आधा गाँव: एक पसमांदा समीक्षा
लेखक:- अब्दुल्लाह मंसूर
राही मासूम रज़ा का उपन्यास “आधा गाँव” ग़ाज़ीपुर के गाँव गंगौली के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश पर आधारित है। यह उपन्यास मुख्यतः शिया सैयद परिवार और अशराफ समाज के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें मुहर्रम और ताजिये की महत्वपूर्ण भूमिका है। उपन्यास “आधा गाँव” उनके निजी अनुभवों पर आधारित है। जिसकी पृष्ठभूमि में द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन, स्वतंत्रता और भूमि सुधार तक की घटनाओं को सामने लाता है। 1931 से 1952 के बीच की ऐतिहासिक घटनाएँ, जैसे लाहौर प्रस्ताव, भारत छोड़ो आंदोलन, और 1947 की घटनाएँ, गाँव वालों को बदल देती हैं।
रज़ा ने ईमानदारी से अपनी जाति का अनुभव लिखा है, न कि पसमांदा जाति का। इसलिए, इस उपन्यास में पसमांदा पात्र केवल सैयद पात्रों के सहायक के रूप में दिखाए गए हैं और उनकी खुद की कहानी नहीं बताई गई है।साहित्य में उच्च जाति के लेखक अक्सर दलित या पसमांदा पात्रों को शामिल करते हैं, लेकिन ये पात्र वास्तव में उनके समुदाय का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते। ये पात्र केवल प्रतीकात्मक (signifier) होते हैं, जबकि उनका वास्तविक चरित्र उच्च जाति का होता है।अशराफ़ लेखक पसमांदा पात्रों को केवल प्रतीकात्मक रूप में पेश करते हैं। मुद्राराक्षस के अनुसार, प्रेमचंद की कहानियों में दलित पात्र केवल नाम के लिए दलित होते हैं, जबकि उनका चरित्र उच्च जाति का होता है। उदाहरण के लिए, “कफ़न” कहानी में घीसू और माधव का चरित्र दलित होते हुए भी उच्च जाति की सोच को दर्शाता है। प्रेमचंद ‘ईदगाह’ कहानी लिखते हैं पर उस बूढ़ी औरत की जाति नहीं बताते और जो पसमांदा जाति पर कुछ लिखते हैं जैसे गुलज़ार की कविता “यार जुलाहे” तो वह अपनी कविता में जुलाहों की समस्याओं को अनदेखा कर उनके पेशे को रोमांटिक बना देते हैं।
यह समझने के लिए कि कैसे प्रतीक और भावार्थ अलग हो सकते हैं, आप “पंचतंत्र” की कहानियों को देख सकते हैं। इन कहानियों में जानवर प्रतीक (signifier) हैं, लेकिन उनकी कहानियाँ वास्तव में इंसानों के बारे में होती हैं। इसी तरह, उच्च जाति के लेखक अपने पात्रों के माध्यम से अपनी बात कहते हैं। कई बार लेखक यथार्थ लेखन करते समय बहुत सी बातें लिख जाते हैं, जिन्हें वे खुद भी शायद न मानते हों। ऐसे लेखन में लेखक की सोच तो लेखनी में आती ही है, लेकिन जो वह नहीं सोचता, वह भी अनजाने में शामिल हो जाता है। जैसे रज़ा गंगा-जमुना तहज़ीब को मानते हैं और इस उपन्यास में भी वह इसी सोच को बढ़ावा देते हैं अर्थात वह जाति की जगह धर्म को महत्व दे रहे हैं फिर भी इस उपन्यास में जाति न चाहते हुए भी महत्वपूर्ण बनी रहती है।
