~अब्दुल्लाह मंसूर
आज की दुनिया में युद्ध केवल मिसाइल और टैंकों से नहीं लड़े जाते, बल्कि शब्दों, छवियों और कहानियों से भी। यह एक नया युद्धक्षेत्र है — जिसे हम ‘छवि युद्ध’ कह सकते हैं। इस युद्ध में हथियार होते हैं कैमरे, स्क्रिप्ट, न्यूज रिपोर्ट और फ़िल्में; और लक्ष्य होता है लोगों के दिमाग़ पर कब्ज़ा जमाना। जो दिखाया जाता है, वही ‘सच’ मान लिया जाता है। जो नहीं दिखाया जाता, वह जैसे कभी था ही नहीं। इस युद्ध की सबसे बड़ी ताक़त बन चुका है पश्चिमी मीडिया और हॉलीवुड।
हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया ने एक खास तरह की वैचारिक लड़ाई छेड़ी है — जहां कुछ देशों को सभ्य, आधुनिक और ‘नायक’ की तरह पेश किया जाता है, तो कुछ को असभ्य, हिंसक और ‘खलनायक’ के रूप में। इस छवि युद्ध में इस्लामी दुनिया, विशेषकर ईरान, सबसे बड़े निशाने पर रहा है। ईरान को एक ख़तरनाक, पिछड़ा और ‘अन्य’ (the Other) के रूप में गढ़ने का सिलसिला दशकों से चल रहा है — जिससे एक पूरी पीढ़ी उस देश और उसकी जनता को कभी जान ही नहीं पाती, सिर्फ़ डरती है। यह लेख इसी वैचारिक रणनीति को समझने की कोशिश करता है। हम देखेंगे कि कैसे पश्चिमी मीडिया और हॉलीवुड, संस्कृति और राजनीति के मोर्चे पर एक सोची-समझी छवि बनाते हैं; और कैसे यह छवि केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि वैश्विक सत्ता संतुलन का हिस्सा बन जाती है। ईरान के संदर्भ में यह लेख एक गहरे विमर्श की ओर ले जाने की कोशिश है।
हॉलीवुड को केवल मनोरंजन उद्योग के तौर पर देखना एक बड़ी भूल होगी। यह अमेरिकी सॉफ्ट पावर का सबसे बड़ा निर्यातक है, जो अपने कंटेंट के जरिए अमेरिकी मूल्यों, विचारधाराओं और नीतियों को दुनिया भर में फैलाता है। जोसेफ नाइ के अनुसार, सॉफ्ट पावर वह शक्ति है, जिसमें आकर्षण, संस्कृति और विचारधारा के माध्यम से अपनी बात मनवाई जाती है, न कि सैन्य या आर्थिक दबाव से। हॉलीवुड की फिल्में, टीवी सीरीज और वेब सीरीज अमेरिकी जीवनशैली, लोकतंत्र, मानवाधिकारों और स्वतंत्रता के आदर्शों को ग्लैमराइज करती हैं। इसके विपरीत, विरोधी देशों को अक्सर आतंकवाद, कट्टरपंथ, तानाशाही, पिछड़ेपन और असभ्यता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह एक प्रकार का “सांस्कृतिक युद्ध” है, जिसमें हॉलीवुड विचारधारा और परसेप्शन की लड़ाई लड़ता है।
ईरान की छवि पश्चिमी मीडिया में 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से ही नकारात्मक रूप में उभरनी शुरू हुई। क्रांति के बाद ईरान ने अमेरिका के मित्रवत शासन को गिराकर एक कट्टरपंथी इस्लामी सरकार स्थापित की, जिससे अमेरिका के लिए यह देश एक बड़ा खतरा बन गया। 9/11 के बाद, जब अमेरिका ने “ग्लोबल वॉर ऑन टेरर” की घोषणा की, तब से ईरान को आतंकवाद और वैश्विक अस्थिरता का केंद्र बताया जाने लगा। हॉलीवुड की फिल्मों और टीवी सीरीज ने इस छवि को और मजबूत किया, जिसमें ईरान को बार-बार खलनायक, पिछड़ा, कट्टर और असहिष्णु देश के रूप में दिखाया गया।
