Category: Book Review
पुस्तक समीक्षा: “सच्चाई के हक़ में पसमांदा प...
Posted by Abdullah Mansoor | Nov 18, 2024 | Book Review | 0 |
आधा गाँव: एक पसमांदा समीक्षा...
Posted by Abdullah Mansoor | Aug 11, 2024 | Book Review, Reviews | 0 |
पर्वत और समुद्र के बीच:घुमक्कड़ी की आज़ादी...
Posted by Abdullah Mansoor | Jun 7, 2024 | Book Review, Movie Review | 0 |
अशराफ़िया अदब को चुनौती देती ‘तश्तरी’: पसमांदा यथार्थ की कहानियाँ
by Arif Aziz | Oct 29, 2025 | Book Review, Casteism, Culture and Heritage, Education and Empowerment | 0 |
सुहैल वहीद द्वारा संपादित ‘तश्तरी’ उर्दू साहित्य में पसमांदा समाज की आवाज़ को सामने लाने वाला ऐतिहासिक संग्रह है। यह पुस्तक मुस्लिम समाज में सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव और उर्दू साहित्य की चुप्पी को चुनौती देती है। अब्दुल्लाह मंसूर बताते हैं कि प्रगतिशील और अशराफ़ लेखक अपने वर्गीय हितों के कारण इस अन्याय पर मौन रहे। ‘तश्तरी’ उन कहानियों का संग्रह है जो इस मौन को तोड़ती हैं, मुस्लिम समाज के भीतर छुआछूत और सामाजिक पाखंड को उजागर करती हैं। यह किताब पसमांदा साहित्यिक आंदोलन की शुरुआत और आत्मसम्मान की लड़ाई का प्रतीक बनती है।
Read Moreपुस्तक समीक्षा: “सच्चाई के हक़ में पसमांदा पक्ष”
by Abdullah Mansoor | Nov 18, 2024 | Book Review | 0 |
यह पुस्तक पसमांदा समाज के लिए न केवल एक प्रेरणा है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने में सक्षम है। इसे पढ़कर पसमांदा समाज में जागरूकता बढ़ेगी, और यह उन्हें अपने संघर्षों को दस्तावेजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। पुस्तक की स्पष्टता, तर्कसंगतता, और सामाजिक संदेश इसे पसमांदा आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन बनाते हैं। इसलिए, यह उम्मीद की जा सकती है कि पसमांदा समाज इस पुस्तक को व्यापक रूप से अपनाएगा और इसे अपने संघर्ष के दस्तावेजीकरण के रूप में देखेगा, जिससे आने वाले समय में और अधिक पसमांदा लेखन एवं विचारधारा विकसित हो सकेगी।
Read MoreBook Review : Basic Problems of OBC and Dalit Muslims by Ashfaq Husain Ansari
by Azeem Ahmed | Sep 14, 2024 | Book Review | 0 |
Book Review by Dr. Ausaf Ahmad Social stratification of Indian Muslims along caste lines, is by...
Read Moreआधा गाँव: एक पसमांदा समीक्षा
by Abdullah Mansoor | Aug 11, 2024 | Book Review, Reviews | 0 |
राही मासूम रज़ा का उपन्यास “आधा गाँव” भारतीय ग्रामीण समाज की जटिलताओं और विभाजन के समय की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों का विशद चित्रण करता है। इस उपन्यास में मुख्यतः शिया सैयद परिवार और अशराफ मुसलमानों के जीवन को केंद्र में रखा गया है। लेखक ने अपनी जातिगत पहचान और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर उन सामाजिक मुद्दों को उजागर किया है जो भारतीय मुस्लिम समाज में लंबे समय से विद्यमान हैं, जैसे जातिवाद, धार्मिक भेदभाव, और सामाजिक असमानता।
हालाँकि, लेखक पर यह आलोचना भी की जा सकती है कि उन्होंने उपन्यास में पसमांदा मुसलमानों के संघर्षों और उनकी आवाज़ को वह महत्व नहीं दिया, जो कि उनका हक था। उपन्यास में पसमांदा पात्रों को केवल सहायक भूमिकाओं में दिखाया गया है, और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को गहराई से नहीं उभारा गया है। इस दृष्टिकोण से, “आधा गाँव” केवल अशराफ मुसलमानों के दृष्टिकोण से समाज का चित्रण करता है, और पसमांदा मुसलमानों के जीवन की वास्तविकताओं को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं करता।
यह समीक्षा पसमांदा समाज के दृष्टिकोण से उन मुद्दों पर प्रकाश डालती है, जो इस उपन्यास में अनदेखे रह गए हैं, और पसमांदा समाज के संघर्षों को अधिक समर्पित और संवेदनशील लेखन की आवश्यकता पर जोर देती है।
Read Moreपर्वत और समुद्र के बीच:घुमक्कड़ी की आज़ादी
by Abdullah Mansoor | Jun 7, 2024 | Book Review, Movie Review | 0 |
हम भी खुद को अपने शरीर की आज़ादी से जुड़ी पहचान तक सीमित कर लेते हैं। शरीर को सजाना, सँवारना, कपड़े पहनाना, उतारना मात्र ही आज़ादी है, तो हम कहीं न कहीं अपने शरीर का ऑब्जेक्टिफ़िकेशन करने में खुद ही लगे हुए हैं, और यही तो पुरुष समाज चाहता है। अगर हम सेक्स को लेकर खुलेपन पर बात करते हैं, तो भी हम नारी सशक्तिकरण की कोई लड़ाई नहीं जीत रहे जब तक कि हम लड़कियों को भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर सुरक्षित नहीं कर लेते। सेक्स करने की आज़ादी से पहले अगर आप अपने पार्टनर का कुल-गोत्र ढूँढ रहे हैं, तो शायद आप पहले ही मानसिक ग़ुलाम और (जाने या अनजाने) जातिवादी हैं। सेक्स और शरीर से जुड़ी आज़ादी ज़रूरी है क्योंकि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के अंतर्गत हम औरतों के शरीर को एक इंसान के स्तर पर न देखकर पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखते हैं। औरत के शरीर पर जाति व परिवार की इज्जत को थोप दिया है और इस तरह औरत की पूरी पहचान उसके शरीर पर ही केंद्रित होकर रह जाती है। लेकिन क्या समस्या-स्थल से पलायन कर जाना आज़ादी है? क्या कहीं दूर किसी आज़ाद जगह पर बस जाना आज़ादी है? उनका क्या जो दूर नहीं जाना चाहते, क्या आज़ादी उनकी है ही नहीं?
Read Moreपुस्तक समीक्षा: इस्लाम का जन्म और विकास
by Abdullah Mansoor | May 1, 2024 | Book Review | 0 |
मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि इस्लाम से पहले की तारीख़ दरअसल अरब क़बीलों का इतिहास माना जाता था। इस में हर क़बीले की तारीख़ और इस के रस्म-ओ-रिवाज का बयान किया जाता था। जो व्यक्ति तारीख़ को महफ़ूज़ रखने और फिर इसे बयान करने का काम करते थे उन्हें रावी या अख़बारी कहा जाता था। कुछ इतिहासकार इस्लाम और मुसलमान में फ़र्क़ करते हैं।
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