‘आधा गाँव’ के प्रमुख पात्र मुस्लिम ज़मींदार हैं जो ऊँची जाति से आते हैं बाकि पसमांदा जातियां उनकी प्रजा की तरह है जो इस कहानी में अशराफ पात्रों की तुलना में हाशिए पर खड़े हैं। ‘मियां लोग’ चैप्टर में यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी कि पसमांदा जातियों को ‘मियां’ शब्द से नहीं पुकारा जाता था। कुछ ख़ास शब्द कुछ ख़ास जातियों कि लिए होते थे। आज भी ठेठ गाँव में मिया का घर पूछेंगे तो गाँव के आम आदमी किसी सैयद, मिर्ज़ा, पठान का ही घर दिखा देंगे। किसी जुलाहे कुंजड़ा धुनिया के घर को मियां का घर नहीं बोला जाता है। जैसे ऊंची जाति कि महिलाओं के लिए ‘बीबी, शब्द का प्रयोग होता था न कि किसी जुलाहन, भटियारिन, धुनियारन आदि के लिए। पसमांदा जाति की औरतों को तो इस तरह सम्बोधित किया जाता था ‘बौ कुंजड़न, लतीफ़ मनिहारन, मदारन बौ, जुलाहीन बौ आदि। राही मासूम रज़ा भी लिखते हैं ‘ सैयदानियाँ तो डोली के बिना घर से निकल ही नहीं सकती थी। ये तो गाँव की राकिनें, जुलहिने, अहिरनें और चमाईनें होती थीं (जो ताज़िया देखने बेपर्दा निकलती थी)[1]
हिंदी उपन्यास जगत में शायद पहली बार मुस्लिम जन-जीवन की भीतर-बाहरी सच्चाइयाँ / मुस्लिम जाति व्यवस्था के बारे में/मुस्लिम समाज में मौजूद छुआछूत के बारे में इतना सजीव/यथार्थ चित्रण हुआ है जितना राही मासूम रज़ा ने अपने ‘आधा गाँव में किया है हालाँकि फिर मैं कह रहा हूँ कि उनकी चिंता उनकी जातिगत चिंता थी इसके बावजूद भी उन्होंने बहुत ईमानदारी से अशराफ घरों में जातिगत शिक्षा/ जातिवाद को दर्शाया है। जैसे वह लिखते हैं कि ‘ हकीम साहब हौज़ के किनारे बैठे कर उस हाथ को साफ़ कर ने लगे जिस हाथ से उन्होंने एक काफ़िर- और वह भी नीची ज़ात के एक काफ़िर का हाथ छुआ था'[2] । अब छुआछूत का दूसरा मामला देखें ” झंगटिया- बो ने अपना हाथ फैला दिया और सकीना ने फैले हुए हाथ पर तह किया हुआ पान का बीडा ऊपर से छोड़ दिया जो उसकी हथेली पर गिरकर खुल गया। झंगटिया- बो ने सलाम कर के वह पान खा लिया ” [3]
मुसलमानों के बीच प्रचलित जाति का भेद आधा गाँव में कई जगह देखने को मिलता है जैसे एक जगह जुलाहों के लड़के मीर साहब के लड़के के साथ कबड्डी खेलते है तब गया अहीर ने उन लड़कों को इधर-उधर फेंकते हुए कहा – “अब तुँह लोगन अइसन लाड साहेब होगइल बाडा की मीर साहेब के लइकन से कबड्डी खेलबा?” (इस घटना से नाराज़ होकर) फुन्नन दादा जुलाहों के घर तक लपक गए और लाठी बजा-बजाकर उन्हें गाली देने लगे [4] मुस्लिम समाज में मौजूद कफू (शादी बियाह में जातियों की बराबरी की कौन सी जाति आपस में बराबर हैं और कौन सी नहीं , कौन किससे शादी कर सकता है और कौन नहीं) के बारे में भी यह उपन्यास बहुत साफ़ लहजे में बात करता है कि शादी के लिए हड्डी मिलाना कितना ज़रूरी होता था और है। अगर पसमांदा जाति कि किसी औरत से अगर शादी हो भी गई तो अशराफ समाज उसे स्वीकार नहीं करता था जैसे राही लिखते हैं ‘ नईमा दादी बहरहाल जुलाहन थी और सैदानियों के साथ नहीं रह सकती थी। पुराने ज़माने के लोग इस बात का बड़ा ख्याल रखते थे कि कौन कहाँ बैठ सकता है और कहाँ नहीं’[5]
