लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

डॉ. इकबाल अंसारी की पुस्तक “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष” एक महत्त्वपूर्ण कृति है जो भारतीय मुस्लिम समाज के भीतर पसमांदा समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को उजागर करती है। यह पुस्तक पसमांदा मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव और उनके संघर्षों पर विस्तृत प्रकाश डालती है। पसमांदा समुदाय, जो मुस्लिम समाज के पिछड़े और वंचित तबके के रूप में पहचाना जाता है, लंबे समय से सवर्ण मुस्लिमों के प्रभुत्व का शिकार रहा है। इस पुस्तक में, लेखक ने इस असमानता का गंभीर विश्लेषण किया है और इसे समाप्त करने के लिए कई ठोस सुझाव प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने बताया है कि किस प्रकार पसमांदा मुसलमानों को शिक्षा, रोजगार, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।


पसमांदा आंदोलन का इतिहास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा है, जब जातीय असमानताओं के खिलाफ आवाजें उठने लगी थीं। डॉ. अंसारी ने विस्तार से बताया कि पसमांदा आंदोलन के प्रमुख नेता अली अनवर और इजाज़ अली कैसे इस समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पुस्तक इस बात पर जोर देती है कि पसमांदा मुसलमानों को सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक व्यवस्था में हाशिए पर रखा गया है, और उनके लिए समानता व न्याय पाने के प्रयास आवश्यक हैं।
डॉ. इकबाल अंसारी का जन्म उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर जिले में 1959 में हुआ था। पेशे से चिकित्सक रहे डॉ. अंसारी ने समाज सेवा के क्षेत्र में कदम रखते हुए पसमांदा मुसलमानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने इंडियन पीपुल्स फ्रंट और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) जैसे संगठनों के साथ काम किया। वे “पसमांदा पहल” नामक पत्रिका के संपादक भी रहे हैं। पसमांदा आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका रही है, और उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता उनकी लेखनी में स्पष्ट झलकती है। उनके लेखन का उद्देश्य पसमांदा मुसलमानों की वास्तविक स्थिति को उजागर करना और उनके उत्थान के लिए समाज को जागरूक करना है।

सामाजिक भेदभाव और धार्मिक संस्थाएँ

डॉ. अंसारी ने पसमांदा मुसलमानों के विरुद्ध धार्मिक और सामाजिक भेदभाव का उल्लेख किया है। वह कहते हैं कि धार्मिक संस्थाएँ, जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, देवबंद और बरेलवी जमात, भी इस भेदभाव का हिस्सा रही हैं। पसमांदा मुसलमान, जो मेहनतकश और निम्न वर्ग से आते हैं, समाज की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करते हैं। वे फुटपाथों पर फल-सब्जी बेचते हैं, मजदूरी करते हैं, और कई अन्य कठिन पेशों में लगे होते हैं। वहीं, सवर्ण मुसलमान धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व में काबिज रहते हैं। लेखक ने इस असमानता को रेखांकित करते हुए बताया कि किस प्रकार धार्मिक नेतृत्व के नाम पर सवर्ण मुसलमान पसमांदा मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक विकास को बाधित कर रहे हैं।


पसमांदा मुसलमानों के धार्मिक गुलामी का जिक्र करते हुए, अंसारी ने लिखा है कि कैसे उन्हें धार्मिक नेतृत्व के बहाने से धार्मिक गुलाम बना दिया गया है। अशराफ दुनिया की सारी सुख-सुविधाओं का भरपूर उपयोग-उपभोग कर रहे हैं। अनेक संसाधनों के मालिक हैं तो दूसरी तरफ पसमांदा मुसलमान मानसिक गुलाम बनकर मुक्ति की चाहत में मजारों का चक्कर लगा रहा है। बेबसी, लाचारी, भूखमरी और पसमांदगी भोग रहा है। चाहे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो, चाहे देवबंद या बरेलवी जमात हो या जामा मस्जिद हर जगह सवर्ण मुसलमान ही काबिज है। वह तख्त पर है और हम पसमांदा भूखे नंगे लोग उसकी जज्बाती तकरीरों पर ताली पीट रहे हैं, वाह-वाही कर रहे हैं। आखिरत सँवार रहे हैं जबकि बूढ़े माँ-बाप, बीवी, बाल-बच्चों की न्यूनतम जरूरत भी ठीक से पूरा करने में हम अक्षम साबित हो रही है। अंसारी आगे कहते हैं कि जो मूलनिवासी इस्लाम स्वीकार किए उनको फिर सवर्ण मुसलमानों ने यहाँ घटिया, गैरकुलीन और नीच कुल में जन्मे मुसलमान घोषित किया। उन्हें धार्मिक गुलाम बनाने के लिए फिर कुचक्र किया। इन्हें रोजा, नमाज, खैरात, हज यात्रा के कायदे कानून, कुरान के कुछ अध्याय और धर्म के कुछ सिद्धान्तों को पढ़ाने की बात तो कही लेकिन दुनिया में विकास के लिए जरूरी बुनियादी शिक्षा न पढ़ाने की बात कहके दलित पिछड़े मुसलमानों को धार्मिक गुलाम बना दिया जिसका नतीजा आज सबके सामने है।

