उसका कोई मतलब नहीं है। मुस्लिम समाज में उनकी क्या हैसियत है? वे मात्र एक प्यादे हैं, जिन्हें मुस्लिम समाज का अशरफिया सामाजिक-राजनितिक सत्ता संरचना नचाता है और वे खुशी-खुशी नाचते हैं, वह भी बिना कुछ सोचे समझे ।

वर्तमान में मुस्लिम समाज की नेतृत्व करने की दावा करने वाली संस्थाओं, व्यक्तियों को मुस्लिम समाज की व्यापक सामाजिक, आर्थिक समस्याओं की न समझ है न ही उन समस्याओं को सुलझाने का सूत्र पता है। यदि हम इसकी कारणों की पड़ताल करें तो पता चलता है कि मुस्लिम पसमांदा के व्यापक जीवन की स्थियों से मुस्लिम नेतृत्व को कुछ भी लेना-देना नहीं है। नेतृत्व जिन तबकों के पास है वे एक भिन्न जीवन स्थितियों वाले लोग हैं। वे मुस्लिम समाज के अशराफ (सवर्ण) तबके से आते हैं।

उनका आर्थिक-सामाजिक जीवन और व्यापक पसमांदा के आर्थिक-सामाजिक जीवन के बीच कोई ताल-मेल नहीं है। वे मात्र पसमांदा तबकें का इस्तेमाल करते हैं। वे पच्चासी फीसदी आबादी वाले पसमांदा के हाथों में नेतृत्व की बागडोर, जाने देना नहीं चाहते हैं। उनको डर है की एक बार पसमांदा तबकों के हाथों में यदि नेतृत्व की डोर चली गई तो मुस्लिम अल्पसंख्यक के नाम पर चली आ रही उनकी राजनीति हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। यदि आज के तारीख में मुख्यधारा की राजनीति दलों के नेतृत्व के अंदर झाक कर देखें तो तस्वीर बहुत ही भद्दी दिखाई पड़ती है। लगभग सभी दलों में मुस्लिम अल्पसंख्यक के नाम पर नीचे से उपर तक जो चेहरे दिखाई पड़ते हैं,वे सवर्ण (अशराफ) मुसलमानों के हैं।

दूसरी तरफ मुस्लिम समाज द्वारा बनाई संस्थाओ के नेतृत्व में भी अशराफ ही भरे पड़े हैं, जब कि पच्चासी फीसद मुस्लिम आबादी पसमांदा मुसलमानों की है। इस प्रकार मुस्लिम समाज और सियासत, नेतृत्व के स्तर पर, अस्वाभाविक रूप से अपने सर के बल खड़ी है। मंडल कमिशन के बाद भारत के सामाजिक जीवन व्यवस्था के अंदर, समाज और रजनीति में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। पहले के समाज में, हाशिये पर खड़ी जमातें, राजनीति और सत्ता संरचना के केंद्र में आई हैं। वे सत्ता संरचना के अंदर न केवल नेतृत्व पर कबिज हुईं हैं, बल्कि अपने हिसाब से चला भी रही हैं। वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम समाज के अंदर ऐसा कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। पच्चासी फिसदी ‘पसमांदा’ , समाज और राजनीति में नेतृत्व के नाम पर शून्य है। ऐसा क्यों हुआ? इस बात की समाजशात्रीय पड़ताल होनी चाहिए। आज़ादी के बाद एक ही तरह के जीवन स्थितियों से सफर शुरू करने वाले दोनों समुदायों के दलित-पिछड़ों में,समाज और राजनीति में नेतृत्व और भागीदारी के स्तर पर इतना बड़ा अन्तर! यह आपको अविश्वसनीय और विचित्र लग सकता है लेकिन मुस्लिम समाज की यही हकीकत है।

लेखक अरमान अंसारी: बिहार के एक गांव बरकुरवा (पूर्वी चंपारण) में 12 अक्टूबर 1983 को जन्म। शुरुआती शिक्षा गांव में। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से हिंदी साहित्य में एम.ए.,एम.फिल.और पी.एच.डी.। संवेद, सामयिक वार्ता, जनसत्ता,युवा संवाद, अकार, समता मार्ग आदि में निबंध प्रकाशित। कुछ समय जामिया मिल्लिया इस्लामिया,नई दिल्ली में अध्यापन के बाद फिलहाल सत्यवती कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) नई दिल्ली में अध्यापन। सम्पर्क- sjparman@gmail.com