लेखक : खालिद अनीस अंसारी
अनुवाद : अब्दुल्लाह मंसूर
संसदीय चुनाव चल रहे हैं, भाजपा द्वारा कांग्रेस के खिलाफ परिचित मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोपों को लागू करने से मुस्लिम कोटा बहस फिर से शुरू हो गई है। इस बहस में, कुछ प्रमुख बहुजन चिंतकों ने दलित मूल के मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति (एससी) श्रेणी में शामिल करने का विरोध किया है।
एससी श्रेणी से गैर-भारतीय आस्थाओं ( वह धर्म जिनका जन्म भारत में नहीं हुआ है) विशेष रूप से इस्लाम और ईसाई धर्म को बाहर करने का फैसला संविधान में संवैधानिक (एससी) आदेश 1950 के माध्यम से किया गया था, जिसे कानून मंत्रालय द्वारा अधिसूचित किया गया था जब बीआर अंबेडकर कानून मंत्री थे। मैं तर्क दूंगा कि यह आधा सच है और गहराई से देखें तो दलित सूची में मुस्लिम और ईसाई दलितों को शामिल करना संविधान और अम्बेडकर के विचारों के ख़िलाफ़ नहीं है।
संविधान का अनुच्छेद 341(1) धर्म के आधार पर एससी दर्जे को सीमित करने के बारे में कुछ नहीं कहता है। साथ ही, अनुच्छेद 13(1 और 2) कहता है कि संविधान से पहले बनाया गया कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों के खिलाफ जाता है वह अमान्य है। गैर-हिंदू दलितों को एससी सूची से बाहर करने का नियम संविधान में नहीं था, लेकिन राष्ट्रपति अध्यादेश द्वारा 1950 के द्वारा अनुच्छेद 341 के पैरा 3 द्वारा जोड़ा गया था। अनुच्छेद 74 के मुताबिक, राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह माननी होती है। इसलिए 1950 का आदेश उस समय की सरकार की इच्छा दिखाता है, न कि खुद संविधान की। पैरा 3 में पंजाब की चार सिख जातियों (अनुसूची में सूचीबद्ध 34 में से) को छोड़कर सभी गैर-हिंदू समूहों को अनुसूचित जाति की श्रेणी से बाहर रखा गया है। इसके बाद, संशोधनों के माध्यम से एससी नेट का विस्तार किया गया, और दलित मुसलमानों और ईसाइयों को छोड़कर दलित मूल की शेष सिख और सभी बौद्ध जातियों को 1956 और 1990 में एससी सूची में शामिल किया गया। दलित मुस्लिम और ईसाई 2004 से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके अनुच्छेद 341 के पैरा 3 को ख़त्म करने अर्थात धार्मिक प्रतिबंध को हटाने की कोशिश कर रहे हैं, यह मामला बीस वर्षों से लंबित है।
यदि संविधान कहता है कि अगर संविधान के हिसाब से सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, तो सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण से बाहर भी नहीं किया जा सकता। लेकिन 1950 का राष्ट्रपति आदेश बिल्कुल यही करता है, जिसमें दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को केवल उनके धर्म के कारण एससी श्रेणी से बाहर रखा गया है। यह उनके मूल अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 14 (समानता), बल्कि अनुच्छेद 15 (कोई भेदभाव नहीं), 16 (नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं), और 25 (विवेक की स्वतंत्रता) के भी खिलाफ है।