‘Argo’ (2012) जैसी फिल्में इस छवि निर्माण का सबसे बड़ा उदाहरण हैं। यह फिल्म 1979 की ईरानी क्रांति के दौरान अमेरिकी दूतावास संकट पर आधारित है। इसमें ईरानियों को हिंसक, उग्र और भीड़ के रूप में दिखाया गया है, जबकि अमेरिकी और कनाडाई पात्रों को साहसी, समझदार और मानवीय बताया गया है। फिल्म में सीआईए एजेंट टोनी मेंडेज़ एक नकली हॉलीवुड साइंस-फिक्शन फिल्म की आड़ में छह अमेरिकी राजनयिकों को ईरान से निकालने की योजना बनाता है। पूरी कहानी में ईरानियों की छवि एक खतरनाक, अस्थिर और पश्चिम विरोधी समाज के रूप में उभरती है, जबकि अमेरिकी मिशन को नायकत्व और नैतिकता से जोड़ा गया है। इसी तरह ‘Homeland’ जैसी टीवी सीरीज आतंकवाद, जासूसी और पश्चिमी सुरक्षा के विषयों पर आधारित है, जिसमें ईरान को बार-बार आतंकवाद का केंद्र, अमेरिकी हितों के लिए खतरा और कट्टरपंथी के रूप में दिखाया गया है। ‘Not Without My Daughter’ (1991) में ईरानी समाज को महिलाओं के लिए क्रूर, असहिष्णु और पिछड़ा दिखाया गया है। ‘The Stoning of Soraya M.’ (2008) जैसी फिल्में ईरान में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार, विशेषकर पत्थर मार-मारकर हत्या की अमानवीय प्रथा को उजागर करती हैं। ‘Tehran’ (2020-) जैसी इज़राइली थ्रिलर सीरीज में ईरान को खतरनाक, चालाक और पश्चिमी हितों के लिए बड़ा खतरा दिखाया गया है। यह थ्रिलर सीरीज़ एक मोसाद एजेंट, तामार रबिनियन (निव सुल्तान), पर केंद्रित है, जो तेहरान में एक गुप्त मिशन पर है। उसका लक्ष्य ईरान के परमाणु रिएक्टर को नष्ट करना है, जो इज़रायल और पश्चिमी देशों (अमेरिका सहित) के लिए खतरा माना जाता है। कहानी में जासूसी, विश्वासघात और तनावपूर्ण कार्रवाई शामिल है।
फिल्म Top Gun: Maverick (Top Gun 2) की कहानी अमेरिकी नौसेना के अनुभवी पायलट कैप्टन पीट “मैवरिक” मिशेल (Tom Cruise) के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसे एक बेहद खतरनाक मिशन के लिए चुना जाता है। उसे टॉप गन के युवा पायलट्स को ट्रेनिंग देनी होती है ताकि वे एक दुश्मन देश के भूमिगत यूरेनियम संवर्धन संयंत्र को नष्ट कर सकें, जो अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन कर रहा है। फिल्म में देश का नाम नहीं बताया गया, लेकिन इसके कथानक, सुरक्षा इंतजाम और सैन्य हार्डवेयर को देखकर स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर आधारित है। असल में, ईरान का प्रमुख यूरेनियम संवर्धन संयंत्र “नतांज” (Natanz) है, जो इस कथानक का प्रेरणा स्रोत माना जाता है। नतांज ईरान का सबसे बड़ा और मुख्य परमाणु संयंत्र है, जहां हजारों सेंट्रीफ्यूज लगे हैं और यह भूमिगत भी है, जिससे इसे हवाई हमलों से बचाया जा सके। फिल्म में दिखाया गया मिशन, अमेरिकी पायलट्स की बहादुरी और रणनीति को दर्शाता है, जिसमें वे दुश्मन की कड़ी सुरक्षा को पार कर संयंत्र को तबाह कर देते हैं। इस रोमांचक कहानी में अमेरिका को वैश्विक सुरक्षा का रक्षक दिखाया गया है, जो संभावित परमाणु खतरे को समय रहते खत्म कर देता है।