आज़ादी के बाद जब अशरफों की ज़मींदारियाँ छिन जाती है और पसमांदा जातियों को भी अलीगढ़ जैसे अशराफ संस्था में जगह मिल जाती है तब एक सैयदों की लड़की कमीला और रहमत जुलाहे के लड़के बरकतुवा उर्फ़ मोहम्मद बरकतुल्लाह अंसारी में इश्क़ परवान चढ़ने लगता है। राही लिखते हैं कि बरकतुवा अलीगढ़ में अपने दोस्तों को अपने और कामिला के इश्क़ के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बताई थी पर उसका ज़्यादा ज़ोर इस पर था कि उसकी माशूका खरी सैदानी है। पर उनके इश्क़ की खबर फुन्नन मियां को लग जाती है। बरकतुवा के बाप को गाली बकते हैं उस पर बरकतुवा अपने बाप को अब्बू बोल देता है। यह सुन कर फुन्नन मियां आग बबूला हो जाते हैं और कहते हैं ‘तूहूँ अपने बाप को अब्बा कहे लगिहो तो शरीफ लोगन के लड़के अपने बाप को का कहके पुकरीहें !” फुन्नन मियां बरकतुवा और कमीला की बात कमीला के बाप अली मियां तक पंहुचा देते हैं। अली मियां अपनी बिरादरी में लड़का खोजना चाहते हैं जो खरा सैयद हो इसलिए वह फिददू से शादी के पक्ष में नहीं हैं जो दागी सैयद है अर्थात उसके खून में दूसरी जाती की मिलावट है। इस पर फुन्नन मियां कहते हैं कि ‘ बिगड़ काहे रहे हो ? फिददू से कामिला का बियाह हरगिज़ मत करिहो। बाकि उ बरकतवा के साथ खुदा न ख़ास्ता भाग जाय, तब कह दियो गाँव भर से कि रहमतवा(बरकतवा का बाप) तो खरा सैयद है’ [6]
उपन्यास में पसमांदा और अशराफ़ संस्कृतियों के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से दिखाया गया है। मुख्यधारा के मीडिया और फिल्मों में मुस्लिम पहचान के रूप में अशराफ़ मुसलमानों की संस्कृति को प्रमुखता दी गई है, जैसे मुग़ल-ए-आज़म, पाकीज़ा, और उमराव जान। इन फिल्मों में अशराफ़ जातियों की भाषा और शान-ओ-शौकत को ‘मुस्लिम संस्कृति’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो पसमांदा मुसलमानों के लिए अजनबी है। राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास आधा गाँव में बताते हैं कि गंगौली की आम बोली (उर्दू भोजपुरी) में अशराफ़ और पसमांदा दोनों बात करते हैं, लेकिन उनके घरों की संस्कृति में अंतर है। जिसे वह साफ़ तौर पर स्पष्ट तो नहीं करते पर हम उसे उनके उपन्यास में देख सकते हैं। जैसे वह लिखते हैं ‘गंगौली की औरतों को गुज्जन मियां से यह शिकायत नहीं थी कि उन्होंने कोई रंडी डाल ली है। रंडी डाल लेने में कोई बुराई नहीं है।…..दूसरा ब्याह कर लेना या किसी ऐरी-गैरी औरत को घर में डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था, शायद ही मियां लोगों का कोई ऐसा खानदान हो, जिसमें लड़के और लड़कियां न हों। जिनके घर में खाने को भी न हो वह भी किसी-न-किसी तरह कलमी आमों और कलमी परिवार का शौक पूरा कर लेते हैं, [7]… मशहूर था कि सलीमपुर के ज़मींदार अशरफ़ुल्लाह खान अशरफ अपने दादा के कलमी दीवान की तरह उस लौंडे को भी रक्खे हुए थे! और फुरसत में इन दोनों ही के पन्ने उल्टा-पुल्टा करते थे। उन्होंने तो उस लौंडे का नाचना भी बंद करवा दिया था [8] एक और घटना देखिये एक सैयद घर का लड़का मिगदाद हसब-नस्ब तोड़ते हुए सैफुनिया से बियाह कर लेता है। इस पर हम्म्दा के पूरे घर वाले उसका बॉयकाट करते हैं। बशीर मियां दुबारा रिश्ता सुधारने की कोशिश करते हैं कहते हैं लड़का है गलती हो गई, वह मिगदाद से कहते हैं कि चल माफ़ी मांग बाप से। इस पर मिगदादा कहता है ‘ माफ़ी काहें की, साहब ! हम ओ से बियाह किया है। कउनो हरमकारी ना कर रही’ इस पर फुन्नन मियां कहते हैं ‘ केको ना मालूम ई बात की सैफुनियाँ सैयद हम्माद हुसैन ज़ैदी (तोरे बाप) की बेटी है ?“[9] इस तरह हम देखते हैं कि एक भाषा बोलने वाले सवर्ण और दलित, अशराफ और पसमांदा में सांस्कृतिक भिन्नता पाई जाती है जो शोषक और शोषित की भिन्नता है।