क्या अम्बेडकर ने 1950 के आदेश का समर्थन सिर्फ इसलिए किया क्योंकि कानून मंत्रालय ने इसकी घोषणा की थी? आम तौर पर राष्ट्रपति के आदेश को कोई संबंधित मंत्रालय जारी कर सकता है। हमें आंबेडकर की राय इस बारे में नहीं पता क्योंकि अनुच्छेद 74 (2) मंत्रिपरिषद की सलाह को गोपनीय रखता है। राष्ट्रपति के किसी भी आदेश की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से प्रधानमंत्री की होती है, जो उस समय जवाहरलाल नेहरू थे लेकिन, कुछ सवालों के ज़रिये आंबेडकर की भूमिका के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
अम्बेडकर कानून मंत्री रहते हुए भी राष्ट्रपति आदेश 1950 के माध्यम से बौद्ध धर्म को एससी सूची में शामिल करने में विफल क्यों रहे? बौद्ध धर्म अपनाने के एक दिन बाद, एक भाषण में ‘नागपुर को क्यों चुना गया?’ 15 अक्टूबर, 1956 को अम्बेडकर ने स्वीकार किया कि उनके अनुयायी धर्म परिवर्तन करके अनुसूचित जाति के लाभ खो देंगे। वह धार्मिक से अधिक सामाजिक कारकों को देखने के भी पक्षधर थे। अपने लेखन में, उन्होंने उल्लेख किया कि मुसलमान जाति और अस्पृश्यता का पालन करते हैं और ईसाई धर्म में परिवर्तित होने से अछूतों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता है। ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में, उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि
“…मुसलमान न केवल जाति बल्कि अस्पृश्यता का भी पालन करते हैं”। ‘द कंडीशन ऑफ़ द कन्वर्ट’ में, अम्बेडकर कहते हैं कि “…धर्मांतरण से अछूत धर्मान्तरित लोगों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है…अछूत ईसाई बन जाने पर भी अछूत ही रहता है।”
इसके अलावा, अनुच्छेद 25 (बी) के अनुसार, सिखों, जैनियों और बौद्धों को केवल सामाजिक कल्याण, सुधार और धार्मिक संस्थानों तक सार्वजनिक पहुंच के उद्देश्यों के लिए ही “कानूनी” हिंदू माना जाता है। यदि सिख धर्म और बौद्ध धर्म को हिंदू शाखाओं के रूप में देखा जाता था, तो अधिकांश दलित सिखों को 1956 तक और दलित बौद्धों को एससी सूची में शामिल करने में 1990 तक का समय क्यों लगा? यदि इस्लाम और ईसाई धर्म समानता में विश्वास करते हैं, तो सिख धर्म और बौद्ध धर्म भी समानता में विश्वास करते हैं। यदि मुस्लिम और ईसाई जातियों को धर्म के अलावा अन्य कारकों जैसे ओबीसी, एसटी और ईडब्ल्यूएस के आधार पर आरक्षण मिल सकता है, तो सिखों और बौद्धों को भी मिलना चाहिए, क्योंकि उन्हें भी धार्मिक अल्पसंख्यक के रूप में देखा जाता है। यदि इस्लाम और ईसाई धर्म समानता में विश्वास करते हैं, तो सिख धर्म और बौद्ध धर्म भी समानता में विश्वास करते हैं। यदि मुस्लिम और ईसाई जातियों को धर्म के अलावा अन्य कारकों जैसे ओबीसी, एसटी और ईडब्ल्यूएस के आधार पर आरक्षण मिल सकता है, तो सिखों और बौद्ध भी धार्मिक रूप से तटस्थ आरक्षण का लाभ उठा सकते हैं क्योंकि उन्हें भी धार्मिक अल्पसंख्यक के रूप में देखा जाता है।
दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को एससी वर्ग में शामिल करने पर कुछ जाति-विरोधी आवाज़ों के तीखे विरोध का संविधान या बाबासाहेब के दृष्टिकोण से बहुत कम लेना-देना है। उनका विरोध वीडी सावरकर के पुण्यभूमि/पितृभूमि के विचार से ज़्यादा करीब है। कुछ अम्बेडकरवादी गैर-भारतीय दलितों को अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता देने से रोकने के लिए एक नई आम सहमति बना रहे हैं, उसका उद्देश्य दलित समुदाय के भीतर धार्मिक विभाजन को गहरा करना है। यह न तो न्यायसंगत है और न ही लोकतांत्रिक।