लेखिका : पायल

हाल के वर्षों में, जाति विमर्श पर केंद्रित फिल्मों और ओटीटी श्रृंखलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। यह एक सकारात्मक विकास है कि जाति की पहचान को अब आर्थिक स्थिति के पीछे छिपाया नहीं जा रहा है। हालांकि, यह प्रश्न उठता है कि क्या यह वास्तव में जागरूकता बढ़ाने का प्रयास है या बहुजन समाज के लंबे संघर्ष का व्यावसायीकरण। इस लेख में हम आनंद तिवारी द्वारा निर्देशित वेब श्रृंखला “बंदिश बैंडिट्स” के दूसरे सीज़न का जाति विमर्श के दृष्टिकोण से विश्लेषण करेंगे।

अछूत से अछूता शास्त्रीय संगीत

बंदिश बैंडिट्स का दूसरा सीज़न राठौड़ घराने के भारतीय शास्त्रीय संगीत के उत्तराधिकारी राधे की ज़िंदगी पर आधारित है, जो अपने घराने के शास्त्रीय संगीत को दुनिया तक पहुँचाना चाहता है। उत्तरी भारत के ज़्यादातर घरानों में मुस्लिम संगीतकारों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जैसे वाजिद अली शाह ने ठुमरी की रचना की तो अमीर ख़ुसरो ने ख़याल और तराना की। यहाँ हालाँकि संगीत में तो धर्म का भेद नहीं दिखता है, लेकिन जाति व्यवस्था की छुआछूत से यह संगीत भी अछूता नहीं है। इसी जातिवाद को बुल्ले शाह ने अपनी एक रचना में इस तरह वर्णित किया है:

बुल्ले नूं समझावण आइआं भैनां ते भरजाइआं।
मन्न लै बुल्लया कहिना साडा, छड्ड दे पल्ला राइआं।
आल नबी औलाद अली नूं तू क्यों लीकां लाईआं।
जिहड़ा सानूं सैयद सद्दे दोज़ख मिलन सजाइआं,
जो कोई सानूं राईं आखे भिश्ती पीघां पाइआं।

जिसका अर्थ है: ‘बुल्लेशाह, हमारा कहना मान लो और अराई का साथ छोड़ दो। तुम तो नबी के ख़ानदान से हो और अली के वंशज हो, फिर क्यों अपने पूर्वजों की लोक निंदा का कारण बनते हो। (बुल्ले शाह जवाब देते हैं) जो कोई हमें सैयद कहेगा, उसे दोज़ख़ की सजा मिलेगी और जो हमें राईं कहेगा, वह बहिश्त में झूला झूलेगा।’

नियमों से परे संगीत

श्रृंखला में शास्त्रीय और आधुनिक संगीत के मिश्रण के साथ संगीत के व्यावसायीकरण को दर्शाया गया है। माही नाम का एक पात्र, जो एक अछूत जाति से है, शास्त्रीय संगीत को नए तरीके से प्रस्तुत करता है। वह संगीत को कड़े नियमों में नहीं बांधता, बल्कि इसे एक कला के रूप में देखता है। घरानों से जुड़ा संगीत ऊँचे तबके के संगीतकारों, राजा, रजवाड़ों तक ही सीमित रहता है। इस कला को साधना, रियाज़ और शुद्धता के नाम पर बाक़ी तरह के संगीत कला से भिन्न और बेहतर माना जाता है। बंदिश बैंडिट्स में मॉडर्न संगीत और शास्त्रीय संगीत के फ्यूज़न के साथ एक ऐसी कहानी पेश की गई है जिसमें आज के दौर में संगीत का भी बाज़ारीकरण हो चुका है और बहुत से म्यूज़िक बैंड कुछ नया करने की कोशिश में शास्त्रीय संगीत और वाद्यों के साथ नए-नए प्रयोग करते हैं ताकि संगीत में वो कुछ नया कर सकें। ऐसे ही एक जाने-माने बैंड का नाम है रेज़ एन रागा, जिसके एक सदस्य का नाम माही है। माही सितार को गिटार की तरह बजाता है और शास्त्रीय संगीत को नियमों में न बाँधकर उनके साथ अलग-अलग प्रयोग करता है। बैंड को एक गायक की ज़रूरत होती है, जिसके लिए राधे बैंड का हिस्सा बनता है। राधे अपने घराने के संगीत के साथ बिलकुल भी छेड़छाड़ नहीं करना चाहता है, वहीं माही संगीत की समझ को तभी सार्थक मानता है जब वह अंधे नियमों को तोड़कर सिर्फ़ संगीत पर केंद्रित हो।