बंटवारे का इतिहास जटिल है। अलीगढ़ आंदोलन कैसे पाकिस्तान आंदोलन में बदल गया, इसकी शुरुआत सर सैयद ने की थी। अनुराग भारद्वाज Satyagrah.Scroll.In पर लिखते हैं कि “सैयद अहमद खान ने एक मर्तबा कहा था कि जब हिंदुस्तान से अंग्रेज़ मय साज़ो-सामान रुख़सत हो जायेंगे तब यह मान लेना कि सिंहासन पर हिंदू और मुसलमान एक साथ काबिज़ होंगे, महज़ लफ्फाज़ी है. उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों का संघर्ष तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक कोई एक दूसरे पर जीत न पा ले. शायद यहीं द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की बात हो जाती है. पर वहीं खुशवंत सिंह जैसे भी लोग थे जो यह मानते थे कि भारत के बंटवारे की नींव लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने रखी थी.”[10] अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र मानते थे कि आजाद भारत में उन्हें नौकरियां नहीं मिलेंगी और कांग्रेस को हिंदू पार्टी मानते थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय अशराफ़ के लिए बनाया गया था और वहां जमीदारों के लड़के ही पढ़ते थे। मसूद आलम फलाही ने लिखा है कि सर सैयद मानते थे कि पसमांदा जाति के बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं होगा और उन्हें प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ही रखना उचित है।[11]
सर सैयद की मौत के बाद वहाँ बाद के कालों में वहाँ अंसारी और राकी जाति के एक दो बच्चे पढ़ने लगे पर वह भी अशराफ़ की सांप्रदायिक मानसिकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जौन एलिया का एक फिकरा मशहूर है कि ‘पाकिस्तान अलीगढ़ के लड़कों की शरारत थी’ यह लड़के गाँव-गाँव घूम कर लोगों को यह समझा रहे थे की अगर पाकिस्तान नहीं बनेगा तो ‘हिंदुस्तान के 18 करोड़ मुसलमान अछूत बन कर रह जाएंगे‘[12]’ये लोग हमारी मस्जिदों मे गाय बाधेंगे’ पर गंगौली के आम लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही है। “हिंदुस्तान(India) के दस करोड़ मुसलमान कायदे-आजम के पसीने पर अपना खून बहा देंगे… ये बातें न गफूरन की समझ में आती न सितारों की। अशिक्षित आम-मुस्लिम पुरूष और स्त्रियाँ बस इतनी ही कहती; अब मियाँ आप पढ़े-लिखे हैं ठीक ही कहते होंगे।[13]“गंगौली के लोगों के समझ में नहीं आ रहा था कि मुसलमानों को अलग वतन की जरूरत क्यों आन पड़ी है। पाकिस्तान का निर्माण तथा ‘मुस्लिम लीग’ उनके समझ के बाहर की चीज थी। ‘पाकिस्तान’ चले जाने से उनका विकास किस तरह से होने लगेगा.? यह उनके लिए अबूझ पहेली थी। फुन्नन मियां पाकिस्तान का पुरजोर विरोध करते हुए कहता है- “कही इस्लामु है कि हुकूमत बन जैयहें! ऐ भाई, बाप-दादा की क़बूर हियाँ है, चौक इमामबाड़ा हियाँ है, खेत-बाड़ी हियाँ है। हम कोनो बुरबक है कि तोरे पाकिस्तान जिंदाबाद में फँस जायँ।“[14]लोगो को समझ नहीं आ रहा था कि ‘हिंदुस्तान के आज़ाद होवे के बाद ई गायवा अहीर, इ लखना चमार या इ हरिया बदई हमारे दुश्मन काहे क हो जाईयें‘[15]