राजनीतिक उपेक्षा और प्रतिनिधित्व की कमी

पसमांदा आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता के साथ-साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देना है। लेखक ने इस पुस्तक में बताया है कि कैसे पसमांदा समुदाय भारतीय राजनीति में उपेक्षित रहा है। भारतीय मुस्लिम समाज में लगभग 85% की संख्या में होने के बावजूद, पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बहुत कम है। इससे उनके अधिकारों की अनदेखी की जाती है, और उनका जीवन स्तर लगातार गिरता जा रहा है।


लेखक ने प्रमुख राजनीतिक दलों की नीतियों की आलोचना की है, जो पसमांदा मुसलमानों की समस्याओं का समाधान देने में असफल रहे हैं। अंसारी ने दलित मुस्लिम और दलित ईसाई समुदायों की उपेक्षा का भी उल्लेख किया है। उनका कहना है कि इन समुदायों को अभी भी आरक्षण और अन्य सुविधाओं से वंचित रखा गया है, जो उनके सामाजिक उत्थान में सबसे बड़ी बाधा है। इस उपेक्षा के चलते पसमांदा मुसलमानों की समस्याएँ और भी गहरी हो गई हैं।


इकबाल अंसारी ने एक व्यक्तिगत घटना का उल्लेख किया है, जिसमें उनकी पत्नी नगरपालिका परिषद के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रही थीं। सवर्ण मुस्लिम परिवार ने प्रशासन के साथ मिलीभगत करके चुनावी प्रक्रिया में हेरफेर किया, जिससे उनकी पत्नी चुनाव हार गईं। यह घटना इस बात का प्रमाण है कि पसमांदा समुदाय को सत्ता और राजनीति में बार-बार वंचित किया जा रहा है।

आने वाला युग: सामाजिक न्याय का युग

डॉ. अंसारी ने इस पुस्तक में पसमांदा आंदोलन के भविष्य को लेकर एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि पसमांदा समुदाय का उत्थान तभी संभव है जब उन्हें सामाजिक और आर्थिक अवसर दिए जाएँ। उन्होंने शिक्षा, रोजगार, और राजनीतिक जागरूकता के प्रसार पर जोर दिया है। अंसारी का यह दृष्टिकोण है कि यदि पसमांदा मुसलमान संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें, तो आने वाला समय सामाजिक न्याय का युग हो सकता है।

लेखक ने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के विचारों का हवाला देते हुए कहा कि “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” ही पसमांदा समुदाय के उत्थान का मार्ग है। सामाजिक भेदभाव और धार्मिक गुलामी से मुक्ति के लिए यह जरूरी है कि पसमांदा समुदाय अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाए और अंबेडकर के संदेश को अपने जीवन में उतारे।


अंसारी ने निष्कर्ष में बताया है कि पसमांदा मुसलमानों को एक संगठित और समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम के रूप में अपने आंदोलन को आगे बढ़ाना होगा। यह समय है जब पसमांदा मुसलमान अपनी आवाज बुलंद करें और सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय के लिए एकजुट हों। आने वाला समय निश्चित रूप से पसमांदा मुसलमानों के लिए न्याय और समानता का युग हो सकता है, बशर्ते वे अपने संघर्ष में दृढ़ रहें और शिक्षा व जागरूकता के माध्यम से अपने अधिकारों के प्रति सचेत हों।
डॉ. अंसारी की लेखन शैली सरल और स्पष्ट है। उन्होंने अपने विचारों को तर्कसंगत तरीके से प्रस्तुत किया है, जिससे पुस्तक सभी वर्गों के पाठकों के लिए सुलभ हो जाती है। उन्होंने तथ्यों और आंकड़ों के माध्यम से अपनी बात को प्रभावी ढंग से सामने रखा है। डॉ. इकबाल अंसारी की पुस्तक “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष” पसमांदा समुदाय के अधिकारों और उनके संघर्षों पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक पसमांदा आंदोलन के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य कर सकती है और समाज में व्याप्त असमानताओं को उजागर करती है। लेखक ने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्तर पर पसमांदा मुसलमानों के साथ होने वाले भेदभाव और उनके ऐतिहासिक संघर्षों को सशक्त रूप में प्रस्तुत किया है। इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता इसका यथार्थवादी दृष्टिकोण और पसमांदा समाज की समस्याओं का मानवीय विश्लेषण है।
यह पुस्तक पसमांदा समाज के लिए न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने में सक्षम है। इसे पढ़कर पसमांदा समाज में जागरूकता बढ़ेगी, और यह उन्हें अपने संघर्षों को दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। पुस्तक की स्पष्टता, तर्कसंगतता, और सामाजिक संदेश इसे पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन बनाते हैं। इसलिए, यह उम्मीद की जा सकती है कि पसमांदा समाज इस पुस्तक को व्यापक रूप से अपनाएगा और इसे अपने संघर्ष के दस्तावेजीकरण के रूप में देखेगा, जिससे आने वाले समय में और अधिक पसमांदा लेखन एवं विचारधारा विकसित हो सकेगी।

किताब: सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष
लेखक: डॉ इकबाल अंसारी
प्रकाशन: 2024, ग़ाज़ीपुर
राशि : 150₹
संपर्क : 9450831442