माही – एक एंटी-कास्ट किरदार


माही का किरदार परेश पाहुजा ने बड़ी ख़ूबसूरती से निभाया है, जो ख़ुद भी असल ज़िंदगी में एक गायक है। माही का किरदार एक अछूत जाति से आता है और संगीत की समझ में वो राधे से बहुत आगे है। उसमें अपने संगीत को लेकर आत्मविश्वास होता है, लेकिन वो संगीत को पूजा-पाठ का सामान नहीं मानता, बल्कि एक कला की तरह लेता है जिससे वह पैसे व शोहरत पाने के लिए इस्तेमाल करना भी बुरा नहीं मानता। यहाँ राधे और माही के पात्र एक-दूसरे से बिलकुल अलग नज़र आते हैं, जो जाति पदानुक्रम में उनकी स्थिति को दर्शाता है।

माही का किरदार एंटी-कास्ट है, यह उसकी भाषा, व्यवहार और जाति की समझ से साफ़ होता है। ऐसे किरदार मूलतः हम अम्बेडकराइट सिनेमा में ही देखते हैं, जिनमें कोई भी दलित/बहुजन किरदार उसी समाज के नज़र से लिखे जाते हैं। अक्सर ब्राह्मणवादी नज़रिए में दलित/बहुजन पात्र कम बुद्धि का, शारीरिक रूप से कमजोर, बदसूरत और अकुशल दिखाया जाता रहा है, जबकि सवर्ण जाति के नकारात्मक पात्र भी कहानी में ब्राह्मणवादी कल्चर को प्रोत्साहित करते थे। दलित/बहुजन पात्र को दया या हीनता के साथ ही देखा जाता था और सवर्ण पात्रों को दयालु, मसीहा और इज़्ज़तदार दिखाया जाता है।

इन बिंदुओं पर अगर हम माही को आँकते हैं तो सवर्ण सोच पर बने इस सीरीज़ में भी ऐसे किरदार को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है जो सवर्ण सोच के उलट है। यह माही के डायलॉग में हमें साफ़-साफ़ दिखाई देता है जब वह राधे से कहता है: “हम शास्त्र नहीं संगीत बनाते हैं, जिस दिन ये गंडा उतारोगे हमारे लेवल पर आ जाओगे।”जहाँ भी राधे शास्त्रीय संगीत, घराने और उनकी बंदिशों को देवतुल्य या पवित्रता एवं शुद्धता से जोड़ता तो माही इसको हर जगह नकारता है। कभी वो चेहरे की अभिव्यक्ति से, कभी शारीरिक भाषा से और कभी आक्रामक संवाद द्वारा। ये अभिव्यक्ति तभी आ सकती हैं जब इस पवित्रता के कॉन्सेप्ट को कोई जाति के शोषण से जोड़कर समझ पाता हो। माही एक जगह राधे को घराने के संगीत और गुरुओं की हक़ीक़त सुनाता है:”भाई ये ज्ञान किसी और को देना… पूरा बचपन और आधी जवानी निकल गई इन गुरुओं के पीछे भागते-भागते और अपने हक़ की शिक्षा माँगते। उन्होंने हर बार तुझ जैसे किसी अर्जुन को चुना और मुझसे एक्स्पेक्ट किया कि मैं उन्हें अंगूठा काट कर दे दूँ। गेस व्हाट, मैं एकलव्य नहीं हूँ। पर तू बन गया ना अनक्वेश्चनिंग, अनथिंकिंग रोबोट। जिसका दिमाग़ है शिष्टाचार में।