Kandahar (2023) इस फिल्म में जेरार्ड बटलर ने टॉम हैरिस की भूमिका निभाई है, जो एक CIA एजेंट है, जो ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ गुप्त मिशन पर है।फिल्म में ईरान की इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) को खलनायक के रूप में दिखाया गया है, जो क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ावा देता है, जैसा कि में उल्लेखित है। The Operative (2019)यह एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर है, जिसमें डायने क्रूगर ने राचेल की भूमिका निभाई है, जो एक मोसाद एजेंट है, जो तेहरान में गुप्त मिशन पर है। वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम से संबंधित एक व्यक्ति (कास अनवर) की जासूसी करती है,ईरान का परमाणु कार्यक्रम एक संभावित खतरे के रूप में चित्रित किया गया है, जिसे रोकने के लिए मोसाद सक्रिय है। इन सभी फिल्मों और सीरीज में ईरान के लोगों को अक्सर बिना पृष्ठभूमि या मानवीय संदर्भ के, केवल कट्टरपंथी, आतंकवादी या दमनकारी के रूप में दिखाया जाता है। महिलाओं की छवि भी अक्सर पीड़ित और दबाई गई के रूप में प्रस्तुत की जाती है।
ईरान के भीतर बनी जो फिल्में अपने समाज की नकारात्मक छवि को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करती हैं। इन फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में सराहा जाता है और पश्चिमी मीडिया इन्हें खूब प्रमोट करता है। उदाहरण के लिए, ‘Persepolis’ (2007) एक एनिमेटेड फिल्म है, जिसमें 1979 की क्रांति और उसके बाद के ईरान को एक युवा लड़की की नजर से दिखाया गया है। फिल्म में ईरान को धार्मिक कट्टरता, महिलाओं की आज़ादी पर पाबंदी, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन के प्रतीक के रूप में दिखाया गया है। ‘The Circle’ (2000) में ईरान में महिलाओं की स्थिति, सामाजिक पाबंदियों और लैंगिक असमानता को उजागर किया गया है। ‘Taxi’ (2015) और ‘This Is Not a Film’ (2011) जैसी फिल्मों में सेंसरशिप, सामाजिक असमानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को दिखाया गया है। ‘Aghazadeh’ (2020) जैसी ईरानी टीवी सीरीज में देश के कुलीन वर्ग, भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग को उजागर किया गया है। इन फिल्मों और सीरीज में ईरानी समाज की समस्याओं, असमानताओं और राजनीतिक दमन को प्रमुखता से दिखाया गया है, जिससे पश्चिमी दर्शकों को यह संदेश मिलता है कि ईरान में रहना कठिन, असहिष्णु और पिछड़ेपन से भरा है। The Night Agent सीज़न 2 में ईरान को एक दमनकारी और षड्यंत्रकारी देश के रूप में दिखाया गया है, खासकर महिलाओं के संदर्भ में। सीरीज़ में दिखाया गया है कि ईरानी मिशन उन महिलाओं को निशाना बनाता है जो सरकार के खिलाफ बोलती हैं या पश्चिमी देशों से संबंध रखती हैं। नूर ताहेरी और उसकी माँ पर अत्याचार, ब्लैकमेलिंग और धमकी की घटनाएँ दर्शाती हैं कि ईरान में महिलाओं की आवाज़ दबाई जाती है।
यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ईरानी समाज में महिलाओं के अधिकारों का दमन और लैंगिक भेदभाव एक गंभीर और निंदनीय समस्या है, जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता। हाल के वर्षों में ईरान में महिलाओं पर हिजाब और जीवनशैली को लेकर कठोर कानून, राजनीतिक भागीदारी में कमी, विवाह, तलाक और संपत्ति जैसे मामलों में भेदभाव और सार्वजनिक जीवन में पाबंदियाँ लगातार बढ़ी हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने ‘जेंडर अपार्थाइड’ तक कहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि ऐसी ही दमनकारी नीतियाँ सऊदी अरब और अन्य अरब देशों में भी हैं, जहाँ महिलाओं को समान रूप से राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद, हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया में केवल ईरान को बार-बार नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सऊदी अरब जैसे देशों पर ऐसी आलोचनात्मक फिल्में या सीरीज शायद ही बनती हैं। इससे स्पष्ट है कि किसी एक देश को विशेष रूप से टारगेट किया जाता है, और इसके पीछे अक्सर राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक हित छिपे होते हैं।
मानवाधिकार के नाम पर अमेरिका ने कई बार सैन्य हस्तक्षेप को जायज ठहराया है—जैसे इराक पर ‘जनसंहारक हथियारों’ का झूठा आरोप लगाकर युद्ध थोपना, जबकि बाद में यह साबित हो गया कि ऐसे हथियार थे ही नहीं। इन युद्धों के पीछे अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक तंत्र, हथियार कंपनियों और राजनीतिक हितों का गठजोड़ सक्रिय रहता है, जो युद्ध और अस्थिरता से लाभ उठाते हैं। इसीलिए जरूरी है कि जब भी किसी एक देश को बार-बार मीडिया और फिल्मों में निशाना बनाया जाए, तो उसके पीछे की राजनीति और हितों को भी समझा जाए, न कि केवल मानवाधिकार के नाम पर किसी सैन्य कार्रवाई को सही मान लिया जाए। इस विषय पर फिल्म वाइस देखी जा सकती है जो अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति डिक चेनी की कहानी है। डिक चेनी का किरदार उस राजनीति का चेहरा है जो भावनाओं, देशभक्ति और सुरक्षा के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाकर सिर्फ मुनाफा कमाती है।
ओरीएंटलिज़्म एक विचार है, जिसे मशहूर लेखक एडवर्ड सईद ने समझाया था। इसके मुताबिक, पश्चिमी देश (जैसे अमेरिका और यूरोप) अक्सर पूर्वी देशों (जैसे ईरान, भारत, अरब देश) को अपनी फिल्मों, किताबों और मीडिया में ऐसे दिखाते हैं जैसे वे पिछड़े, अजीब, खतरनाक या असभ्य हों। इस तरह दिखाने का मकसद यह होता है कि पश्चिमी देश खुद को बेहतर, समझदार और सभ्य साबित कर सकें। हॉलीवुड की फिल्मों में यह बहुत साफ दिखता है। उदाहरण के लिए, जब भी ईरान या अरब देशों को दिखाया जाता है, तो वहां के लोग अक्सर आतंकवादी, कट्टरपंथी या क्रूर दिखाए जाते हैं। उनकी संस्कृति को भी अजीब या डरावना बताया जाता है। इससे दर्शकों के मन में यह बैठ जाता है कि ये देश और इनके लोग खतरनाक हैं, जबकि असलियत में हर देश में अच्छे-बुरे लोग होते हैं और हर संस्कृति की अपनी खूबसूरती होती है।
यह सिर्फ फिल्मों में नहीं होता, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक मकसद भी होते हैं। अमेरिका और पश्चिमी देश चाहते हैं कि उनकी नीतियों और फैसलों को लोग सही मानें। इसलिए वे फिल्मों के जरिए अपने विरोधी देशों की छवि खराब करते हैं, ताकि लोग उन देशों के खिलाफ सोचें और पश्चिमी देशों की नीतियों को सपोर्ट करें। कई बार अमेरिकी सरकार और उनकी खुफिया एजेंसियां हॉलीवुड फिल्मों के निर्माण में सीधा दखल देती हैं। वे फिल्ममेकर्स को सलाह देती हैं, स्क्रिप्ट बदलवाती हैं, ताकि कहानी में अमेरिका को हीरो और विरोधी देशों को विलेन दिखाया जाए। इससे आम दर्शक के दिमाग में एक खास सोच बन जाती है—जैसे ईरान या अरब देश हमेशा गलत ही होते हैं।

