Category: Education and Empowerment

राष्ट्र निर्माण में शिक्षकों की भूमिका: चुनौतियाँ और समाधान

भारत में प्राथमिक शिक्षा की सार्वभौमिक पहुंच के बावजूद, शैक्षणिक गुणवत्ता और बच्चों की सीखने की क्षमता में कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं। मुख्य समस्या यह है कि बच्चे अपेक्षित स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, भारतीय स्कूलों की कठोर संरचना बच्चों के पिछड़ने का कारण बनती है। शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे प्रत्येक कक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का कड़ाई से पालन करें। इस कठोर संरचना के कारण, शिक्षक उन बच्चों पर पर्याप्त समय नहीं दे पाते जो कक्षा के स्तर से पीछे हैं। हाल तक, प्रारंभिक कक्षाओं में छात्रों के मूल्यांकन की कोई व्यवस्थित प्रणाली नहीं थी जो पिछड़े हुए बच्चों की पहचान कर सके। स्कूल प्रणाली (सरकारी या निजी) में पिछड़े हुए बच्चों की मदद के लिए कोई संगठित या व्यवस्थित उपचारात्मक प्रयास नहीं किए जाते। यदि कोई बच्चा शुरुआती वर्षों में बुनियादी कौशल नहीं सीखता है, तो बाद के स्कूली वर्षों में उनके इन कौशलों को प्राप्त करने की संभावना कम होती है। इस कठोर संरचना के परिणामस्वरूप, कई बच्चे पाठ्यक्रम के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते और धीरे-धीरे पीछे रह जाते हैं। यह स्थिति विशेष रूप से उन बच्चों के लिए चुनौतीपूर्ण है जिनके माता-पिता कम शिक्षित हैं और घर पर पर्याप्त शैक्षणिक सहायता प्रदान नहीं कर सकते।

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उर्दू ज़ुबान में पसमांदा अदब क्यों नहीं है ?

उर्दू साहित्य में ऐतिहासिक रूप से अशराफ (उच्च वर्ग) का प्रभुत्व रहा है। अशराफ वर्ग ने पसमांदा समाज को मुख्यधारा में शामिल नहीं किया, जिससे उर्दू अदब में पसमांदा समुदाय की आवाज़ें कमज़ोर रही हैं। उर्दू साहित्य में पसमांदा समुदाय की समस्याओं और उनके जीवन के पहलुओं को अक्सर नजरअंदाज किया गया है। उदाहरण के लिए, उर्दू गज़लों में दलित मुस्लिम समाज की महिलाओं को शायद ही कभी चित्रित किया गया है, जो समाज में व्याप्त रंगभेद को दर्शाता है। आज भी उर्दू साहित्य में पसमांदा समुदाय की समस्याओं को प्रमुखता नहीं मिलती। हालांकि, कुछ लेखकों और कवियों ने इस दिशा में काम किया है, लेकिन उन्हें व्यापक पहचान नहीं मिली है। इसके अलावा, पसमांदा समुदाय की ओर से भी साहित्यिक योगदान की कमी रही है, जिससे उनकी आवाज़ें साहित्यिक मंच पर कम सुनाई देती हैं।

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ज़ातत-पात (जातिवाद) की जड़ें

मोहम्मडन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज (अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी) पिछड़ी बिरादरियों को शिक्षा का अधिकार दिए जाने कि बात दूर की है. धार्मिक दृष्टिकोण से सभी मुसलमानों को बराबर नहीं समझा गया. इस का एक उदाहरण मौलाना अशरफ़ अली थानवी (र०अ०) की किताब ‘अशरफ़-उल-जवाब’ में मिलता है. उस के अन्दर है कि-

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मुस्लिम आरक्षण का आधा-अधूरा सच

कुछ बहुजन सोशल मीडिया दलालों द्वारा एक और अर्ध-सत्य फैलाया जा रहा है, इन मीडिया दलालों की हाल ही में हिंदू राइट के प्रति सहानुभूति है, वह कह रहे हैं कि मुस्लिम पहले से ही चार प्रकार की आरक्षण सुविधा प्राप्त कर रहे हैं – OBC वर्ग में पिछड़े मुस्लिम, ST वर्ग में आदिवासी मुस्लिम, EWS वर्ग में ऊपरी जाति (अशराफ़) मुस्लिम, और सरकार द्वारा अनुदानित मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थानों – और इसलिए दलित मुस्लिम (या ईसाई) को एससी वर्ग में शामिल करना गलत है।

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हर सवाल का सवाल ही जवाब हो

अशराफ अक्सर पसमांदा आंदोलन पर मुस्लिम समाज को बांटने का आरोप लगाकर पसमंदा आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश करता है। जिसके भ्रम में अक्सर पसमांदा आ भी जाते हैं। जबकि पसमांदा आंदोलन वंचित समाज को मुख्यधारा में लाने की चेष्टा, सामाजिक न्याय का संघर्ष, हक़ अधिकार की प्राप्ती का प्रयत्न है। जिसका किसी भी धर्म से कोई सीधा टकराव नही है। इतिहास साक्षी है कि अशराफ, हमेशा से धर्म का इस्तेमाल अपनी सत्ता और वर्चस्व के लिए करता आ रहा है, और इसमें सफल भी रहा है। अतः उसके लिए यह आरोप लगाना बहुत आसान है। पसमांदा की तरक़्क़ी में सबसे बड़ी बाधा अशराफ ही बना हुआ है जो पसमांदा को धार्मिक और भावनात्मक बातो में उलझा कर उसको उसकी असल समस्यों, रोज़ी रोटी, समाजी बराबरी और सत्ता में हिस्सेदारी से दूर रखते हुए स्वयं को सत्ता के निकट रखना सुनिश्चित किये हुए है। इसलिए पसमांदा को इस धोखे से बाहर निकल कर सामाजिक न्याय की इस लड़ाई में अशराफ के विरुद्ध कमर कसकर खड़ा होना होगा।

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