सवर्ण दृष्टिकोण से माही

हालाँकि माही के किरदार का अगर अलग से विश्लेषण करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि शो जाति व्यवस्था के विरोध में एक आवाज़ दर्ज कर रही है। लेकिन जब आप पूरा शो और सारे किरदार देखते हैं तो उनकी दुनिया वही है जहाँ जाति से जुड़ी सुविधाएँ अदृश्य हैं और आपके विशेषाधिकार आपको कहीं लाभ नहीं दे रहे, बल्कि एक सवर्ण जाति से आया हुआ व्यक्ति सिर्फ़ अपने मेरिट के दम पर कुछ हासिल करने में लगा है। हाँ, क्लास का फ़र्क़ और उससे जुड़े विशेषाधिकार को आप आराम से महसूस कर पाते हैं।क्या हमें खुश होना चाहिए कि एक ऐसे कामयाब शो में माही जैसा किरदार देखने को मिलता है? तो यहाँ जवाब ये है कि हमें खुश होने से ज़्यादा सतर्क होने की ज़रूरत है। क्योंकि माही सीधे-सीधे एक एंटी-कास्ट किरदार है जिसे आख़िर में ब्राह्मणवादी विचार के अनुरूप जाति व्यवस्था को बिना ख़त्म किए, उसकी कला में पारंगतता को देखते हुए उन्हीं विचारों में मिला दिया जाता है जिसके विरोध में उसकी पूरी पहचान बनी थी। अंत में राधे माही को गुरु मानते हुए उसके पैर छूता है और माही को यह महसूस करते दिखाया जाता है कि अंततः इन सवर्णों ने एक अछूत को सम्मान दिया जो उस किरदार का उच्चतम बिंदु है। पैर छूने जैसे ब्राह्मणवादी रिवाज को ही अंत में बचाया जाता है जो कि असल में एक समस्या है। क्या सवर्ण द्वारा स्वीकृति पाना किसी भी दलित/बहुजन का लक्ष्य होना चाहिए या क्या उनसे पैर छुआने भर से जाति की समस्या हल हो जाएगी या सच्चे अर्थ में जाति का विनाश ब्राह्मणवादी विचारों का विनाश है।

रिबेलियन माही के रूप में परेश पाहुजा

ये तो रही शो की कहानी की बात, अब बात करते हैं कहानी से बाहर की। बंदिश बैंडिट्स के दूसरे सीज़न की कामयाबी के पीछे परेश पाहुजा का शानदार अभिनय प्रदर्शन और माही जैसा एंटी-कास्ट पात्र एक बड़ी वजह रहे। लेकिन परेश पाहुजा को जब तारीफ़ मिलती है तो माही को कहीं भी उसकी जाति की पहचान से जोड़कर देखा ही नहीं गया, बल्कि इसे सिर्फ़ एक क्रांतिकारी पात्र की तरह सराहा गया जो कि परेश पाहुजा की लोकप्रियता के लिए सकारात्मक तरीक़े से काम करता है। कहानी के बाहर ये किरदार एंटी-कास्ट विचारधारा को आगे नहीं ले कर जाता है, बल्कि ये सवर्ण समाज को और भी प्रतिष्ठित करने का साधन बन जाता है।

एंटी-कास्ट सिनेमा की विशेषताएं

एंटी-कास्ट सिनेमा बहुजन समाज के अनुभवों, जीवनशैली और संस्कृति को केंद्र में रखता है। इसमें अंबेडकरवादी विचारधारा को पात्रों के कार्यों और निर्णयों के माध्यम से दर्शाया जाता है। ऐसी फिल्मों में अंबेडकर, बुद्ध, कबीर जैसे प्रतीकों का उपयोग किया जाता है। इस तरह की फिल्मों के उदाहरण हैं – ब्लूस्टार, लबर पोंदु, जय भीम, कर्णन आदि।

एंटी-कास्ट सिनेमा में बहुजन समाज का अनुभव, उनकी जीवन-शैली, संस्कृति केंद्र बिंदु पर होता है जिसे उनकी भाषा, भोजन, भाव-भंगिमा से चित्रित किया जाता है। अंबेडकरवादी विचारधारा को बोलकर नहीं बल्कि उनके कार्यों, निर्णयों, अन्याय के प्रति उनकी सोच में दिखाया जाता है। अंबेडकर, बुद्ध, कबीर, इलयाराजा का संगीत, सावित्री-ज्योतिबा फुले इत्यादि के प्रतीक चिन्ह आपको एंटी-कास्ट पात्र के आस-पास देखने को मिलते हैं जो इंगित करते हैं कि वो समाज की पहचान, इतिहास और संघर्षों के प्रति जागरूक है।