ओरीएंटलिज़्म का सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि हॉलीवुड की फिल्मों में जो पूर्वी देशों की छवि दिखाई जाती है, वह अक्सर एकतरफा, भेदभावपूर्ण और पश्चिमी हितों के हिसाब से बनाई गई होती है। इसलिए जब भी हम ऐसी फिल्में देखें, तो हमें खुद से सवाल करना चाहिए—क्या यह असली तस्वीर है, या किसी खास मकसद से बनाई गई है? हॉलीवुड और पश्चिमी मीडिया द्वारा नकारात्मक छवि बनाना सिर्फ ईरान तक सीमित नहीं है, बल्कि रूस, चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया, इराक और अफगानिस्तान जैसे देशों के साथ भी यही तरीका अपनाया गया है। इन देशों को फिल्मों, टीवी सीरीज और मीडिया रिपोर्ट्स में बार-बार खलनायक, मानवाधिकार विरोधी या आतंकवाद समर्थक के रूप में दिखाया जाता है, जिससे दर्शकों के मन में इनके प्रति डर और पूर्वाग्रह पैदा होता है। दूसरी ओर, कुछ अंतरराष्ट्रीय फिल्में और सीरीज भी हैं जो अमेरिकी नीतियों, युद्धों और हस्तक्षेप की आलोचना करती हैं और अमेरिका या उसकी सेना को नकारात्मक रूप में दिखाती हैं। उदाहरण के लिए, तुर्की की “Valley of the Wolves: Iraq” में अमेरिकी सेना को इराक में क्रूर और अमानवीय दिखाया गया है, पाकिस्तानी फिल्म “In the Name of God (Khuda Kay Liye)” में 9/11 के बाद अमेरिका की इस्लामोफोबिया और निर्दोष मुसलमानों पर अत्याचार को दिखाया गया है, ईरानी “Battle of Persian Gulf II” में ईरान की ताकत के सामने अमेरिकी सेना को कमजोर दिखाया गया है, रूसी सीरीज “Adaptation” में अमेरिका को रूस में साजिश रचने वाला बताया गया है, और चीनी फिल्म “The Battle at Lake Changjin” में कोरियाई युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना की हार और चीनी सेना की बहादुरी को दिखाया गया है। इन फिल्मों को पश्चिमी मीडिया अक्सर “प्रोपेगेंडा” या “विवादास्पद” कहकर खारिज कर देता है, जबकि हॉलीवुड की फिल्मों को “सच्चाई” या “मूल्य आधारित” बताया जाता है, चाहे वे ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करें। इससे साफ है कि छवि निर्माण और नैरेटिव नियंत्रण दोनों तरफ से होता है, लेकिन पश्चिमी मीडिया का प्रभाव ज्यादा होता है। इसलिए जब भी हम किसी देश की छवि फिल्मों या मीडिया में देखें, तो यह समझना जरूरी है कि वह हमेशा निष्पक्ष या सच नहीं होती, बल्कि कई बार राजनीतिक और सांस्कृतिक हितों के हिसाब से गढ़ी जाती है, और इसका असर दर्शकों की सोच पर गहरा पड़ता है।
मीडिया का प्रभाव केवल फिल्मों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि समाचार चैनल, अखबार, ऑनलाइन पोर्टल्स और सोशल मीडिया भी अमेरिकी और पश्चिमी देशों के प्रोपेगेंडा को फैलाने में अहम भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, 2003 के इराक युद्ध के दौरान अमेरिकी मीडिया संस्थानों—जैसे CNN, Fox News और The New York Times—ने सरकारी दावों (जैसे इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों की मौजूदगी) को बिना पर्याप्त जांच के प्रमुखता से दिखाया, जबकि बाद में ये दावे झूठे साबित हुए। इसी तरह, सीरिया संकट या ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर रिपोर्टिंग में अक्सर विरोधी देशों की नकारात्मक खबरें प्रमुखता से दिखाई जाती हैं, जबकि अमेरिका या पश्चिम की गलतियों को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है या उन्हें उचित ठहराने की कोशिश की जाती है।