यहाँ इस बात को भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि अलीगढ़ के पाकिस्तान आंदोलन के खिलाफ पसमांदा समाज का मुस्लिम लीग विरोधी पाकिस्तान विरोधी आंदोलन भी चल रहा था इतिहास में इसे मोमिन तहरीक /आंदोलन के नाम से जाना जाता है जिसे मौलाना असीम आली बिहारी और अब्दुल कयुम अंसारी लीड कर रहे थे । राही मासूम रज़ा इस ओर इशारा करते हुये लिखते हैं कि अलीगड़ के लड़के मुस्लिम लीग और पाकिस्तान का प्रचार गंगौली मे कर रहे थे पर जुलाहों को वह नहीं समझा पा रहे थे। हाजी मियां का सवाल था कि ‘का पाकिस्तान मे मियां लोग जोलहन से रिस्ता-नाता करे लगिहेन’ [16] यह व्यगं से ज़्यादा जिज्ञासा भी थी कि अगर इस्लाम के नाम पर देश बनता है तो क्या वहाँ इस्लामी मसावात लागू होगा? जैसाकि हम आज जानते हैं इस्लामी मसावात नाम की किसी चीज़ का वास्तविक दुनियाँ में अस्तित्व नहीं है। पाकिस्तान बनाने के लिए लगातार डराया और समझाया जा रहा था।
उपन्यास में अलीगढ़ लड़के कहते हैं कि ‘मैं जुलाहों और बिहारियों से बात नहीं कर सकता। दोनों साले मादरज़ात चूतिये होते हैं’ यह नफरत पसमांदा के लिए शुरू से इनके दिल मे राही है क्योंकि पाकिस्तान का सबसे बड़ा विरोध इन्हीं पसमांदा जतियों ने किया है । जैसा कि हाजी साहब कहते हैं ‘ हम लोग जमीयतुल अंसार वाले हैं । हम लोग उसलीम लीग मुस्लिम लीग को ओट ना दे सकते हैं’ राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास में जब दो राष्ट्र सिद्धांत और मुस्लिम लीग के पक्ष मे काली शिरवानी के मुँह से समर्थन करा रहे होते हैं तो उसमे एक पसमांदा लड़के को भी समर्थन करते हुए दिखाते हैं पर जैसा कि हमने ऊपर देखा पसमांदा समाज तो अलीगढ़ में न के बराबर था। यहाँ रज़ा पसमांदा पात्रों से पाकिस्तान का समर्थन करा कर यह साबित कर रहे हैं कि पाकिस्तान निर्माण में पसमांदा समाज का भी हाथ था।
पाकिस्तान निर्माण के पक्ष में गंगौली के मुसलमान भले ही नहीं थे लेकिन पाकिस्तान बनने के पश्चात इसका असर ‘गंगौली’ पर भी पड़ा। कुछ लोगों को न चाहते हुए भी ‘पाकिस्तान’ जाना पड़ा। जमींदारों की जमींदारी खत्म होने के पश्चात उन्हें ‘हिंदुस्तान’ और ‘पाकिस्तान’ में कोई अंतर नहीं लगा। बटवारे के बाद जो अशराफ यहाँ रह गए उनका गुस्सा इन शब्दों में फूटकर बाहर आया- “इनके जिन्ना साहब तो हाथ झाड़ के चले गए कि हियां के मुसलमान जाएं, खुदा न करें जहन्नुम में। ई अच्छी रही। पाकिस्तान बने के वास्ते वोट दें हियां के मुसलमान अऊर जब पाकिस्तान बने त जिन्नावा कहे कि हियां के मुसलमान जायं चूल्हे भाड़ में। और तोहरा अलीगढ़ त हियन रह गवा मर्दे “[18] राही मासूम रज़ा यह भी बता रहे हैं कि पुराने मुस्लिम लीगी जो बंटवारे की पूरी राजनीती में लगे हुए थे, अचानक उन्होंने कांग्रेसी टोपी पहनी और जा के कांग्रेस से जुड़ गए और तब से भारत में जिसे हम मुस्लिम राजनीति बोलते हैं, उस पे उनका पूरी तरह से इन अशराफ जातियों का ही वर्चस्व है और ये वर्चस्व आज तक जारी है!”