कोई भी एंटी-कास्ट किरदार एंटी-कास्ट आंदोलन के संघर्ष से निकलकर आता है। ये दलित बहुजन समाज की जद्दोजहद है और ये उनका आंदोलन है जिसकी वजह से ऐसे किरदार अस्तित्व में आते हैं। और शायद अब ये सिनेमा जगत में सफलता का नया फार्मूला है जिसका आर्थिक फ़ायदा भी दलित-बहुजन समाज को ही जाना चाहिए। लेकिन सवर्ण लेखक और निर्माता ऐसे किरदार को अपने शो को कामयाब बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं क्योंकि अब उनके पास कुछ नया बचा नहीं है। लोग जातियों को धर्म से हटकर एक संस्कृति के रूप में भी देखने लग गए हैं और जो लोग अभी तक एक मनगढ़ंत कहानी द्वारा नफ़रत या मज़ाक़ के पात्र बनते थे, वही अब समाज, राजनीति, कला क्षेत्र, व्यवसाय को दिशा दे रहे हैं। तो अब ये पूरी संस्कृति भारत का एक चेहरा बनती जा रही है जो जातिवादी विचारधारा वाले धर्मों का पालन करते राष्ट्र के चेहरे से अलग भी है और लिबरल विचार वाले सिनेमा को सूट भी करता है।

जातिवाद की वर्तमान हक़ीक़त

माही को दर्शकों का प्यार मिल रहा है क्योंकि वो संगीत में जुनून रखता है, घराने से न आने के बावजूद भी अपने सितारवादन के प्रदर्शन से राधे को निःशब्द कर देता है। वो अंग्रेज़ी बोलता है, आत्मविश्वास से लबरेज़ है, स्टाइलिश है। लेकिन ज़रा सोचें कि कोई भी इंसान जो दलित बहुजन समाज से आता हो और अपने क्षेत्र में औसत हो जो कि नॉर्मल है, उस स्थिति में उसे यही दर्शक नकार देते और उसको जातिसूचक गालियाँ देते, आरक्षण के दोष गिनाते।एक अछूत जाति से आने वाले इंसान पर बेहतर प्रदर्शन का इतना दबाव होता है कि अगर वो ज़रा भी चूक जाए तो उसे तुरंत उसकी जाति के बारे में याद दिला दिया जाता है। तो हम देखते हैं कि कैसे माही का किरदार सिर्फ़ एक व्यक्ति के किरदार तक सीमित कर दिया जाता है, सवर्ण लेखनी की यही ख़ासियत है कि ये पूरे दलित-बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।

एजुकेट, एजीटेट, ऑर्गनाइज़!

कोई भी एंटी-कास्ट किरदार एंटी-कास्ट आंदोलन के संघर्ष से निकलकर आता है। ये दलित बहुजन समाज की जद्दोजहद है और ये उनका आंदोलन है जिसकी वजह से ऐसे किरदार अस्तित्व में आते हैं। और शायद अब ये सिनेमा जगत में सफलता का नया फार्मूला है जिसका आर्थिक फ़ायदा भी दलित-बहुजन समाज को ही जाना चाहिए।लेकिन सवर्ण लेखक और निर्माता ऐसे किरदार को अपने शो को कामयाब बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं क्योंकि अब उनके पास कुछ नया बचा नहीं है। लोग जातियों को धर्म से हटकर एक संस्कृति के रूप में भी देखने लग गए हैं और जो लोग अभी तक एक मनगढ़ंत कहानी द्वारा नफ़रत या मज़ाक़ के पात्र बनते थे, वही अब समाज, राजनीति, कला क्षेत्र, व्यवसाय को दिशा दे रहे हैं।

बंदिश बैंडिट्स जैसी श्रृंखलाएँ जाति विमर्श को मुख्यधारा में लाने में योगदान देती हैं, लेकिन वे वास्तविक एंटी-कास्ट सिनेमा का स्थान नहीं ले सकतीं। इन श्रृंखलाओं में जाति के मुद्दों का सतही प्रतिनिधित्व होता है, जो समाज में जागरूकता तो बढ़ाता है, लेकिन जाति व्यवस्था की जटिलताओं को पूरी तरह से नहीं समझा पाता। माही जैसे एंटी-कास्ट किरदार को सवर्ण लेखक और निर्माता अपने शो को कामयाब बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि अब उनके पास कुछ नया बचा नहीं है। समाज को जाति के मुद्दों पर गहन समझ विकसित करने की आवश्यकता है, जो केवल सतही प्रतिनिधित्व से परे जाकर ही संभव है। जाति विमर्श के व्यावसायीकरण के बजाय, हमें ऐसे मीडिया की आवश्यकता है जो वास्तविक सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करे और जाति व्यवस्था के मूल कारणों को संबोधित करे

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लेखिका : पायल