हॉलीवुड की फिल्मों में यह साफ दिखता है कि अमेरिकी सैनिकों और एजेंसियों को अक्सर नायक और रक्षक के रूप में पेश किया जाता है, खासकर अफगानिस्तान और इराक युद्ध पर बनी फिल्मों में। उदाहरण के लिए, “American Sniper” में इराक युद्ध के सबसे घातक स्नाइपर क्रिस काइल की बहादुरी और देशभक्ति को दिखाया गया है, जबकि “Zero Dark Thirty” में ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की रणनीति और सफलता को महिमामंडित किया गया है। इसी तरह “The Hurt Locker” में इराक में बम निरोधक दस्ते की बहादुरी, “Lone Survivor” में अफगानिस्तान में अमेरिकी नेवी सील्स के बलिदान, और “12 Strong” में तालिबान के खिलाफ अमेरिकी स्पेशल फोर्स की जीत को दर्शाया गया है। “The Outpost” में अफगानिस्तान के एक दूरदराज़ चौकी पर अमेरिकी सैनिकों की टीम वर्क और साहस को दिखाया गया है, जबकि “The Covenant” में एक अमेरिकी सैनिक द्वारा अपने अफगान दुभाषिए को बचाने की कहानी है। “Green Zone” में इराक में अमेरिकी अधिकारी की सच्चाई की खोज और “Brothers” में अफगानिस्तान युद्ध से लौटे सैनिक के पारिवारिक संघर्ष को केंद्र में रखा गया है। इन सभी फिल्मों में अमेरिकी सेना या एजेंसियों को संकटमोचक, न्यायप्रिय और क्षेत्रीय स्थिरता के रक्षक के रूप में दिखाया जाता है, जिससे अमेरिकी प्रभुत्व और नैतिकता की छवि दर्शकों के मन में गहराई से बैठ जाती है। युद्ध की जटिलताओं और स्थानीय लोगों के नजरिए को या तो सीमित रूप में दिखाया जाता है या अमेरिकी दृष्टिकोण के हिसाब से प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पश्चिमी देशों का नैरेटिव और मजबूत होता है।

यह प्रक्रिया केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक जनमत निर्माण, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और परसेप्शन मैनेजमेंट का हिस्सा है। अमेरिकी मीडिया और हॉलीवुड का वैश्विक प्रभाव इतना व्यापक है कि वह दुनिया भर के लोगों की सोच, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को आकार देता है। मीडिया विशेषज्ञ एडवर्ड सईद की “ओरिएंटलिज़्म” थ्योरी भी बताती है कि कैसे पश्चिमी देश अपने हितों के लिए पूर्वी देशों की छवि को नियंत्रित और विकृत करते हैं। इसलिए, दर्शकों के लिए जरूरी है कि वे फिल्मों और मीडिया रिपोर्ट्स को आलोचनात्मक दृष्टि से देखें, तथ्यों की जांच करें और यह समझें कि हर कहानी के पीछे कोई न कोई एजेंडा हो सकता है। केवल इसी तरह वे सच्चाई और प्रोपेगेंडा में फर्क कर सकते हैं और किसी भी देश या संस्कृति के बारे में संतुलित और निष्पक्ष राय बना सकते हैं।
लेखक पसमांदा चिंतक हैं और यूट्यूब चैनल पसमांदा डेमोक्रेसी के संचालक हैं