ज़मींदारी की ज़मीन खोने के बाद, अशराफ मुसलमान जूते बेचने का व्यवसाय अपनाते हैं, जो पारंपरिक रूप से निचली जातियों का काम माना जाता है। बंटवारे के बाद गंगौली के मुसलमान अपनी ज़मीन और हैसियत खो देते हैं और इसके लिए भारत और पाकिस्तान दोनों को दोषी मानते हैं। निचली जाति के परशुराम विधायक बन जाते हैं, जबकि पारंपरिक चिकित्सा कार्य दब जाते हैं। कई सैय्यद काम की तलाश में कलकत्ता और कराची चले जाते हैं, जिससे उनकी बेटियों की शादी में कठिनाइयाँ आती हैं। मिगदाद जैसे कुछ लोग जाति से बाहर शादी करके सामाजिक मानदंडों को चुनौती देते हैं, जो विभाजन के गहरे व्यक्तिगत प्रभाव को दर्शाता है।
राही मासूम रज़ा का उपन्यास आधा गाँव भारतीय समाज की जटिलताओं और विभाजन के समय की वास्तविकताओं को उजागर करता है, लेकिन यह पसमांदा मुसलमानों के हितों और उनके दर्द को प्रमुखता से नहीं दर्शाता। उपन्यास मुख्यतः अशराफ समाज, विशेषकर शिया सैय्यद परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, और इसमें पसमांदा समाज के संघर्षों और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को पर्याप्त रूप से नहीं उभारा गया है। अशराफ लेखन में अक्सर सामंती और जातिवादी सोच देखने को मिलती है, जो पसमांदा समाज के हितों को अपने स्वार्थ के रूप में प्रस्तुत करती है। इस प्रक्रिया को “ideologising” कहा जा सकता है, जहाँ अशराफ अपने हितों को इस्लाम के नाम पर पसमांदा समाज पर थोप देते हैं। पसमांदा समाज यह समझता है कि वह इस्लाम को बचा रहा है, जबकि वास्तव में वह अशराफ के हितों की रक्षा कर रहा होता है। पसमांदा मुसलमानों के हितों और उनके संघर्षों को साहित्यिक मंच पर लाने के लिए और अधिक समर्पित और संवेदनशील लेखन की आवश्यकता है।
संदर्भ:
1:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-71
2:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-96
3:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-112
4:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-35
5:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-16
6:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-333
7:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-17
8:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-87
9:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-278
10:- अनुराग भारद्वाज ,Satyagrah.Scroll.In,सैयद अहमद खान : भारत के सबसे बड़े मुस्लिम समाज सुधारक जिन पर बंटवारे का दाग भी लगता है,17 अक्टूबर 2020
11:- फलाही, मसऊद आलम, https://hindi.roundtableindia.co.in,’ सर सय्यद अहमद खां – शेरवानी के अन्दर जनेऊ’
12:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-239
13:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-60
14:- रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-155
15:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-240
16:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-243
17:- अंसारी,प्रोफेसर खालिद अनीस https://hindi.roundtableindia.co.in,’हाँ, qमुसलमानो का तुष्टिकरण हुआ है, लेकिन अशराफ़ मुसलमानों का,
18:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-284
18:-रज़ा, राही मासूम, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-243
लेखक, पसमांदा एक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।