बोंग जून-हो, जिन्होंने ‘पैरासाइट’ जैसी ऑस्कर विजेता फिल्म बनाई है, अपनी नई साइंस-फिक्शन ब्लैक कॉमेडी ‘मिकी 17’ के साथ फिर से दर्शकों के सामने हैं। बोंग जून-हो की फिल्मों की खासियत है कि वे सामाजिक और दार्शनिक सवालों को मनोरंजक अंदाज में पेश करते हैं, ‘मिकी 17’, एडवर्ड एश्टन के उपन्यास ‘मिकी 7’ पर आधारित है, और इसकी कहानी भविष्य के एक बर्फीले ग्रह पर बसाई जा रही मानव कॉलोनी के इर्द-गिर्द घूमती है। यहां मिकी बार्न्स नाम के किरदार (रॉबर्ट पैटिनसन) को ‘एक्सपेंडेबल’ यानी बार-बार मरने और फिर से क्लोन के रूप में जिंदा किए जाने के लिए रखा गया है। मिकी का काम है सबसे खतरनाक मिशनों में अपनी जान जोखिम में डालना, क्योंकि उसकी मौत के बाद उसकी यादों और व्यक्तित्व के साथ नया क्लोन तैयार कर दिया जाता है। कहानी में मोड़ तब आता है जब एक साथ दो मिकी अस्तित्व में आ जाते हैं, जिससे पहचान, अस्तित्व और मानवता के सवाल उठने लगते हैं।

फिल्म का सबसे बड़ा दार्शनिक पहलू यह है कि अगर किसी इंसान की यादें, सोच और व्यक्तित्व किसी नए शरीर में डाल दिए जाएं, तो क्या वह वही इंसान रहता है? जब एक साथ दो मिकी मौजूद होते हैं, तो असली मिकी कौन है? यह सवाल उस प्रसिद्ध विचार से मिलता है कि “कोई भी व्यक्ति एक ही नदी में दो बार नहीं नहा सकता”, क्योंकि हर पल सब कुछ बदल रहा होता है। फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि क्लोनिंग और तकनीक की वजह से इंसान की पहचान कितनी जटिल हो जाती है। जब दो क्लोन अलग-अलग सोचते और व्यवहार करते हैं, तो सवाल उठता है कि असली ‘मैं’ कौन है, और अगर कोई अपराध करता है तो जिम्मेदार कौन? यह दार्शनिक उलझन फिल्म को गहराई देती है और दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि क्या इंसान की पहचान सिर्फ उसकी यादों और शरीर से तय होती है, या कुछ और भी है?

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ‘मिकी 17’ क्लोनिंग और मेमोरी ट्रांसफर जैसी तकनीकों के जरिए अमरता और पुनरावृत्ति की संभावना को दर्शाती है। लेकिन फिल्म यहीं रुकती नहीं, बल्कि यह दिखाती है कि विज्ञान की तरक्की के साथ-साथ पूंजीवाद किस तरह इंसान की कीमत तय करता है। मिकी जैसे वर्कर को सिर्फ एक ‘डिस्पोजेबल’ संसाधन की तरह देखा जाता है, जिसे बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है। पूंजीवादी व्यवस्था में इंसान की अहमियत उसके उपयोग से तय होती है, न कि उसकी मानवता से। मिकी की बार-बार मौत और पुनर्जन्म यह सवाल उठाते हैं कि क्या तकनीक इंसान को इतना साधारण और सस्ता बना देगी कि उसकी असल पहचान ही खो जाएगी। फिल्म में कॉलोनी के तानाशाह लीडर, सत्ता और लालच के प्रतीक हैं, जो यह दिखाते हैं कि कैसे सिस्टम आम लोगों की भावनाओं और पहचान को नजरअंदाज कर देता है।

लेकिन ‘मिकी 17’ का सबसे तीखा और सामयिक पहलू यह है कि जिस ग्रह पर इंसान कॉलोनी बसाने जाते हैं, वहां पहले से ही ‘क्रीपर्स’ नाम की एक मूल प्रजाति रहती है। ये क्रीपर्स दिखने में कीड़े जैसे हैं, जिनको इंसान-खासकर पूंजीवादी और औपनिवेशिक मानसिकता वाले नेता-सिर्फ “वर्मिन” या “नुकसानदेह” मानते हैं। कॉलोनाइज़ेशन के नाम पर इंसान इन्हें मारने, हटाने या उनके घर छीनने को जायज़ ठहराते हैं, जैसे इतिहास में औपनिवेशिक ताकतों ने आदिवासी और मूल निवासियों के साथ किया। फिल्म में यह साफ दिखाया गया है कि असल में क्रीपर्स एक शांतिप्रिय, बुद्धिमान और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध प्रजाति हैं, जिनके घर को इंसान सिर्फ अपने फायदे के लिए तबाह करना चाहता है। यह दृष्टिकोण दर्शाता है कि जब भी कोई ताकतवर समूह किसी नई जगह को “कॉलोनाइज़” करता है, तो वहां के मूल निवासियों को अक्सर कीड़े-मकोड़े या कमतर समझा जाता है-उनकी इंसानियत, संस्कृति और अधिकारों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है

‘मिकी 17’ इस सवाल को मजबूती से उठाती है कि क्या तकनीकी प्रगति और पूंजीवादी सोच मिलकर इंसान को इतना स्वार्थी बना देती है कि वह दूसरों की ज़मीन, घर और अस्तित्व को मिटाने में भी संकोच नहीं करता? फिल्म के अंत में, जब इंसान और क्रीपर्स के बीच संवाद और समझदारी बनती है, तो यह उम्मीद जगती है कि असली तरक्की दूसरों की पहचान और अधिकारों का सम्मान करने में है, न कि सिर्फ विज्ञान या पूंजी के विस्तार में

~अब्दुल्लाह मंसूर